हाल में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की सालाना बैठकों में इस बिंदु पर चर्चा केंद्रित रही कि दुनिया के देश किस तरह कोविड-19 महामारी से निपटने और इसके असर से बाहर निकल सकते हैं। चर्चा के दौरान नीतिगत एवं वित्तीय रणनीतिकारों में व्यापक पैमाने पर उधार लेने पर सहमति बनी। यह निष्कर्ष खास तौर पर पर्यवेक्षकों का ध्यान खींच रहा है। दुनिया के विकसित देशों में यह उधारी खुली एवं बिना किसी सीमा के हो सकती है। कुछ मायनों में विकसित देशों के नीति नियंता पहले ही उधार लेने का विकल्प अपनाने के लिए तैयार हो गए थे। उदाहरण के लिए अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व का ध्यान इस पहलू पर गया था कि कई वर्षों से अर्थव्यवस्था को समर्थन देने वाली नीतियों, बहीखाते में बेतहाशा वृद्धि और बेरोजगारी दर रिकॉर्ड निचले स्तर पर रहने के बावजूद अमेेरिकी अर्थव्यवस्था में महंगाई दर में इजाफा तेजी से नहीं हो पाया। अस्थायी रोजगार की व्यवस्था तैयार होने एवं विभिन्न प्रकार के संरचनात्मक बदलावों से कदाचित यह स्थिति पैदा हुई थी। अस्थायी रोजगार ने सशक्त श्रम बाजार, वेतन वृद्धि और सामान्य महंगाई के बीच संबंध विच्छेद कर दिया। यह स्पष्ट हो गया कि लघु अवधि की महंगाई समायोजित मौद्रिक नीति की एक काट के तौर पर अपना वजूद खो चुकी थी। चूंकि, यह धारणा महामारी से पहले ही पनप चुकी थी, इसलिए महामारी से निपटने के लिए विकसित देशों में एक टिकाऊ उधारी नीति के बजाय वित्तीय एवं मौद्रिक नीति में विस्तार पर अधिक जोर दिया गया। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए इसके क्या नतीजे होंगे यह अभी स्पष्ट नहीं है। यहां यह ध्यान में रखना महत्त्वपूर्ण है कि उधारी पर सहमति केवल विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए कारगर है, जहां केंद्रीय बैंक और मुद्रा में लोगों की एक अचूक विश्वसनीयता कायम है और ‘सुरक्षित’ परिसंपत्तियों के प्रति आकर्षण बरकरार है। तेजी से उभरते बाजारों की सरकारें और मौद्रिक संस्थान अब भी अलग नीतियों के साथ आगे बढ़ रहे हैं और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को विकसित देशों के अपने समकक्षों के मुकाबले अधिक सावधानी से आगे बढऩा चाहिए। कम से कम ऐसा इसलिए जरूरी है कि भारत और इसी की तरह तेजी से उभरते बाजार दुनिया के विकसित देशों की तुलना में शायद ही महंगाई से उतने सुरक्षित हैं। यह सत्य है कि इस वैश्विक महामारी के दौरान मांग कमजोर रहने और जिंसों की कीमतें निचले स्तर पर रहने से महंगाई सिर नहीं उठा पाई है। इसे ध्यान में रखते हुए तेजी से उभरते बाजारों के केंद्रीय बैंक को नीतिगत दरें कम करने का अवसर मिल गया था। हालांकि यह स्पष्ट है कि उनके पास बहुत विकल्प उपलब्ध नहीं हैं।
एक बात निश्चित है कि भारत सहित दुनिया के तेजी से उभरते बाजारों को एक ऐसे विश्व के लिए तैयार होना होगा, जिसमें खुली वित्तीय एवं मौद्रिक नीतियां विकसित देशों में आम समझी जाती हैं। इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं। कुछ मामलों में यह भारत जैसे बाजारों में प्रतिफल की चाह को बढ़ावा देगी जैसा 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद सुधार के दौरान दिखा था। परिसंपत्तियों की कीमतों में तेजी आएगी और इससे रियल एस्टेट, सोना एवं कुछ जिंस बाजारों में असामान्य बदलाव दिखेंगे। जो परिसंपत्तियां धनी देशों में सुरक्षित समझी जाती हैं, उनमें अधिक इजाफे का मतलब यह होगा कि तेजी से उभरते बाजारों में बुनियादी ढांचों में निवेश के लिए आवश्यक उच्च गुणवत्ता वाला एवं टिकाऊ निवेश जुटाना मुश्किल हो जाएगा। वैश्विक स्तर पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) प्रवाह कमजोर रह सकता है और एफडीआई पाने के लिए प्रतिस्पद्र्धा और बढ़ सकती है। इस माहौल में वे देश मजबूती के साथ आगे बढ़ सकते हैं, जो एक अनुशासित एवं स्थिर वित्तीय नीति, अनुबंध लागू कराने और संपत्ति अधिकार सुनिश्चित करने की क्षमता से लैस होंगे।
