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  लेख  विकास की खातिर दुखों को झेलते विस्थापित
लेख

विकास की खातिर दुखों को झेलते विस्थापित

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 25, 2008 10:01 PM IST0
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विकास परियोजनाएं शुरू करने के लिए जिन लोगों को विस्थापित किया जाता है, उनकी कहानी भी अपने आप में अनोखी है।


हालांकि इन परियोजनाओं का उद्देश्य गरीबी मिटाना होता है पर इन्हें शुरू करने के लिए जिन लोगों की जमीन ली जाती है, वे पहले से ही गरीब होते हैं और जमीन छिन जाने के बाद तो उनकी हालत और खराब हो जाती है।

राज्यों को जमीन लेने के जो कानूनी अधिकार दिये गए हैं, वे दरअसल स्वतंत्र भारत में इस वजह से दिये गये थे ताकि जमींदारी प्रथा को खत्म किया जा सके।

जिसे शुरुआत में गरीबों के हथियार के रूप में देखा जाता था वही आज गरीबों का दुश्मन बन चुका है।
सामाजिक संगठन इन विस्थापित लोगों के हक की लड़ाई लड़ते हैं पर कई दफा वे उन सामाजिक संगठनों से ही भिड़ पड़ते हैं जो वनों के संरक्षण के लिए लड़ते हैं।

इस किताब में कई बेहतरीन निबंधों का संग्रह है जो मौजूदा साहित्य के सर्वे पर आधारित हैं। जिन्हें विस्थापित किया गया है उन्हें मुआवजा मिलना चाहिए, यानी उन्हें उसी जगह पर दोबारा से बसाया जाना चाहिए जहां वे विस्थापन के पहले थे।

पर वास्तविक स्थिति ठीक इससे उलट है और वे अपनी पहली जैसी परिस्थिति में कभी लौट ही नहीं पाते हैं। निबंधों के इस संग्रह में यह तर्क दिया गया है कि विकास का मतलब ही स्थिति में सुधार लाना है इसलिए विस्थापन के बाद उन लोगों की स्थिति पहले से बेहतर होनी चाहिए, न कि पहले से खराब।

मान लीजिए कि कुछ ऐसे किसान हैं जिनकी जमीन नदी की धारा के ऊपरी सिरे में है और बांध बनाने के लिए उनकी जमीन ले ली जाती है, बांध बनाने के बाद उन किसानों के लिए सिंचाई के लिए थोड़ा थोड़ा पानी छोड़ा जाता है जिनकी जमीन नदी के सिरे के निचले सिरे पर है यानी ढलान की ओर।

तो यहां उन किसानों की गलती क्या है जिनकी जमीनें धारा में ऊपर की ओर हैं और वे बदनसीब क्यों हैं? तो फिर इस परियोजना से उनकी हालत कहां सुधरी? किताब में सभी लेखकों ने सकारात्मक विचारधाराएं दिखलाई हैं। वे विकास या सरंक्षण के खिलाफ नहीं हैं। उनका बस इतना कहना है कि किसी परियोजना को चुनते वक्त ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए।

परियोजना से जुड़े आर्थिक फायदों को ही हमेश तवाो नहीं दी जानी चाहिए बल्कि यह ध्यान भी रखना चाहिए कि विस्थापन से कितने लोग प्रभावित होंगे। इस किताब के आखिरी खंड में शामिल निबंधों में बताया गया है कि किस तरह मुआवजे की प्रक्रिया की समीक्षा की जा सकती है और विस्थापितों की बेहतरी के लिए कैसे निवेश किया जाए।

और ऐसा करने का एक तरीका हो सकता है कि विकास परियोजनाओं के एक हिस्से के तौर पर ही विस्थापन का काम पूरा किया जाए, यह न समझा जाए कि परियोजना के कारण विस्थापन एक जिम्मेदारी है।

रवि कांबुर कहते हैं कि अगर पेयरटू सुधार का तर्क लागू किया जाए तो समाज के हित के लिए जरूरी कई परियोजनाओं की तो शुरुआत ही नहीं हो सकेगी। चरणबद्ध मुआवजे को परियोजना डिजाइन करते वक्त ही एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा समझा जाए। हम विस्थापन को किस तरह से लेते हैं यह मसला आर्थिक न होकर राजनीति और नीति से जुड़ा ज्यादा लगता है।

हरमन ई डेली बताते हैं, ‘अगर विस्थापन थोपा जाता है तो निश्चित तौर पर यह अर्थव्यवस्था के बजाय राजनीतिक मसला बन जाएगा।’ इस समस्या के बारे में तस्वीर साफ करते हुए माइकल सेरना कहते हैं, ‘जैसा कि आमतौर पर परियोजनाओं में देखने को मिलता है कि गरीबों की संपत्ति उन लोगों के पास चली जाती है जो संपन्न हैं और इस तरह परियोजना का खर्च आखिरकार गरीबों के कंधों पर ही पड़ता है।’

संघर्ष की घटनाओं के कारण जितने लोगों को शरणार्थी बनने पर मजबूर होना पड़ता है, उससे कहीं अधिक संख्या में लोगों को विकास कार्यक्रमों के कारण अपनी जगह छोड़नी पड़ती है।
दुनिया भर में हर साल विकास योजनाओं के चलते 1.5 करोड़ लोगों को विस्थापित किया जाता है।

पिछले 20 सालों में इनकी संख्या 28 से 30 करोड़ के करीब रही है। पिछले 55 सालों (1950-2005) में भारत में 6 करोड़ और चीन में 7 करोड़ लोग विस्थापित किये जा चुके हैं। हालांकि सफलतापूर्वक विस्थापन के मामले में चीन भारत से आगे रहा है (चीन में 33 फीसदी जबकि भारत में 25 फीसदी लोग सफलतापूर्वक विस्थापित किये गये हैं)।

इस किताब में वैसे तो पूरी दुनिया के विस्थापितों का जिक्र मिलता है पर भारत के अनुभव ज्यादा छाए हुए हैं। भारत ने अब तक जितनी जमीन ली हैं, वे सालों पुराने औपनिवेशिक कानूनों के आधार पर ली गई हैं।

और उम्मीद है कि मौजूदा सरकार के शासन में ही इसमें नए पुनर्वास विधेयक के जरिये सुधार किया जाएगा। हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता ऐसा कोई विधेयक  नहीं चाहते थे पर कुछ न होने से कुछ होना ही बेहतर है।

पुस्तक समीक्षा

कैन कंपनसेशन प्रिवेंट इंपोवेरिशमेंट?

संपादन: माइकल एम सेर्निया और हरि मोहन माथुर

प्रकाशक: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

पृष्ठ: 441

कीमत: 745 रुपये

people in transit camp facing problems in sake of development
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