भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) इक्विटी म्युचुअल फंड योजनाओं का व्यापक स्ट्रेस टेस्ट ( फंडों का यह आकलन कि क्या वे शेयरों की बिक्री की स्थिति में भुगतान की स्थिति में हैं) करने तथा खतरनाक हालात से निपटने के उपाय अपनाने की दिशा में काम कर रहा है।
बाजार नियामक की यह अपेक्षाकृत नई पहल है लेकिन यह पहले दौर के स्ट्रेस टेस्ट के बाद होगी जिसके बारे में कहा जा रहा है कि उसके परिणाम असंतोषजनक रहे।
अधिक व्यापक स्ट्रेस टेस्ट शुरू करने के इस नीतिगत कदम के उचित तर्क हैं। इक्विटी फंडों में पूंजी की आवक जारी है और अधिकांश राशि खुदरा निवेशकों से आती है। निश्चित तौर पर प्रबंधन अधीन इक्विटी परिसंपत्तियों में से अधिकांश खुदरा फोलियो में है।
इतना ही नहीं निरंतर फंड की आवक फंड प्रबंधकों को विवश करती है कि वे अपने तय दायरे में और शेयरों की खरीद करें, भले ही शेयरों की निरंतर ऊंची कीमत होने के कारण बाजार तेज हो।
यदि बाजार में गिरावट आती है तो लोग अपनी राशि निकालना शुरू कर देंगे। ऐसे में हो सकता है कि फंड लोगों को राशि चुकाने में दबाव महसूस करें क्योंकि उनको जल्दी पैसा लौटाना होगा। अगर फंडों को यह मांग पूरी करने के लिए बाजार में गिरावट के दौरान बिकवाली करनी पड़ी तो बिकवाली का यह दबाव आगे अधिक नुकसान की वजह बन सकता है।
यदि ऐसा हुआ तो गिरावट का एक सिलसिला शुरू हो जाएगा और अफरातफरी की स्थिति बन सकती है। अगर ऐसा हुआ तो यह उन योजनाओं के इकाई धारकों के लिए नुकसानदेह साबित होगा जो स्मॉलकैप और मिडकैप शेयरों पर नजर रखते हैं क्योंकि इन शेयरों का नकदीकरण कम होता है।
ऐसे में संस्थागत बिक्री का एक बड़ा हिस्सा कीमतों नीचे की ओर दबाव बना सकता है। वायदा और विकल्प श्रेणी के बाहर छोटे शेयरों में सर्किट ब्रेक भी होता है जो कारोबार को ठप कर सकता है। यदि कारोबार करना असंभव हो गया पैसे की निकासी और मुश्किल हो जाएगी।
कई परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनियों ने सक्रिय होकर पहले ही ऐसे परिदृश्य से बचने के उपाय अपनाने शुरू कर दिए हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने स्मॉलकैप और मिडकैप फंड में मोटा-मोटी निवेश लेना बंद कर दिया है। सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान की प्रतिबद्धताओं का प्रबंधन करना हर दृष्टि से आसान है।
परंतु नियामक का अधिक व्यापक स्ट्रेस टेस्ट कराना सही है जिससे यह पता चल सके कि किन योजनाओं में अधिक जोखिम हैं और उन बिंदुओं को चिह्नित किया जा सके जहां दबाव की स्थिति बन सकती है। उदाहरण के लिए इसमें फंड का विवेकपूर्ण इस्तेमाल शामिल किया जा सकता है ताकि इन स्थितियों में जबरन बिक्री से बचा जा सके।
जरूरत पड़ने पर सेबी अन्य उपायों पर भी विचार कर सकता है, मसलन फंड से धन निकालने की अवधि को बढ़ाना या अल्पावधि के फंड जुटाने की इजाजत देना ताकि लोगों द्वारा अचानक निकासी पर कमी न होने पाए। एक अन्य प्रश्न उत्पन्न होता है और वह है पारदर्शिता का। इसकी अपनी कमियां और खूबियां हैं। स्ट्रेस टेस्ट के मानक, प्रारूप और धारणाएं जटिल और अपारदर्शी हो सकते हैं।
अगर फंड खतरे में नजर आते हैं तो क्या नियामक को स्ट्रेस टेस्ट के नतीजे प्रकाशित करने चाहिए? यदि ऐसा हुआ तो समझदार निवेशक अपना पैसा व्यवस्थित तरीके से निकाल सकेंगे लेकिन इससे हड़बड़ाहट उत्पन्न हो सकती है।
परंतु अगर नतीजों को सार्वजनिक नहीं किया गया तो निवेशकों को कोई मदद नहीं मिलेगी और उद्देश्य निष्फल हो जाएगा। नियामकों को इस संदर्भ में निर्णय लेना होगा।
शेयर बाजार की प्रकृति चक्रीय है। बाजार में हर तेजी के बाद गिरावट आती है और यह गिरावट बहुत तीव्र भी हो सकती है। म्युचुअल फंड अहम संस्थागत क्षेत्र है और चूंकि वे सीधे खुदरा निवेशकों के प्रति जवाबदेह हैं इसलिए रुझान बदलने पर बहुत जल्दी दबाव की स्थिति निर्मित हो सकती है। ऐसे हालात की पहले से तैयारी रखना बेहतर होगा।