बजट में राजस्व और व्यय के व्यावहारिक अनुमान सराहना योग्य हैं मगर व्यापार और राजकोषीय लक्ष्यों से संबंधित प्रयास पर्याप्त नहीं लग रहे हैं। बजट की विवेचना कर रहे हैं शंकर आचार्य
एक फरवरी को देश के एक अग्रणी आर्थिक समाचार पत्र ने प्रथम पृष्ठ पर संसद में पेश ‘आर्थिक समीक्षा’ से जुड़ी एक खबर प्रकाशित की। इस प्रमुख खबर का शीर्षक था, ‘वित्त वर्ष 2024 में जीडीपी वृद्धि दर घट कर 6.5 प्रतिशत रहने का अनुमान’।
यह शीर्षक पूरी तरह अनुपयुक्त नहीं था क्योंकि 6 जनवरी को राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा जारी पहले अग्रिम अनुमान में वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 7 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया गया था। वित्त वर्ष 2024 में विश्व में लगभग मंदी की स्थिति की आशंका के मद्देनजर यह शीर्षक आश्चर्यचकित करने वाला नहीं है।
हालांकि, राष्ट्रीय आय के आंकड़ों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने के बाद पता चलता है कि आर्थिक समीक्षा में वित्त वर्ष 2024 के लिए 6.5 प्रतिशत वृद्धि दर का अनुमान वित्त वर्ष 2023 की दूसरी छमाही में एनएसओ (भारतीय रिजर्व बैंक का भी यही अनुमान था) के अनुमानित 4.3-4.4 प्रतिशत वृद्धि अनुमान की तुलना में एक बड़ी उछाल है।
इसका कारण यह है कि एनएसओ ने वित्त वर्ष 2023 की पहली छमाही में जीडीपी वृद्धि दर 9.7 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था।
वित्त वर्ष 2022 की पहली छमाही में कोविड महामारी की दूसरी लहर के कारण जीडीपी आधार काफी नीचे चला गया था इसलिए यह अनुमान व्यक्त किया गया था। अगर कोविड महामारी के असर पर थोड़ी देर के लिए विचार न करें तो वित्त वर्ष 2023 की दूसरी छमाही में वृद्धि दर आधिकारिक रूप से 7 प्रतिशत से नीचे रहने का अनुमान दिया गया था।
इस परिप्रेक्ष्य में और वित्त वर्ष 2024 में कठिन एवं अनिश्चित वैश्विक माहौल की आशंका के बीच आर्थिक समीक्षा में 6.5 प्रतिशत वृद्धि (और 6.0-6.8 प्रतिशत का संबंधित दायरा) की उम्मीद थोड़ी आशावादी लगती है। मुझे स्वयं मेरा अनुमान काफी सहज लग रहा है। मेरा अनुमान है कि वित्त वर्ष 2024 में जीडीपी वृद्धि दर 5-6 प्रतिशत रह सकती है। नोमूरा और जे पी मॉर्गन जैसे कुछ निवेश बैंकों को वृद्धि दर 5 प्रतिशत रहने की उम्मीद है।
वित्त मंत्रालय निर्मला सीतारमण के पांचवें बजट की यह कहते हुए सराहना हो रही है कि इसमें राजस्व और व्यय का सतर्क एवं पूरी जवाबदेही के साथ अनुमान व्यक्त किया गया है। राजस्व और व्यय के अनुमान किसी भी बजट में दो आधारभूत बातें होती हैं।
बजट की इस बात के लिए भी प्रशंसा हो रही है कि विभिन्न प्रावधानों एवं कराधान पर सोच-समझ कर पहल की गई है और खासकर अलगे साल चुनावों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न लोगों और संबंधित पक्षों का खास ध्यान रखा गया है। मेरे अनुसार वित्त मंत्री ने लगातार तीसरे वर्ष लेखा पारदर्शिता, नॉमिनल जीडीपी (महंगाई समायोजित किए बिना) वृद्धि दर और सकल कर राजस्व के सतर्क अनुमान (दोनों 10.5 प्रतिशत) दिए हैं और पूंजीगत व्यय में मजबूत वृद्धि और
राजकोषीय मजबूती पर विशेष जोर दिया है। ये सभी पहल सराहनीय है।
हालांकि, राजकोषीय मजबूती की दिशा में और प्रयास होते तो और अच्छा होता। सरकार राजकोषीय घाटा जीडीपी का 5.5 प्रतिशत रखने का लक्ष्य तय कर सकती थी और अगर इसके लिए पूंजीगत व्यय में बढ़ोतरी थोड़ी कम भी हुई होती तो कोई हर्ज नहीं था। मैं कई कारणों से ऐसा कह रहा हूं। पहला कारण यह कि राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5.9 प्रतिशत तक सीमित रखने का अर्थ है कि केंद्र एवं राज्यों का संयुक्त घाटा जीडीपी का 9 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। घाटा अधिक रहने से सार्वजनिक क्षेत्र की उधारी की जरूरत कम से कम 10 प्रतिशत हो जाएगी। ये दोनों आंकड़े मध्य आय वर्ग वाले देशों में ऊपरी दायरे में होंगे।
दूसरा कारण यह है कि बाजार से अधिक उधारी लेने से ब्याज दरें बढ़ जाएंगी जिससे निजी क्षेत्र से निवेश का सिलसिला दोबारा शुरू होने का का इंतजार और लंबा हो जाएगा।
तीसरा कारण यह है कि ब्याज भुगतान बढ़ने से वित्त वर्ष 2024 के लिए बजट में व्यय के कुल प्रावधान के 24 प्रतिशत हिस्से का उपयोग नहीं हो पाएगा और राजस्व प्राप्ति का 41 प्रतिशत हिस्सा (वित्त वर्ष 2021 की 36 प्रतिशत की तुलना में) भी चला जाएगा।
चौथा कारण यह है कि यह काफी हद तक संभव है कि राजकोषीय घाटा बजाय ब्याज दरों के मंद प्रभाव के जरिये अधिक अर्थव्यवस्था का अधिक विस्तार होगा।
आने वाले समय में केंद्र सरकार के स्तर पर राजकोषीय घाटा कम करने की राह में सकल कर राजस्व-जीडीपी अनुपात में लगभग ठहराव की स्थिति एक बड़ी बाधा होगी। यह अनुपात पिछले 30 वर्षों से अधिक समय से जीडीपी का 10-11 प्रतिशत स्तर पर रहा है।
वित्त वर्ष 2024 में सकल कर राजस्व-जीडीपी अनुपात 11.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है जो 1989-1991 के 10 प्रतिशत अनुपात से अलग नहीं है और वित्त वर्ष 2007-08 में दर्ज 11.9 प्रतिशत के शीर्ष स्तर से कम है। पिछले 30 वर्षों में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय तीन गुना से अधिक हो गई है मगर सकल कर राजस्व-जीडीपी अनुपात लगभग जस का तस बना हुआ है।
स्पष्ट है कि राजकोषीय मजबूती और राजकोषीय संतुलन के लिए हमें कर नीति एवं प्रशासन में गंभीर सुधार करने की आवश्यकता है, तभी जाकर इस अनुपात में कम से कम 1-2 प्रतिशत अंक का इजाफा जल्द हो पाएगा।
वृहद आर्थिक संतुलन और संभावित आर्थिक गतिशीलता काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं मगर वित्त मंत्री के बजट भाषण और प्रस्तावों में इसका जिक्र कम किया गया है।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार और भुगतान संतुलन ऐसे ही महत्त्वपूर्ण खंड हैं। भारत का चालू खाते का घाटा वित्त वर्ष 2023 में जीडीपी का 3 प्रतिशत है जो एक असहज स्तर है। वित्त वर्ष 2024 में यह इसी स्तर के आस-पास रह सकता है। पिछले दशक में वस्तुओं का निर्यात स्थिर रहा है। वर्ष 2021-22 में इसमें थोड़ी तेजी आई थी मगर इसमें फिर कमी दिख रही है।
ऐसा माना जाता है कि निर्यात में निरंतर वृद्धि मजबूत बाह्य संतुलन और जीडीपी एवं रोजगार में निरतंर तेज बढ़ोतरी के लिए आवश्यक होती है। मगर 2011-12 और 2019-20 के दौरान जीडीपी में कुल निर्यात की हिस्सेदारी करीब 25 प्रतिशत कम होकर 19 प्रतिशत रह गई।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस अवधि के दौरान वस्तुओं के निर्यात की हिस्सेदारी जीडीपी का 17 प्रतिशत से कम होकर 11 प्रतिशत रह गई। वर्ष 2021-22 में वस्तुओं के निर्यात में तेजी से इसकी हिस्सेदारी बढ़कर जीडीपी का 13.5 प्रतिशत हो गई। इसके साथ ही सेवाओं का निर्यात भी मजबूत रहा जिससे कुल निर्यात हिस्सेदारी बढ़कर 21.5 प्रतिशत हो गई मगर तब भी यह एक दशक के पूर्व के स्तर से काफी कम रही।
पिछले दशक के दौरान सीमा शुल्क में बढ़ोतरी (खासकर कच्चे माल और उत्पादन प्रक्रिया के बीच में इस्तेमाल होने वाले सामान पर) निर्यात के कमजोर प्रदर्शन की मुख्य वजह रही।
सीमा शुल्क बढ़ने से गैर-कृषि आयात पर औसत शुल्क 50 प्रतिशत बढ़ गया। यह 2015 में 10 प्रतिशत था जो 2021 में बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया (डब्ल्यूटीओ और अंकटाड के अनुसार)। शुल्क में यह बढ़ोतरी ऐसे समय में हुई थी जब पूर्वी एशियाई एवं भारत के अन्य प्रतिस्पर्द्धी देशों ने एमएफएन शुल्क काफी कम रखे और विभिन्न मुक्त व्यापार समझौतों के जरिये इन्हें प्रभावी रूप में और कम कर दिया।
वियतनाम इस रणनीति को आगे बढ़ाने वाला अहम देश था और उसने विश्व में वस्तुओं के कुल निर्यात में अपनी हिस्सेदारी तीन गुना बढ़ाकर 1.6 प्रतिशत तक कर ली। भारत से वस्तुओं का निर्यात कभी लंबे समय तक इसी स्तर पर रहा था।
इन आंकड़ो के मद्देनजर मुझे लगा था कि विनिर्माण प्रतिस्पर्द्धा, निर्यात और वैश्विक मूल्य श्रृंखला में अधिक भागीदारी के लिए बजट में शुल्कों में कटौती की घोषणा की जाएगी, खासकर कच्चे माल एवं मध्यस्थ वस्तुओं पर शुल्क जरूर कम किए जाएंगे। बजट एवं इससे संबंधित दस्तावेज में शुल्कों में कटौती संबंधी कुछ घोषणाएं जरूर हुईं मगर वे निरंतर गति से विनिर्मित उत्पादों का निर्यात बढ़ाने के प्रयास के काफी दूर लग रहे हैं।
(लेखक इक्रियर में मानद प्राध्यापक, भारत सरकार के पूर्व आर्थिक
सलाहकार हैं।)
First Published - February 14, 2023 | 10:33 PM IST
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