शहरी माहौल के जटिल सवालों के बीच एक अकाट्य सत्य मौजूद है- शहरी अनौपचारिक क्षेत्र लंबे समय से शहरों की गरीबी से स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है। लिहाजा, अगर हम वाकई शहरी गरीबी खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध हैं तो हमें अपने शहरों के अक्सर नजरअंदाज किए गए चेहरों को समझने के लिए गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस (जुलाई 2022 से जून 2023 तक) की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार इस दौरान श्रम बल की भागीदारी दर 42.4 प्रतिशत पर अनुमानित थी।
15 वर्ष और उससे अधिक के लोगों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी गणना 60.8 प्रतिशत तो शहरी इलाकों में 50.4 फीसदी की गई। श्रमबल की और गहराई से विवेचना करें तो कामगार जनसंख्या अनुपात या डब्ल्यूपीआर ( प्रति1,000 लोगों पर रोजगार के आंकड़े के रूप में परिभाषित) हमें देश के रोजगार हालात के बारे में एक संकेत देता है।
इस अवधि के दौरान भारत में 15 वर्ष और अधिक के लोगों के लिए डब्ल्यूपीआर 56 प्रतिशत था। ग्रामीण क्षेत्रों में यह 59.4 फीसदी और शहरी इलाकों में 47.7 प्रतिशत दर्ज किया गया। इस अवधि के दौरान बेरोजगारी दर पूरे देश के लिए जहां 3.2 प्रतिशत रही, वहीं शहरी क्षेत्र के लिए यह 5.4 प्रतिशत थी।
ये आंकड़े हमें श्रम बाजार की एक झलक देते हैं, खास तौर पर शहरी संदर्भ में। पीएलएफएस से हमें शहरी श्रमबल में स्वरोजगार, आकस्मिक और नियमित वेतनभोगी श्रमिकों के प्रतिशत हिस्से के आंकड़ों के रूप में मदद मिलती है। यह संकेतक हमें श्रम बाजार के भीतर किस सीमा तक अनौपचारिकता है, इसकी जानकारी भी मुहैया कराता है (स्वरोजगार में लगे कामगारों के प्रतिशत हिस्से के रूप में)।
इस हिसाब से स्वरोजगार में लगे श्रमबल का प्रतिशत हिस्सा 39.6 फीसदी होने का अनुमान था। स्वरोजगार की श्रेणी में दोनों तरह के लोग शामिल हैं, वे जो खुद का काम करते हैं या किसी के साथ काम करते हैं (स्ट्रीट वेंडर समेत) और वे जो घर के काम में मदद करते हैं।
शहरी गरीबी और अनौपचारिकता एक दूसरे से जुड़े ऐसे कारक हैं जहां श्रम अनौपचारिक रूप से श्रमबल को भीषण गरीबी में धकेलता है। गरीबी और असमानता बने रहने का यही एकमात्र कारण नहीं है लेकिन इसका महत्त्वपूर्ण योगदान जरूर है।
अनौपचारिक शब्द का उपयोग रोजगार की विभिन्न स्थितियों को परिभाषित करने के लिए किया जाता है जिसमें घर पर किए गए काम से लेकर प्रतिकूल कार्य स्थितियां समेत हर चीज शामिल है।
लाभ न मिलना और लघु उद्योगों से जुड़ा होना, ये सब असुरक्षा के स्तर के बारे में बताते हैं। अनौपचारिकता में वे आर्थिक गतिविधियां भी शामिल की जा सकती हैं जो आधिकारिक तौर पर पंजीकृत नहीं हैं या जिनकी सूचना नहीं मिलती।
शहरी अनौपचारिक क्षेत्र महज एक चलताऊ विचार नहीं है, इसमें बदलाव लाने की क्षमता है। रोजगार सृजन में इसके महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की संभावना है, खासतौर पर उनके लिए जो गरीबी की कड़वी सचाइयों से रू-ब-रू हैं।
रोजगार उपलब्ध कराने और आय सृजन की इसकी क्षमता के जरिये यह क्षेत्र पहले से ही गरीबी की भयावहता और दायरा घटाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहा है। लेकिन यह काम अभी खत्म नहीं हुआ है। हमें अनौपचारिक क्षेत्र को और सक्षम बनाने के लिए अपने प्रयासों को तेज करना होगा ताकि इनका ज्यादा असर हो।
अनौपचारिक काम में लगे लोगों का आय स्तर बढ़ाने और रोजगार सृजन में इसकी क्षमता को मजबूत किया जाना चाहिए। शहरी गरीबी उन्मूलन रणनीति में यही सबसे प्रमुख होना चाहिए। इस रणनीति के तहत हम महज एक ही मसले से नहीं निपट रहे हैं बल्कि ज्यादा समान और समृद्ध शहरी भविष्य की नई राह बना रहे हैं।
हमको शहरी अनौपचारिक क्षेत्र की बदलाव की संभावना को महत्त्व देना चाहिए और सकारात्मक बदलाव के लिए इसकी क्षमता का दोहन करना चाहिए।
इसके साथ-साथ सरकार ने श्रम बाजार के औपचारीकरण के लिए कई प्रयास किए हैं। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना (पीएमआरपीवाई) के तहत श्रमिक रोजगार बढ़ाने के लिए उन नियोक्ताओं और संस्थानों को प्रोत्साहन दिया गया है जो कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) में पंजीकृत हैं।
2016 से 2019 के बीच कुल 1,24,000 संस्थानों को फायदा हुआ और करीब एक करोड़ लाभार्थियों को योजना के तहत ईपीएफओ में शामिल किया गया। इसके साथ ही ई-श्रम पोर्टल के जरिये असंगठित
कामगारों का एक राष्ट्रीय डेटाबेस भी बनाया गया है जिससे कि उन तक सामाजिक सुरक्षा लाभ पहुंच सके और उनकी रोजगार क्षमता का आकलन किया जा सके। डेटाबेस में प्रवासी कामगार, निर्माण मजदूर और गिग तथा प्लेटफॉर्म वर्कर शामिल हैं।
भारत का सामाजिक सुरक्षा ढांचा भी एक नाजुक मोड़ पर है। अब यह पुराने कार्यक्रमों के ढेर से अधिक एकीकृत और एकजुट व्यवस्था के रुप में विकसित होने के लिए तैयार है। आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा शुरू की गई पीएम स्ट्रीट वेंडर्स आत्मनिर्भर निधि (पीएम स्वनिधि) इस सिलसिले में बदलाव की बड़ी वाहक बन रही है।
इसका मुख्य उद्देश्य स्ट्रीट वेंडर्स को कर्जदाता संस्थाओं के जरिये खास तरह के लघु ऋण उपलब्ध कराना है जिससे कि उनकी जीविका फिर से पटरी पर लौटे। लेकिन यह पहल ऋण कार्यक्रम से कहीं ज्यादा है। इसका मकसद स्ट्रीट वेंडरों और उनके परिवारों तक पहुंचना और व्यापक विकास तथा सामाजिक आर्थिक उत्थान की राह का निर्माण करना है।
जब हम पीएम स्वनिधि की संभावनाओं पर गंभीरता से विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि यह महज ऋण की सुविधा उपलब्ध कराने वाली योजना ही नहीं बल्कि सुरक्षा व्यवस्था बनाने वाली भी है। यह योजना लाभार्थियों और उनके परिवारों को उनकी पात्रता के आधार पर सरकार की मौजूदा कल्याण योजनाओं को विवेकसम्मत तरीके से जोड़ती है। ये योजनाएं एक कवच का काम करती हैं और जिंदगी और जीविका में आने वाली अनिश्चितताओं की संवेदनशीलता से बचाती हैं।
योजना अलग रूप में काम नहीं करती है बल्कि यह स्ट्रीट वेंडरों और उनके परिवारों की जिंदगी को समृद्ध करने की व्यापक दृष्टि का हिस्सा है। इसके अलावा इस पहल का उद्देश्य पीएमस्वनिधि के लाभार्थियों और उनके परिवारों के सामाजिक-आर्थिक स्तर का व्यापक आकलन तैयार करना भी है। यह योजना विभिन्न केंद्रीय कल्याण कार्यक्रमों के लिए उनकी संभावित पात्रता का आकलन करेगी और इनसे जोड़ने में उनकी मदद करेगी।
जब हम शहरी क्षेत्रों के श्रम बाजार की गतिशीलता से निपटते हैं तो हम न केवल लघु अवधि की आर्थिक दिक्कतों से निपटते हैं बल्कि इसके लिए भी एक ऐसा आधार तैयार करते हैं जहां शहर अधिक बेहतर और समृद्ध बनें। व्यापक नजरिया अपना कर और विभिन्न सामाजिक कल्याण कार्यक्रम शुरू करके हम अपनी शहरी आबादी के सामाजिक-आर्थिक स्तर में सुधार की महत्त्वपूर्ण संभावनाओं के द्वार खोल सकते हैं।
यह नजरिया सभी को शामिल करने के नीति निर्माण के प्रभाव की जरूरत बताता है और अधिक शानदार तथा समृद्ध शहरी भारत बनाने की संभावना की राह प्रशस्त करता है।
(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटिटिवनेस इंडिया में चेयर और यूएसएटीएमसी, स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्याता हैं। देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं। साथ में जेसिका दुग्गल के इनपुट)