अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा 2 अप्रैल को ‘लिबरेशन डे’ के अवसर पर घोषित नए टैरिफ ढांचे को लेकर दुनिया भर में प्रतिक्रियाएं नजर आने लगी हैं। इन प्रतिक्रियाओं में बहुत अधिक विविधता है। बाजारों के लिए एक बड़े नकारात्मक संकेत में चीन ने कड़ा रुख अपनाया है और अमेरिकी आयात पर 34 फीसदी शुल्क लगा दिया है जो ट्रंप द्वारा चीन के निर्यात पर लगाए गए अतिरिक्त शुल्क के बराबर है। यह बिल्कुल जैसे को तैसा वाला जवाब था। यह अमेरिकी प्रशासन के विभिन्न देशों को लेकर तय किए गए खास फॉर्मूले की तरह नहीं था। चीन शायद कड़ा रुख अपनाने का जोखिम उठा सकता है क्योंकि वह पहले की तरह अमेरिका को सीधे निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर नहीं है।
अब उसके उत्पादक ऐसी आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े हैं जो कई देशों में फैली हुई है। इनमें वे देश शामिल हैं जो अलग-अलग शुल्क दर से प्रभावित हैं। उनमें से कुछ ने सौदेबाजी की हताश आकांक्षा जताई है: कंबोडिया वस्त्र निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर है और उस पर 49 फीसदी शुल्क लगाया गया है। अमेरिकी कदमों के बाद उसने स्वेच्छा से आयात टैरिफ को घटाकर 5 फीसदी कर दिया है। वियतनाम ने अमेरिका को अपने बाजारों में शुल्क मुक्त पहुंच की पेशकश की है। अभी यह तय नहीं है कि ट्रंप इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देंगे या नहीं। हालांकि कई अमेरिकी कंपनियां उसकी फैक्टरियों पर निर्भर हैं। शूमेकर, नाइकी आदि ऐसी ही कंपनियां हैं और वे उम्मीद करेंगी कि ट्रंप सकारात्मक प्रतिक्रिया दें।
बाजार ने चीन के मजबूत और तत्काल प्रतिरोध को लेकर गहरी चिंता प्रदर्शित की है क्योंकि ऐसे विवाद व्यापारिक कदमों पर क्या असर डालते हैं, यह सबको पता है। अर्थशास्त्री चार्ल्स किंडलबर्गर ने एक सुप्रसिद्ध ग्राफ बनाया है जिसे ‘किंडलबर्गर स्पाइरल’ कहा जाता है। यह ग्राफ बताता है कि 1929 में शेयर बाजार के पतन और उसके चलते उठाए गए संरक्षणवादी उपायों के बाद के सालों में माह दर माह वैश्विक व्यापार में किस तरह गिरावट आई। विश्व व्यापार का करीब दो तिहाई हिस्सा समाप्त हो जाने के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने घोषणा की थी कि अमेरिका हर उस कारोबारी साझेदार पर टैरिफ कम करेगा जो वापस ऐसा करने का इच्छुक हो।
अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि विश्व व्यापार में उतनी ही गिरावट आएगी या नहीं लेकिन इसमें तेज गिरावट का खतरा तो है ही। इससे जुड़ी अनिश्चितता को भी नकारा नहीं जा सकता है। काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अन्य बड़ी कारोबारी शक्तियां मसलन यूरोपीय संघ आदि कैसी प्रतिक्रिया देती हैं। अगर वे अपनी प्रतिक्रिया को जवाबी शुल्क या वस्तु व्यापार तक सीमित न रखकर सेवा क्षेत्र में भी प्रतिक्रिया देती हैं तो अतिरिक्त तनाव उत्पन्न हो सकता है। अमेरिका को यूरोपीय संघ के साथ सेवा व्यापार में 100 अरब यूरो का अधिशेष हासिल है।
भारत इस समय मुश्किल दौर में है। कुछ लोग इस बात से राहत महसूस कर रहे हैं कि निर्यात में हमारा प्रदर्शन कमजोर होने के कारण हमें वियतनाम आदि की तुलना में कम टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है लेकिन इससे मौजूदा निर्यातकों को मदद नहीं मिलेगी। उनकी अतिरिक्त लागत का प्रबंधन कैसे होगा, उपभोक्ता उसका कितना हिस्सा चुकाएंगे यह सब बातचीत से तय होगा।
सवाल यह है कि क्या देश की वित्तीय व्यवस्था बदलाव की अवधि के लिए कार्यशील पूंजी मुहैया कराने में सक्षम है। सरकार को भी वृहद स्तर पर ध्यान देना होगा कि अमेरिकी प्रशासन क्या रुख अपनाता है और उसकी क्या अपेक्षाएं हैं? निश्चित रूप से भारत को आयात पर अनावश्यक नियामकीय प्रतिबंध समाप्त करने चाहिए। गुणवत्ता नियंत्रण आदेश और अन्य गैर टैरिफ गतिरोध इसकी बानगी हैं। द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर जोर देना बेहतर रहेगा। सरकार को यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के साथ मुक्त व्यापार समझौते की दिशा में भी प्रयास तेज करने चाहिए।
