जैसा कि इस समाचार पत्र में भी प्रकाशित हुआ था, वित्तीय मामलों की संसद की स्थायी समिति ने गत सप्ताह एक बैठक में ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवाला संहिता यानी आईबीसी के अधीन मामलों का समाधान तेज करने के लिए एक समर्पित राष्ट्रीय कंपनी विधि पंचाट (एनसीएलटी) और राष्ट्रीय कंपनी विधि अपील पंचाट (एनसीएलएटी) स्थापित करने की संभावना पर चर्चा की। अब जबकि उम्मीद है कि सरकार आगामी मॉनसून सत्र में इस संहिता में संशोधन प्रस्तुत करेगी, बेहतर होगा कि समिति अपने इस निर्णय को आगे ले जाए और उपयुक्त अनुशंसाएं करे। आईबीसी का क्रियान्वयन हाल के दशकों के सबसे महत्त्चपूर्ण सुधारों में से एक माना गया। भारत जैसी विशाल बाजार अर्थव्यवस्था के लिए यह महत्त्चपूर्ण है कि संहिता वांछित ढंग से काम करे और कंपनियों को बाहर निकलने का समयबद्ध और सहज रास्ता प्रदान करे। हालांकि, ऐसा नहीं हुआ। मोटे तौर पर यह इसलिए हुआ क्योंकि समाधान प्रक्रिया में देरी हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने भूषण पावर और स्टील मामले में दिए गए अपने निर्णय में समाधान योजना को पलट दिया जिससे जटिलता और बढ़ गई है और इसका भी रास्ता निकालना होगा।
एनसीएलटी की स्थापना कंपनी विधि के प्रशासन के लिए की गई थी और अब इसके पास आईबीसी के मामलों पर फैसला करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी है। लेकिन उसकी क्षमता में कोई खास इजाफा नहीं किया गया है। ऐसे में आईबीसी के मामलों में देरी से किसी को चकित नहीं होना चाहिए। हालांकि अब यानी आठ वर्ष के अनुभव के बाद सरकार को कमियों को दूर करना चाहिए। देरी को हल करने का एक तरीका तो यह है कि स्थायी समिति की चर्चा के मुताबिक एक समर्पित एनसीएलटी तथा एक अपील पंचाट की स्थापना की जाए। दूसरा और कहीं अधिक सीधा तरीका है कि
एनसीएलटी और एनसीएएलटी की क्षमता में तत्काल इजाफा किया जाए। सरकार को प्रक्रिया में देरी की अन्य वजहों पर भी ध्यान देना चाहिए। आईबीसी का इरादा ऋण शोधन को जल्द से जल्द हल करने का है और इसके लिए अधिकतम 330 दिन की अवधि तय की गई है। यद्यपि भारतीय दिवाला एवं ऋण शोधन अक्षमता बोर्ड के नवीनतम तिमाही न्यूजलेटर से पता चलता है कि मार्च 2025 तक समाधान प्रस्तुत करने वाली 1,194 कॉरपोरेट ऋणशोधन प्रक्रियाओं में औसतन 597 दिन लगे। इसके अलावा परिसमापन यानी नकदीकृत होने वाली 2,758 ऐसी प्रक्रियाओं में औसतन 508 दिन लगे।
देरी को कम करने की आवश्यकता है लेकिन यह भी सही है कि आईबीसी ने देश की बैंकिंग व्यवस्था और ऋण संस्कृति पर सकारात्मक असर डाला है। मार्च 2025 तक कुल 8,308 मामले स्वीकृत हुए और 6,382 बंद हुए। लगभग जिन 1,200 मामलों में समाधान योजना पेश की गई उनमें कर्जदाताओं ने करीब 33 फीसदी स्वीकृत दावों की रिकवरी कर ली। यह मोटे तौर पर नकदीकृत मूल्य के 170 प्रतिशत के बराबर थी। ऋण संस्कृति पर प्रभाव की बात करें तो एनसीएलटी के आंकड़े दिखाते हैं कि दिसंबर 2024 के पहले 30,000 से अधिक मामले निपटाए जा चुके थे। इसके अलावा आईआईएम बेंगलूरु का एक अध्ययन दिखाता है कि आईबीसी ने कर्जदारों को ऋण के शिड्यूल पर टिके रहने का अभ्यस्त बनाया है। ऐसे में उन खातों की संख्या में कमी आई है जिनका भुगतान लंबित हो। ऋण संस्कृति में सुधार भी आईबीसी के लक्ष्यों में से एक था। प्रवर्तकों के सामने अब सही मायनों में कंपनियों का नियंत्रण गंवाने की आशंका है।
ऐसे में नतीजों को बेहतर बनाने के लिए ऋणशोधन के मामलों को समयबद्ध तरीके से स्वीकार किया जाना और हल किया जाना चाहिए। सरकार कारोबारी सुगमता बढ़ाने पर काम कर रही है और कंपनियों के लिए सहज तरीके से बाहर निकलना भी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। ऐसे में इस क्षेत्र में कमजोरी को तत्काल दूर किया जाना चाहिए। इसके अलावा कानून में संशोधन करके प्रक्रिया को और अधिक सुनिश्चित बनाने की जरूरत है। अगर समाधान योजना को वर्षों बाद पलट दिया जाएगा तो इससे ऋणशोधन की प्रक्रिया की विश्वसनीयता प्रभावित होगी और संहिता की बुनियाद पर सवाल खड़े होंगे। इसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता है।