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Editorial: सुप्रीम कोर्ट की सही सीख, विभाजनकारी राजनीति से देश की विविधता को हथियार बना रहीं राजनीतिक पार्टियां

हालिया लोक सभा चुनाव में जब निर्वाचन आयोग को प्रमुख राजनेताओं के विभाजनकारी भाषण देने की शिकायतें मिलीं तो उसने उन नेताओं के बजाय उनके पार्टी प्रमुखों को नोटिस भेजा।

Last Updated- October 04, 2024 | 9:46 PM IST
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वर्ष 2024 के लोक सभा चुनावों के दौरान राजनीतिक बढ़त हासिल करने की हताश कोशिश में दोनों प्रमुख राजनीतिक ताकतों सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और विपक्षी कांग्रेसनीत ‘इंडिया’ गठबंधन ने विभाजनकारी राजनीतिक भाषणों के जरिये देश की विविधता को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।

सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय ने उस समय इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया जब उसने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू को फटकार लगाई। यह फटकार नायडू के इस आरोप के लिए लगाई गई कि प्रदेश की पिछली वाईएसआर कांग्रेस पार्टी की सरकार के कार्यकाल में तिरुपति के लड्‌डुओं में पशुओं की चर्बी का इस्तेमाल किया गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नायडू को ‘ईश्वर को राजनीति से दूर रखना चाहिए’, खासकर ऐसे समय में जब मामले की जांच चल रही है और परीक्षण की जो रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं वे प्रथम दृष्टया ऐसा संकेत नहीं देती हैं कि लड्‌डुओं में पशुओं की चर्बी है। परंतु लाखों हिंदुओं की गहरी धार्मिक आस्थाओं से जुड़े एक मुद्दे पर देश की सबसे बड़ी अदालत का पर्यवेक्षण जल्दी शांत नहीं होगा।

इस विवाद ने विश्व हिंदू परिषद की उस पुरानी मांग के लिए आग में घी का काम किया है जिसके तहत वह चाहती है कि मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। अब उसने इसके लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ने की बात कही है। संयोग से यह विवाद उस समय सामने आया है जब हरियाणा तथा जम्मू-कश्मीर में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं और महाराष्ट्र और झारखंड में जल्द चुनाव होने हैं।

राजनेताओं के लिए सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना और नफरती भाषणों तथा धार्मिक और जातिवादी बातें करना एकदम आम हो चुका है। भारतीय निर्वाचन आयोग की आदर्श आचार संहिता के पहले बिंदु में कहा गया है, ‘किसी राजनीतिक दल या प्रत्याशी को ऐसी किसी गतिविधि में शामिल नहीं होना चाहिए कि जो विभिन्न जातियों, समुदायों, धार्मिक या भाषाई समूहों के बीच तनाव पैदा करे, आपसी नफरत को बढ़ावा दे या पहले से मौजूद तनावों को और बढ़ाए।’ इस बिंदु में यह भी कहा गया है, ‘वोट हासिल करने के लिए जातियों या संप्रदायों से किसी तरह की अपील नहीं की जानी चाहिए और मस्जिद, चर्च, मंदिर या अन्य उपासना स्थलों को चुनावी प्रचार का केंद्र नहीं बनाया जाना चाहिए।’

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए), 1951 की धारा 123 (3) में कहा गया है कि धर्म, जाति, नस्ल, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट मांगना भ्रष्ट चुनावी आचरण में आता है। आरपीए की धारा 8 (ए) के अनुसार अगर कोई व्यक्ति चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया जाता है तो उसे छह साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जा सकता है या छह साल के लिए मतदान करने से भी रोका जा सकता है।

जैसा कि 2024 के लोक सभा चुनाव प्रचार अभियान से सामने आया, लगभग सभी राजनीतिक विचारधाराओं के कई प्रमुख राजनेताओं ने आदर्श आचार संहिता और जनप्रतिनिधित्व कानून के सिद्धांतों का भरपूर उल्लंघन किया। बीते तमाम वर्षों के दौरान न्यायपालिका और निर्वाचन आयोग ने ऐसी राजनीति पर अंकुश लगाने की कोशिश अवश्य की लेकिन उन्हें नाकामी हाथ लगी।

सन 1980 के दशक में एक अहम घटना हुई थी जब निर्वाचन आयोग ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए शिव सेना के संस्थापक बाल ठाकरे को नफरती भाषण फैलाने के कारण छह वर्षों तक मतदान करने से रोक दिया था। हालिया लोक सभा चुनाव में जब निर्वाचन आयोग को प्रमुख राजनेताओं के विभाजनकारी भाषण देने की शिकायतें मिलीं तो उसने उन नेताओं के बजाय उनके पार्टी प्रमुखों को नोटिस भेजा।

उसका कहना था कि यह प्रमुख तौर पर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे अपने प्रत्याशियों के आचरण की जिम्मेदारी लें, खासतौर पर अपने स्टार प्रचारकों की हरकतों की। निर्वाचन आयोग को इसके लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन यह प्रकरण इस बात को भी रेखांकित करता है कि देश के बहुलतावादी लोकतंत्र को और अधिक दूषित होने से बचाने की जिम्मेदारी प्रमुख तौर पर न्यायिक या अर्द्ध न्यायिक प्राधिकारों की नहीं बल्कि उसके शीर्ष राजनेताओं की है।

First Published - October 4, 2024 | 9:46 PM IST

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