सोमवार को भारत और न्यूजीलैंड ने ऐलान किया कि उन्होंने मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत सफलतापूर्वक संपन्न कर ली है। कुछ दिन पहले यह जानकारी सामने आई थी कि ओमान के साथ व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते (सीईपीए) पर दस्तखत हुए हैं। यह सही है कि ये दोनों अर्थव्यवस्थाएं न तो बहुत बड़ी हैं न ही विश्व स्तर पर बहुत बड़े पैमाने पर कारोबार करती हैं लेकिन ये एक बात तो साबित करते हैं कि हाल के वर्षों में ऐसे समझौतों के लिए भारत का रुख बदला है।
मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर शुरुआती अविश्वास, खासकर उन समझौतों को लेकर जो पिछली सरकार द्वारा किए गए थे, अब आंशिक रूप से समाप्त हो गया है। हालांकि भारत अभी तक इतना आगे नहीं बढ़ा है कि अपने समकक्ष देशों के साथ सार्थक बातचीत शुरू कर सके। अब भी यह विश्वास बना हुआ है कि अन्य विकासशील देश भारत से बेहतर प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं और इस प्रकार उन्हें समृद्ध राष्ट्रों के साथ आर्थिक एकीकरण से अधिक लाभ मिल सकता है।
उस युग में जब प्रतिस्पर्धी क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि कोई देश लचीली और खंडित वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं का हिस्सा बन सके, यह पूरी तरह सच नहीं है। फिर भी, नए बाजार खोलने और वैश्विक एकीकरण को गहरा करने के किसी भी प्रयास का भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव होगा, और इस प्रकार ये नए समझौते स्वागत योग्य हैं।
दोनों ही मौजूदा, भले ही हाल के, मिसाल पर आधारित हैं। संयुक्त अरब अमीरात के साथ भी एक सीईपीए पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह ठीक तभी हुआ जब भारत ने ऐसे समझौतों की संभावनाओं पर पुनर्विचार शुरू ही किया था। न्यूजीलैंड के साथ हुआ समझौता एक अन्य कृषि महाशक्ति ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए समझौतों जैसा ही है। ब्रिटेन के साथ भी एक मुक्त व्यापार समझौते पर सहमति बनी है।
इसका अर्थ यह है कि भारत पांच एंग्लोस्फेयर अर्थव्यवस्थाओं यानी अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में से तीन के साथ अनौपचारिक व्यापार समझौते कर चुका है। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि कनाडा के साथ बातचीत दोबारा शुरू होगी। यह बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच संबंधों में गिरावट ने ऐसी वार्ताओं को स्थगित कर दिया था। गोयल ने यह संकेत भी दिया है कि अमेरिका के साथ बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है। हालांकि उसके साथ समझौते पर पहुंचना कहीं अधिक कठिन होगा।
छोटे देशों के साथ ये समझौते भारत के नए रुख का संकेत हैं। लेकिन अमेरिका और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी अथवा प्रशांत पार साझेदारी के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौते (सीपीटीपीपी) हमारे लिए अधिक प्राथमिकता वाले होने चाहिए। यूरोपीय संघ और अमेरिका के साथ बातचीत पूरी करने की तय मियाद समाप्त हो चुकी है। हालांकि इन्हें अधिकतम 2026 की पहली छमाही के अंत तक पूरा कर लेना चाहिए क्योंकि उसके बाद शुल्कों का नया दौर असर डालने लगेगा और वह भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान विकास गति को भी प्रभावित करेगा।
यूरोपीय संघ के लिए, नए वर्ष के शुरुआती महीनों में शीर्ष नेतृत्व की संभावित यात्रा एक अनौपचारिक समयसीमा हो सकती है। जहां तक अमेरिका का सवाल है, समझौते को अंतिम रूप देने में जितनी देर होगी, निर्यात के उतने ही अधिक मूल्यवान अनुबंध खो जाएंगे। उनके लिए अन्य जगहों पर वैसे ही समझौते कर पाना मुश्किल होगा।
अब समय आ गया है कि बड़े समूहों पर पुनर्विचार किया जाए। भले ही आरसेप जिसमें चीन शामिल है, इस समय भू-राजनीतिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील विचार माना जाता हो, लेकिन सीपीटीपीपी भी एक संभावना है। उसमें कई ऐसे देश शामिल हैं जिनके साथ भारत मुक्त व्यापार समझौता कर चुका है, जैसे न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, जापान और ब्रिटेन। व्यापार समझौतों को लेकर भारत का रुख स्वागत योग्य है, लेकिन हमें और अधिक महत्त्वाकांक्षा दिखाने की आवश्यकता है।