अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा फेडरल रिजर्व की गवर्नर लीसा कुक को पद से हटाने के निर्णय ने आर्थिक जानकारों में तूफान खड़ा कर दिया है। कुक को कथित तौर पर ऋण के आवेदन के समय गलत दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए पद से हटाया गया। जानकारों की एक बात सही है: अनियमितताओं ने केवल ट्रंप को कुक को हटाने का वैधानिक आधार मुहैया कराया। असल वजह तो यह है कि कुक फेड के बोर्ड के उस बहुमत का हिस्सा हैं जिसने बार-बार ट्रंप की ब्याज दरों में कमी की मांग को ठुकराया है।
कुक को हटाकर ट्रंप फेडरल रिजर्व के बोर्ड और फेडरल ओपन मार्केट कमिटी के सदस्यों को ब्याज दरों के बारे में संदेश दे रहे हैं कि केंद्रीय बैंक लंबे समय तक राष्ट्रपति के विरुद्ध नहीं रह सकता। ट्रंप का कहना है कि फेड की लोकतांत्रिक जवाबदेही का अर्थ यह है कि निर्वाचित प्राधिकार को मौद्रिक नीति में अपनी बात मनवाने का अधिकार होना चाहिए।
अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने यूएसए टुडे को दिए एक साक्षात्कार में कहा, ‘क्या यह कहना कुछ हद तक हास्यास्पद नहीं है कि जनता के मतों से निर्वाचित अमेरिका के राष्ट्रपति जो यकीनन कांग्रेस के साथ मिलकर कार्य करते हैं, उनमें ऐसे निर्णय लेने की क्षमता नहीं है? मुझे नहीं लगता कि हम अफसरशाहों को ऊंचे पदों पर बैठाकर यह अनुमति देते हैं कि वे मौद्रिक नीति और ब्याज दरों पर निर्णय लें, बिना उन लोगों की राय लिए जो अमेरिकी जनता की सेवा के लिए चुने गए हैं।’
क्या यह केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का अंत है? भले ही हमें ऐसा विश्वास दिलाया जाए लेकिन यह सही नहीं है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता 1970 के दशक में दो अंकों की मुद्रास्फीति के परिदृश्य में तैयार हुई थी। उस समय मौद्रिक नीति पर राजनेताओं का नियंत्रण था। लोग उच्च मुद्रास्फीति के आदी थे। उस समय यह सबक मिला कि मौद्रिक नीति को नेताओं से बचाना चाहिए। उसे टेक्नोक्रेट्स यानी तकनीकी विशेषज्ञों के हवाले कर देना चाहिए। तब से वक्त बदल चुका है। आज दो अंकों की मुद्रास्फीति बहुत कम ही दिखती है और मुद्रास्फीति की बहुत गंभीर आर्थिक कीमत तभी चुकानी पड़ती है जब यह दो अंकों में हो। इतना ही नहीं जैसा कि अर्थशास्त्री लैरी समर्स ने कहते हैं, सरकारों ने मुद्रास्फीति रोधी मानदंडों को अपना लिया है ऐसे में सरकारी मौद्रिक नरमी पहले जैसा खतरा नहीं है।
केंद्रीय बैंक वित्त मंत्रालय के साथ मिलकर काम करते हैं। संकट की रोकथाम और प्रतिक्रिया के लिए समन्वय की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। यदि बैंकों को जनता के धन से बचाया जाना है, तो सरकार की भागीदारी अनिवार्य है। यदि फेडरल रिजर्व को सरकारी या गैर-सरकारी प्रतिभूतियां वापस खरीदनी हैं, तो यह एक राजनीतिक निर्णय होता है क्योंकि इससे विशेष प्रतिभूति धारकों को लाभ होता है। ऐसे निर्णय केंद्रीय बैंक द्वारा स्वतंत्र रूप से लेना उचित नहीं माना जा सकता।
अमेरिका में भी फेड को चलाने वाले अनिर्वाचित टेक्नोक्रेट्स की जवाबदेही की कमी को लेकर गंभीर चिंता का माहौल है। राष्ट्रपति की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और अब फेड के बोर्ड में नामित स्टीफन मिरान ने डैनियल काट्ज के साथ मिलकर एक शोधपत्र का लेखन किया है जो फेड के संस्थागत ढांचे में गंभीर कमियों को रेखांकित करता है। (रिफॉर्म द फेडरल रिजर्व्स गवर्नेंस टु डिलिवर बेटर मॉनिटरी आउटकम्स, डैनियल काट्ज ऐंड स्टीफन मिरान, मैनहट्टन इंस्टीट्यूट, मार्च 2024)।
उदाहरण के तौर पर, फेडरल रिजर्व बोर्ड ऑफ गवर्नर्स का एक सदस्य 14 वर्षों का कार्यकाल प्राप्त करता है जो अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यकाल से तीन गुना से भी अधिक है। बोर्ड के अध्यक्ष या किसी सदस्य को अनैतिक आचरण के लिए तो हटाया जा सकता है, लेकिन ऐसे गलत निर्णयों के लिए नहीं, जो लाखों लोगों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। फेड के बोर्ड में क्षेत्रीय रिजर्व बैंकों के प्रतिनिधि होते हैं, और ये रिजर्व बैंक निजी बैंकों के स्वामित्व में हैं। वही संस्थाएं जिन्हें फेड को नियंत्रित करना होता है! शोधपत्र के लेखक यह सवाल उठाते हैं कि क्या ऐसी संरचना वास्तव में लोकतांत्रिक जवाबदेही के अनुरूप है?
तकनीकी विशेषज्ञों, जिनमें केंद्रीय बैंकर्स भी शामिल हैं, में न तो कोई महानता होती है, न कोई ऊंचाई, न कोई अलौकिकता और न ही कोई विशेष परिष्कृत गुण। केंद्रीय बैंकर्स की राजनीतिक निष्ठाएं होती हैं, और वे अक्सर मौद्रिक नीति को इस तरह लागू करते हैं जिससे किसी विशेष राजनीतिक दल को लाभ पहुंच सके। अमेरिका और यूरोप में यह आम बात है कि तकनीकी विशेषज्ञ ‘रिवॉल्विंग डोर’ सिंड्रोम के तहत केंद्रीय बैंक से सरकारी पदों पर जाते हैं और फिर वापस लौटते हैं। यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। केंद्रीय बैंकर्स आमतौर पर समृद्ध वर्ग से आते हैं, और उनके निर्णय अक्सर साधारण लोगों के हितों से कटे हुए होते हैं। राजनेता भले ही खराब हों, लेकिन जवाबदेही से मुक्त तकनीकी विशेषज्ञ उनसे भी अधिक नुकसानदेह साबित हो सकते हैं।
ऐसे में केंद्रीय बैंक की लोकतांत्रिक जवाबदेही कैसे तय हो सकेगी? फेड की बात करें तो काट्ज और मिरान कई सुधारों की बात कहते हैं। जिनमें से तीन को रेखांकित करना जरूरी है। पहला, फेड के बोर्ड सदस्यों के कार्यकाल को 14 साल से कम करके 8 साल किया जाए। दूसरा, राष्ट्रपति को यह अधिकार होना चाहिए कि वे फेड के बोर्ड सदस्यों को हटा सकें। तीसरा, फेड के सदस्यों पर पद छोड़ने के बाद चार साल तक कार्यकारी शाखा में काम करने पर प्रतिबंध लगना चाहिए।
क्या ये सुधार केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता के समापन की घोषणा हैं? कतई नहीं। भारतीय रिजर्व बैंक का उदाहरण लें तो उसके गवर्नर के पास तीन वर्ष का कार्यकाल होता है। उसे सरकार हटा सकती है। मौद्रिक नीति समिति में रिजर्व बैंक के तीन अधिकारी होते हैं और तीन सदस्य सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं। हालांकि, बराबरी की हालत में रिजर्व बैंक के गवर्नर के पास निर्णायक मत होता है।
आरबीआई सरकार के मशविरे के साथ काम करता है ताकि सरकार उसके निर्णयों में अपनी राय दे सके। फिर चाहे मामला मौद्रिक नीति का हो या नियमन का। इसके बावजूद रिजर्व बैंक की विश्वसनीयता है। भारत का केंद्रीय बैंक लोकतांत्रिक जवाबदेही के साथ स्वायत्तता रखता है।
काट्ज-मिरान के शोधपत्र को आधार मानें तो ट्रंप शायद एक ऐसा ढांचा बनाना चाहते हैं जो कुछ हद तक भारतीय रिजर्व बैंक जैसा होगा। यह कोई चिंता की बात नहीं है। शायद यही वजह है अमेरिका के वित्तीय बाजार ट्रंप के कदमों को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे।
फाइनैंशियल टाइम्स इससे निराश है और उसने लिखा, ‘कुछ विश्लेषकों को यह चिंता है कि निवेशक ट्रंप की तरफ से फेड की स्वतंत्रता पर लगातार आ रहे खतरे को पर्याप्त गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। अंततः, यह संभव है कि बाजार में और अधिक तीव्र उथल-पुथल ही वह कारक बने, जो ट्रंप को केंद्रीय बैंक और व्यापक अमेरिकी अर्थव्यवस्था को और अधिक नुकसान पहुंचाने से पीछे हटने के लिए मजबूर करे।’ (फाइनैंशियल टाइम्स 27 अगस्त) क्या ऐसा हो सकता है कि बाजार यह सोचते हों कि ट्रंप सही हैं? कि ब्याज दरों में कटौती से अर्थव्यवस्था को लाभ होगा और यदि वे फेड सुधार एजेंडा को आगे बढ़ाते हैं तो मुद्रास्फीति के नियंत्रण से बाहर हो जाने का डर शायद बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है?