पिछले दिनों रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के 66वें स्थापना दिवस समारोह में उसके अध्यक्ष समीर वी कामत ने इस बात पर प्रसन्नता जताई कि रक्षा मंत्रालय ने डीआरडीओ द्वारा विकसित करीब 1.42 लाख करोड़ रुपये की हथियार प्रणाली की खरीद को मंजूरी दी है।
बहरहाल इस मामले में अतिउत्साह सही नहीं होगा क्योंकि अब तक कोई ऑर्डर नहीं दिया गया है न ही पैसे का आवंटन किया गया है। इस विषय में केवल जरूरत की स्वीकार्यता को लेकर समझौता हुआ है जो एक तरह से रक्षा मंत्रालय की हरी झंडी है और जिसके तहत यह खरीद प्रक्रिया आरंभ हो सकती है।
इसमें श्रेणीबद्धता की प्रक्रिया शामिल होगी। उसके बाद सूचना अनुरोध और प्रस्ताव अनुरोध की बारी आएगी। इसके आगे वेंडर का आकलन होगा, परीक्षण आकलन प्रक्रिया होगी और तकनीकी आकलन किया जाएगा तथा उसके पश्चात रक्षा मंत्रालय की वाणिज्यिक वार्ता समिति वाणिज्यिक बोलियों का मूल्यांकन करेगी और सबसे कम बोली की घोषणा की जाएगी।
इस पूरी प्रक्रिया को दो-तीन वर्षों में पूरा हो जाना चाहिए लेकिन वास्तव में इसमें एक से दो दशक का समय लग जाता है। मौजूदा सरकार जिन कई खरीद प्रक्रियाओं को पूरा करने का दावा करती है उनकी शुरुआत पिछली सरकार के कार्यकाल में हुई थी यानी एक दशक से भी पहले।
सरकार एक बात का श्रेय जरूर ले सकती है और वह मुखरता से लेती भी है। वह है पहले की तुलना में डीआरडीओ से विकसित अधिक प्रणालियों की खरीद। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आत्मनिर्भर भारत का नारा रक्षा उत्पादन और हथियार खरीद के मामले में स्पष्ट नजर आता है।
इसके उलट इस बात का आकलन करने की आवश्यकता है कि मेक इन इंडिया की नीति का प्रदर्शन कैसा है। औद्योगिक संगठनों के मुताबिक जरूरत की स्वीकार्यता यानी एओएन के 80-90 फीसदी मामले भारतीय कंपनियों से संबद्ध हैं। इस राशि का करीब 60-70 फीसदी हिस्सा भारतीय डिजाइन, विकास और विनिर्माण श्रेणी की रक्षा खरीद पर व्यय होता है।
2020 की रक्षा खरीद प्रक्रिया में इसे सर्वाधिक प्राथमिकता वाली श्रेणी में रखा गया है। वास्तविक संदर्भ में सेना की कुल सालाना रक्षा उपकरण खरीद करीब 1.08 लाख करोड़ रुपये की रहती है। इसमें से करीब 20-21 हजार करोड़ रुपये के हथियार निजी क्षेत्र तैयार करता है।
ऐसी प्रमुख निजी कंपनियों में भारत फोर्ज जैसी कंपनियां हैं जो कल्याणी समूह की रक्षा कंपनी है और जिसका टर्नओवर 1,400-1,500 करोड़ रुपये है और उसके पास 4,500 करोड़ रुपये के ऑर्डर हैं। टाटा एडवांस सिस्टम्स लिमिटेड, लार्सन ऐंड टुब्रो तथा गोदरज ऐंड बॉयस आदि ऐसे ही कुछ और नाम हैं।
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इनमें से पहली दो कंपनियों ने एडवांस्ड टोड आर्टिलरी गन सिस्टम (एटीएजीएस) के लिए डीआरडीओ के साथ साझेदारी की और अब वे 307 हॉवित्जर तोपों के लिए प्रतिस्पर्धा में हैं। 307 एटीएजीएस के लिए वाणिज्यिक बोली लगा दी गई है। इन्हें 60:40 के अनुपात में बनाया जाएगा और सबसे कम बोली लगाने वाले को सबसे बड़ा ऑर्डर मिलेगा।
एक और क्षेत्र जहां निजी क्षेत्र आगे है वह है रक्षा निर्यात बाजार में उसकी बढ़ती भूमिका। वह पहले ही पड़ोसी देशों को वाहनों, प्लेटफॉर्म तथा छोटे युद्धपोतों की बिक्री में दखल बना चुका है। 2017-18 में जहां 4,682 करोड़ रुपये मूल्य का निर्यात किया गया था वहीं 2018-19 में यह बढ़कर 11,000 करोड़ रुपये हो गया।
इस वर्ष का निर्यात 16,000 करोड़ रुपये से अधिक होगा क्योंकि ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल, पिनाका मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर, एटीएजीएस हॉवित्जर तोपों और तेजस लड़ाकू विमानों तथा ध्रुव हल्के हेलीकॉप्टरों की बिक्री बढ़ रही है। इस बात की भी उम्मीद है कि रक्षा मंत्रालय 2018 की रक्षा उत्पादन नीति में उल्लिखित 2025 तक 35,000 करोड़ रुपये के निर्यात लक्ष्य को हासिल कर सकता है।
निर्यात वृद्धि का यह स्तर भारत को 1.8 लाख करोड़ रुपये के वार्षिक रक्षा उत्पादन कारोबार के लक्ष्य के साथ दुनिया के शीर्ष पांच रक्षा उत्पादकों में से एक बनाने के 2018 के राष्ट्रीय रक्षा नीति के लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक है।
रक्षा निर्यात की इस वृद्धि के साथ-साथ जरूरत यह भी है कि रक्षा आयात में कमी की जाए। 20 मार्च को रक्षा मंत्रालय ने दिसंबर 2022 तक के उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर राज्य सभा को बताया कि 2018-19 में रक्षा आयात 46 फीसदी से घटकर 36.7 फीसदी रह गया।
रक्षा मंत्रालय ने 25 मार्च, 2022 को संसद को बताया कि विगत तीन वित्त वर्षों में रक्षा उपकरणों की पूंजीगत खरीद के लिए किए गए 197 समझौतों में से 127 भारतीय वेंडरों के साथ हुए। इसके बावजूद विदेशी प्लेटफॉर्मों की खरीद जारी है क्योंकि भारतीय प्लेटफॉर्म वैश्विक मानकों पर खरे नहीं उतरते।
उदाहरण के लिए एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट जिसे भारत के स्वदेशी पांचवी पीढ़ी के स्टील्थ (छिपने में सक्षम) लड़ाकू विमान के रूप में विकसित किया जा रहा है। हालांकि इसे अभी पूरी क्षमता हासिल करना शेष है। ऐसे में भारतीय वायु सेना के पास शायद विदेशी विकल्प चुनने के सिवा कोई और विकल्प न रह जाए।
एक और क्षेत्र है पनडुब्बी क्षमता का। भारत ने दो दशक पहले फ्रांस के साथ छह एयर इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन (एआईपी) स्कॉर्पीन सबमरीन यानी पनडुब्बी खरीदने का अनुबंध किया था लेकिन अभी भी अंतिम पनडुब्बी की आपूर्ति की प्रक्रिया चल रही है। नौसेना ने तीन और स्कॉर्पियन का ऑर्डर दिया है जिन्हें मुंबई में बनाया जाएगा।
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इस बीच छह और एआईपी पनडुब्बियों की खरीद पर कोई निर्णय नहीं हुआ है जिन्हें कथित प्रोजेक्ट 75-आई के तहत बनाया जाना था। भारतीय नौसेना के समक्ष ऐसी पनडुब्बियों की जरूरत बनी हुई है जिनकी उसे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की रक्षा के लिए आवश्यकता है। परंतु वैश्विक स्तर पर मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) के रूप में चिह्नित होने की कोई जल्दबाजी नहीं है जिससे उत्पादन तकनीक मिल सकेगी। न ही सामरिक साझेदार को चिह्नित करने की जल्दी है जो ओईएम से तकनीक हासिल करके उन छह पनडुब्बियों के परीक्षण, रखरखाव, मरम्मत और उन्नयन का काम करेगा जो प्रोजेक्ट 75-आई से तैयार होंगी।
यहां केवल प्रोजेक्ट 75-आई की छह पनडुब्बियां ही दांव पर नहीं हैं बल्कि स्वयं सामरिक साझेदार की श्रेणी भी है। एआईपी पनडुब्बियां, भविष्य के इन्फैंट्री कॉम्बैट व्हीकल, नौसैनिक बहुउपयोगी हेलीकॉप्टर तथा अन्य अहम उपकरण बनाने के लिए यही तरीका चुना गया था। परंतु रक्षा मंत्रालय की अफसरशाही के लिए निजी क्षेत्र से निपटना बहुत असहज करने वाला है। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि निजी क्षेत्र की बोली हासिल होने से अनुबंध होने तक वह 15 माह का समय लेता है जबकि सरकारी कंपनी के मामले में यह प्रकिया चार माह में पूरी हो जाती है।