पश्चिम बंगाल (west bengal violence) की राजनीति में हिंसा दशकों से स्थायी पहचान का रूप ले चुकी है। इस राज्य के सभी प्रमुख राजनीतिक दल चुनावों के पहले बढ़त हासिल करने की कोशिश करते हैं। जब तक राज्य में एक दल का दबदबा था, तब तक हिंसा को राजनीतिक परिदृश्य का अपरिहार्य हासिल माना जाता था।
मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कई बार वाम मोर्चे की हिंसा का सामना करना पड़ा। उन्होंने इसका जमकर राजनीतिक फायदा भी उठाया। जब 2011 में तृणमूल कांग्रेस ने 34 वर्ष से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चे को बेदखल किया तब स्थानीय गुंडों ने पार्टी बदल ली। जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) प्रदेश का सबसे बड़ा विपक्षी दल बन गई तो यह एक बार फिर हुआ।
भाजपा अपने साथ सांप्रदायिकता का पहलू भी लेकर आई जिसे वाम मोर्चे ने लंबे समय तक दूर रखा था। लगभग उसी समय ताकतवर लोगों को अपने साथ जोड़ने का सिलसिला राज्य से बाहर तक फैल गया।
विवादों का स्वरूप चाहे जैसा हो लेकिन सभी राजनीतिक दलों द्वारा पार्टी प्रायोजित हिंसा को राजनीतिक रणनीति के रूप में स्वीकार कर लिए जाने की राज्य को महंगी कीमत चुकानी पड़ सकती है क्योंकि अब इसकी एक दल के दबदबे वाली व्यवस्था को भाजपा से आक्रामक चुनौती मिल रही है।
वैध आलोचना को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने के बजाय बनर्जी और उनके सलाहकारों ने अनदेखी करने और नकारने की रणनीति अपनाई। पंचायत चुनावों में 16 लोगों की मौत के साथ ऐसा लग रहा है कि यह रणनीति उनकी ही पार्टी पर उलटी पड़ गई है। पहली बात, ममता बनर्जी को कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश के बाद पंचायत चुनाव में केंद्रीय बलों की मौजूदगी स्वीकार करनी पड़ी। इस आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था।
सबसे अधिक नुकसान सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को
उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल राज्य निर्वाचन आयोग को आदेश दिया कि वह केंद्रीय बलों की कम से कम 825 टुकड़ियां मंगाए। वर्ष 2013 के राज्य पंचायत चुनाव में भी इतने ही सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे। दूसरा, हालांकि चुनाव लड़ रहे सभी दलों को हिंसा का सामना करना पड़ा लेकिन सबसे अधिक नुकसान सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को हुआ। उसके नौ पार्टी कार्यकर्ता मारे गए जबकि कांग्रेस के तीन और भाजपा एवं वाम दलों के दो-दो कार्यकर्ताओं की जान गई।
विडंबना यह है कि सभी दल एकजुट होकर पंचायत चुनावों की नाकामी के लिए राज्य निर्वाचन आयोग पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने केंद्रीय बलों को समय पर और प्रभावी तरीके से तैनात नहीं किया ताकि हिंसा को रोका जा सकता। जानकारी के मुताबिक 8 जुलाई को मतदान समाप्त होने तक भी मांगी गई तादाद में सैन्य बल राज्य में नहीं पहुंचे थे।
केंद्रीय बलों के कमांडरों ने तैनाती की दिक्कतों के लिए पश्चिम बंगाल राज्य निर्वाचन आयोग को जिम्मेदार ठहराया। वहीं निर्वाचन आयोग के अधिकारी जिला प्रशासन को दोषी ठहराते हुए कहते हैं कि केंद्रीय बलों ने हिंसा को रोकने की कोशिश में बहुत धीमी प्रतिक्रिया दी।
हकीकत यह है कि बनर्जी और उनकी पार्टी इस प्रकरण में कमजोर पड़ गए हैं। मौजूदा राज्यपाल की नियुक्ति बीते नवंबर में हुई थी और इतने कम समय में ही उनके साथ बनर्जी के रिश्ते बिगड़ गए हैं। अब उन्हें राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की मांग का सामना करना पड़ रहा है।
सन 1940 के दशक के बाद पहली बार सांप्रदायिक हिंसा का सामना कर रहे राज्य के लिए यह उचित नहीं होगा। जब ऐसी ताकतों को राजनीतिक प्रश्रय मिल जाता है तो उसके परिणाम गंभीर होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पार्टी प्रायोजित चुनावी हिंसा की संस्कृति बहुसंस्कृति वाले पश्चिम बंगाल के लिए मुश्किल नतीजे वाली साबित हो रही है।