हिंदुस्तान यूनिलीवर की पहली महिला प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के रूप में प्रिया नायर की नियुक्ति देश के कॉरपोरेट जगत के लिए एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर है। भारतीय कॉरपोरेट जगत ने नेतृत्वकारी भूमिकाओं में लैंगिक यानी स्त्री-पुरुष कर्मचारियों की संख्या में विविधता को लेकर बहुत धीमी प्रगति की है। नियामकीय मानकों मसलन सूचीबद्धता के लिए नियमों में सूचीबद्ध कंपनी के बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक की अनिवार्यता आदि ने कंपनियों को बोर्ड रूम में विविधता लाने के लिए प्रेरित किया है। हालांकि उतनी प्रगति नहीं हो सकी है जितनी कि अपेक्षित थी। कंपनियों के बोर्ड में महिलाएं 21 फीसदी पदों पर हैं जबकि नैशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों में से केवल 5 फीसदी में ही महिलाएं सीईओ या प्रबंध निदेशक के पद पर हैं।
बहरहाल, शीर्ष पर कुछ प्रगति के बावजूद व्यापक तस्वीर अभी तक असमान बनी हुई है। मानव संसाधन सलाहकार कंपनी मार्चिंग शीप्स द्वारा हाल ही में जारी ‘मार्चिंग शीप इन्क्लूजन इंडेक्स 2025’ के अनुसार भारत की 63.45 फीसदी सूचीबद्ध कंपनियों में अभी भी महत्त्वपूर्ण पदों पर महिलाएं नहीं हैं। ऐसे हालात तब भी बने हुए हैं जबकि तथ्य बताते हैं कि समावेशन के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करने वाली कंपनियों ने अपने समकक्षों की तुलना में अच्छा मुनाफा कमाया।
विविधता केवल नैतिकता का प्रश्न नहीं है। यह वाणिज्यिक दृष्टि से भी अहम है। अगर करीब से नजर डालें तो पता चलता है कि देश के कारोबारी क्षेत्र में लैंगिक विविधता हर तरह से असंतुलित है। शुरुआती स्तर की भर्तियों में महिलाओं का अच्छा खासा प्रतिनिधित्व है और वे शीर्ष पर भी नजर आती हैं लेकिन प्रबंधन के मध्यम स्तर पर महिलाओं की संख्या काफी कम नजर आती है। ध्यान रहे कि यही मध्यम स्तर का प्रबंधन आगे चलकर शीर्ष नेतृत्व की तरफ बढ़ता है।
इतना ही नहीं, महिलाओं को अक्सर मानव संसाधन और कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी जैसे क्षेत्रों में रखा जाता है जो महत्त्वपूर्ण तो हैं लेकिन रणनीतिक कारोबारी निर्णयों में इनकी भूमिका अक्सर कुछ खास नहीं होती। मैकिंजी की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार वित्त, परिचालन और कोर बिजनेस इकाइयों में पुरुषों का दबदबा बरकरार है। यह रुझान न केवल महिलाओं की करियर वृद्धि को रोकता है बल्कि कंपनियों की निर्णय प्रक्रिया में गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। अहम कारोबारी कार्यों में लैंगिक विविधता की कमी के कारण संकीर्ण दृष्टिकोण विकसित हो सकते हैं और अवसर गंवाने पड़ सकते हैं।
देश के कॉरपोरेट जगत के कर्मचारियों में महिलाओं की हिस्सेदारी 22 फीसदी है, यह आम श्रम शक्ति में उनकी भागीदारी से भी कम है। ऐसे में देश के जनांकिकीय बढ़त का पूरा लाभ लेने के लिए समावेशन को हकीकत में बदलना होगा। कंपनियां न केवल बोर्ड स्तर पर बल्कि सभी कामों में भर्ती, नौकरी छोड़ने, वेतन और पदोन्नति के संबंध में लिंग-आधारित मानकों पर नजर रखकर डेटा आधारित पारदर्शिता को अपना सकती हैं। जिस तरह बड़ी कंपनियां नियमित पर्यावरण और संचालन मानकों के अनुपालन की जानकारी देती हैं, विविधता के आंकड़े कमियों को पहचानने और लक्षित हस्तक्षेप करने में मददगार हो सकते हैं।
ढांचागत मार्गदर्शन के साथ नेतृत्व विकास पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इसमें संभावनाशील महिलाओं को आगे बढ़ाना और उन्हें प्रशिक्षित करना जरूरी है। खासकर वित्तीय और परिचालन के क्षेत्र में। ऐसे में अनुकूल कामकाजी माहौल बनाना आवश्यक है। समावेशी नीतियां मसलन लचीला कार्य समय, मातृत्व-अवकाश और पुनर्प्रवेश कार्यक्रम आदि को उत्पादकता बढ़ाने में सहायक माना जा सकता है। पर्यावरण, सामाजिक और संचालन फ्रेमवर्क यानी ईएसजी की तरह विभिन्न भूमिकाओं में लैंगिक पहचान के स्वैच्छिक खुलासे को प्रोत्साहित कर नियामक भी इसमें सहायक भूमिका निभा सकते हैं।
बड़े निवेशक भी अपने कॉरपोरेट संचालन और दीर्घकालिक जोखिम के मूल्यांकन में विविधता को ध्यान में रख रहे हैं। कारोबारी भारत को प्रतीकात्मक समावेशन से आगे बढ़कर वास्तविक प्रभाव की दिशा में बढ़ना होगा। इसका अर्थ यह है कि न केवल महिलाओं को नेतृत्वकारी भूमिका सौंपनी होगी बल्कि उन्हें प्राधिकार, संसाधन और निर्णय प्रक्रिया में भी शक्ति संपन्न बनाना होगा। इसका लक्ष्य केवल समता हासिल करना नहीं बल्कि मजबूत, नवाचारी और भविष्य की दृष्टि से सक्षम संगठनों का निर्माण करना भी है। इस प्रयास में लैंगिक संतुलन वाला नेतृत्व अहम है।