परमाणु ऊर्जा विधेयक को कैबिनेट की मंजूरी देश के इस क्षेत्र के लिए एक अहम कदम है। यह विधेयक संसद के मौजूदा सत्र में पेश किया जाना है। जानकारी के मुताबिक यह पहली बार परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के परिचालन में निजी क्षेत्र की भागीदारी की शुरुआत के साथ जवाबदेही के विषय को हल करने से संबंधित है। विधेयक को सस्टेनेबल हार्नेसिंग ऑफ एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया अथवा शांति का नाम दिया गया है और यह परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1962 तथा परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व (सीएलएनडी) अधिनियम 2010 में संशोधन कर सकता है।
इसके माध्यम से नियामकीय कमियों को दूर किया जाएगा और सक्षम विधिक ढांचा तैयार किया जाएगा ताकि इस क्षेत्र में 49 फीसदी तक निजी, खासकर विदेशी निवेश लाया जा सके। रणनीति यह है कि परमाणु ऊर्जा का बड़े पैमाने पर विस्तार किया जा सके और कोयले पर बहुत अधिक निर्भर हमारे देश में कम कार्बन वाला विकल्प प्रस्तुत किया जा सके। फिलहाल जो नवीकरणीय ऊर्जा तकनीक हैं वे इसे टिकाऊ ढंग से हासिल करने में सक्षम नहीं हैं।
विशुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य के करीब पहुंचने के लिए भारत छोटे मॉडुलर रिएक्टर्स (एसएमआर) पर दांव लगा रहा है जो करीब 300 मेगावॉट तक बिजली तैयार करते हैं और जिन्हें पारंपरिक बड़े रिएक्टर की तुलना में लगाना आसान है, सस्ता है और इसे काफी तेज गति से किया जा सकता है। सरकार ने एसएमआर पर शोध और उनके विकास के लिए 20,000 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ परमाणु ऊर्जा मिशन की घोषणा की है।
इस मिशन के तहत वर्ष2033 तक कम से कम पांच एसएमआर का परिचालन शुरू करने का लक्ष्य तय किया गया है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की हालिया यात्रा के दौरान रूस के साथ व्यापक सहयोग इस रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि इस क्षेत्र में रूस की उल्लेखनीय विशेषज्ञता है। भारत की परमाणु महत्त्वाकांक्षाएं स्वाभाविक रूप से व्यापक हैं, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र के लिए एक जीवंत और सक्षम वातावरण बनाने पर निरंतर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक होगा।
इसके लिए धनराशि जुटाना भी एक चुनौती हो सकता है। देश का लक्ष्य स्थापित परमाणु ऊर्जा क्षमता को मौजूदा 8.8 गीगावॉट से बढ़ाकर वर्ष 2047 तक 100 गीगावॉट तक पहुंचाना है। ऊर्जा मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार इसके लिए 214 अरब डॉलर पूंजी की आवश्यकता होगी। इसके लिए किफायती दर पर पूंजी जुटाना आवश्यक है। वित्त मंत्रालय के अधीन आर्थिक मामलों के विभाग ने पहले परमाणु ऊर्जा को अपनी जलवायु वित्त वर्गीकरण (टैक्सोनॉमी) में शामिल करने का प्रस्ताव दिया था।
लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि घरेलू स्तर पर जुटाया गया धन सरकार द्वारा अपेक्षित पैमाने को हासिल करने के लिए पर्याप्त होगा या नहीं। वैश्विक स्तर पर परमाणु वित्त को लेकर काफी दुविधा है, जहां विभिन्न क्षेत्र और यहां तक कि उनके भीतर की संस्थाएं भी इसे ग्रीन टैक्सोनॉमी में शामिल करने के दृष्टिकोण में भिन्नता रखती हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका के कई बड़े वित्तीय कारोबारी परमाणु ऊर्जा को ग्रीन टैक्सोनॉमी से बाहर रखते हैं, जबकि यूरोपीय संघ और चीन इसे शर्तों के साथ अनुमति देते हैं, जैसे अपशिष्ट निपटान और सुरक्षा प्रोटोकॉल आदि।
परमाणु उत्तरदायित्व कानून में संशोधन भी महत्त्वपूर्ण होगा, जो परमाणु दुर्घटनाओं के पीड़ितों के लिए क्षतिपूर्ति की जिम्मेदारी आपूर्तिकर्ताओं के साथ-साथ संचालकों तक विस्तारित करता है। यही एक प्रावधान अमेरिका की वेस्टिंगहाउस और फ्रांस की ईडीएफ जैसी विदेशी रिएक्टरों की सबसे बड़ी कंपनियों द्वारा भारत के परमाणु कार्यक्रम में भागीदारी से परहेज का कारण बताया गया है। यह क्षेत्र बारीकी से देखेगा कि भारत इस मुद्दे को कैसे संबोधित करता है।
यद्यपि परमाणु ऊर्जा को सबसे सुरक्षित ऊर्जा स्रोतों में से एक माना जाता है, लेकिन इससे संबंधित हादसे-चाहे चेर्नोबिल हो या फुकुशिमा- पारंपरिक औद्योगिक दुर्घटनाओं की तुलना में कहीं अधिक विनाशकारी दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं। भारत में भोपाल की यूनियन कार्बाइड आपदा का लंबा प्रभाव जनस्मृति में गहराई से अंकित है। इसलिए जनमानस का प्रबंधन और व्यावहारिक क्षतिपूर्ति तंत्र लागू करना उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा जितना कि तकनीक और वित्त तक पहुंच बनाना।