देश के वाहन उद्योग के लिए एक अहम नई नीतिगत दिशा तय करते हुए सरकार ने यह घोषणा की है कि अगर इलेक्ट्रिक व्हीकल (ईवी) निर्माता भारत में अपने विनिर्माण को लेकर सरकार के समक्ष कुछ प्रतिबद्धता जताते हैं तो उन्हें आयात कर में राहत प्रदान की जा सकती है। खासतौर पर भारत में उन इलेक्ट्रिक कारों के लिए शुल्क दर को 100 फीसदी से कम करके 15 फीसदी कर दिया गया है जिनकी बीमा और मालवहन सहित कीमतें 35,000 डॉलर या उससे अधिक हैं।
ऐसी ही कमी सस्ते वाहनों की कीमतों में भी की गई है और उन पर शुल्क दर 70 फीसदी कर दी गई है। इसके बदले में कंपनियों को वादा करना है कि वे भारत में एक विनिर्माण संयंत्र की स्थापना करेंगी और साथ ही तीन साल के भीतर करीब 4,150 करोड़ रुपये का निवेश करेंगी। इसके अलावा कलपुर्जों को स्थानीय स्तर पर खरीदना जरूरी है और परिचालन के पांचवें वर्ष तक कम से कम 50 फीसदी घरेलू मूल्यवर्द्धन करना होगा।
सरकार को अगर 2030 तक कुल बिकने वाली कारों में ईवी की हिस्सेदारी 30 फीसदी करनी है तो उसे मदद की आवश्यकता है। टेस्ला समेत कई ईवी निर्माता कंपनियों को इन नियमों से फायदा मिल सकता है। यह भी संभव है कि चीन की कंपनी बीवाईडी जो ईवी बाजार में दबदबा रखती है वह भी भारतीय बाजार में प्रवेश करे, हालांकि भारत के साथ भौगोलिक सीमा साझा करने वाले देशों की कंपनियों को निवेश के लिए अतिरिक्त सरकारी मंजूरी की आवश्यकता है।
इस संदर्भ में ध्यान दिया जा सकता है कि टेस्ला का ‘गीगाफैक्ट्री’ दृष्टिकोण ऐसे एकल सौदे के लिए अन्य कंपनियों की तुलना में अधिक मुफीद है। इसके तहत टेस्ला की कारों के लिए जरूरी कलपुर्जों में से ज्यादातर एक ही फैक्टरी में तैयार किए जाते हैं।
बहरहाल देश के भीतर ईवी को लेकर पारिस्थितिकी तैयार करने के लिए केवल एक विनिर्माता से काम नहीं चलेगा बल्कि सहायक कंपनियों का पूरा समूह तैयार करना होगा जिनमें से प्रत्येक की अपनी सप्लाई श्रृंखला हो। इसके लिए अंतिम उत्पाद पर शुल्क दर कम करने के बजाय मध्यवर्ती वस्तुओं और कच्चे माल पर भी शुल्क कम करना होगा ताकि वैश्विक मूल्य श्रृंखला तैयार की जा सके।
कुछ और सवाल भी हैं जो उस वायदा पत्र के बारे में किए जा सकते हैं जो निवेशक सरकार को रियायतों के बदले देंगे। शुल्क दर में कमी का लाभ पाने वाली कंपनी किस हद तक सहयोग कर रही है इसका ध्यान रख पाना काफी मुश्किल होगा।
रियायत पा चुकी कंपनियां लगातार यह मांग करेंगी कि निवेश और स्थानीयकरण की जरूरतों में विलंब किया जाए। यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार उन कंपनियों से कैसे निपटेगी जो निवेश लक्ष्य पूरा करने में नाकाम रहेंगी?
अगर वादे के अनुसार निवेश नहीं किया गया या नई फैक्टरी पांच सालों में पर्याप्त स्थानीय नहीं हो सकी तो क्या शुल्क दर में कमी वापस ले ली जाएगी? इसे कंपनियों से वसूला जाएगा या उपभोक्ताओं से? अगर ऐसा ही रुख अन्य क्षेत्रों में भी अपनाया गया तो कारोबारी नीतियां अत्यधिक जटिल हो जाएंगी।
कारोबारी नीति को कुल मिलाकर कम और स्थिर शुल्क दर की आवश्यकता है। खासतौर पर उन क्षेत्रों में जो वैश्विक मूल्य श्रृंखला में प्रवेश के लिए प्रासंगिक हैं। ऐसी रियायतों पर आधारित व्यवस्था की निगरानी करना हमेशा कठिन होता है और उनमें निरंतरता का अभाव होता है।
निश्चित तौर पर भारत को कई क्षेत्रों में बड़े निवेश की आवश्यकता है और कई बार यह बात नीति निर्माताओं को नवाचारी उपाय अपनाने को बाध्य करती है। बहरहाल, जैसा कि हमने देखा है साधारण और स्थिर नीतियां कारोबारियों और निवेश को अधिक आकर्षित करती हैं।