facebookmetapixel
Gratuity Calculator: ₹50,000 सैलरी और 10 साल की जॉब, जानें कितना होगा आपका ग्रैच्युटी का अमाउंटट्रंप के ट्रेड एडवाइजर पीटर नवारो ने BRICS गठबंधन पर साधा निशाना, कहा- यह पिशाचों की तरह हमारा खून चूस रहा हैGold, Silver price today: सोने का वायदा भाव ₹1,09,000 के आल टाइम हाई पर, चांदी भी चमकीUPITS-2025: प्रधानमंत्री मोदी करेंगे यूपी इंटरनेशनल ट्रेड शो 2025 का उद्घाटन, रूस बना पार्टनर कंट्रीGST कट के बाद ₹9,000 तक जा सकता है भाव, मोतीलाल ओसवाल ने इन दो शेयरों पर दी BUY रेटिंग₹21,000 करोड़ टेंडर से इस Railway Stock पर ब्रोकरेज बुलिशStock Market Opening: Sensex 300 अंक की तेजी के साथ 81,000 पार, Nifty 24,850 पर स्थिर; Infosys 3% चढ़ानेपाल में Gen-Z आंदोलन हुआ खत्म, सरकार ने सोशल मीडिया पर से हटाया बैनLIC की इस एक पॉलिसी में पूरे परिवार की हेल्थ और फाइनेंशियल सुरक्षा, जानिए कैसेStocks To Watch Today: Infosys, Vedanta, IRB Infra समेत इन स्टॉक्स पर आज करें फोकस

अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन और फैकल्टी की खामोशी

विश्वविद्यालयों के प्रशासक जो प्राय: अपने-अपने विषय के विशेषज्ञ हैं उन पर प्रदर्शनकारियों को खामोश रखने का दबाव है। खुद उनकी आवाज को भी दबाया गया है।

Last Updated- May 20, 2024 | 11:07 PM IST

अमेरिकी विश्वविद्यालयों (US Universities) में विरोध प्रदर्शनों के बीच वहां के अकादमिक जगत के लोग खामोश क्यों हैं? बता रहे हैं टीटी राम मोहन

अमेरिकी विश्वविद्यालयों (US Universities) के परिसर पिछले महीने गाजा में छिड़ी लड़ाई के विरोध प्रदर्शन से उबल पड़े। फिलिस्तीन के समर्थन में हो रहे ये प्रदर्शन अभी जारी हैं और अब पूरे यूरोप में फैल चुके हैं। इन प्रदर्शनों ने विश्वविद्यालयों में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर कुछ बुनियादी प्रश्न उठाए हैं।

विश्वविद्यालयों के प्रशासक जो प्राय: अपने-अपने विषय के विशेषज्ञ हैं उन पर प्रदर्शनकारियों को खामोश रखने का दबाव है। खुद उनकी आवाज को भी दबाया गया है। ऐसे प्रदर्शनों से निपटने के लिए विश्वविद्यालयों को अभिव्यक्ति की आजादी और परिसर में व्यवस्था बनाए रखने के बीच संतुलन कायम करना होगा। अमेरिकी सिविल लिबर्टीज यूनियन ने इसके लिए ऐसे नियम तय किए जिन पर शायद ही कोई झगड़ा हो।

पहला, कोई भी नजरिया चाहे वह जितना आक्रामक हो, उसे सेंसर नहीं करना चाहिए या अनुशासन के दायरे में नहीं लाना चाहिए। दूसरा, किसी छात्र या समूह को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर निशाना नहीं बनाना चाहिए या धमकाना नहीं चाहिए।

तीसरा, विश्वविद्यालय प्रदर्शन करने के समय और स्थान को नियंत्रित कर सकते हैं ताकि विश्वविद्यालय का सामान्य कामकाज प्रभावित न हो। चौथा, पुलिस केवल अंतिम उपाय के रूप में बनानी चाहिए। इन परिसरों के नेताओं को राजनीतिक दबाव में नहीं आना चाहिए।

विश्वविद्यालयों के अधिकारियों के लिए विरोध प्रदर्शनों को इन नियमों के अधीन करने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए। दुख की बात है कि कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हालात हाथ से निकल गए। कई जगह सामान्य हालात में भी छात्रों से निपटने के लिए पुलिस और आतंकवाद निरोधक दस्तों तक को बुलाया गया। विश्वविद्यालयों की यह प्रतिक्रिया निराश कर सकती है लेकिन किसी को बहुत अधिक चकित होने की आवश्यकता नहीं।

अमेरिका विश्वविद्यालयों के परोपकारी योगदान के मामले में विशिष्ट स्तर पर है। दानकर्ता अक्सर वहां वित्तीय मदद का सबसे बड़ा स्रोत होते हैं। छात्रों के शुल्क से तो विश्वविद्यालय चलाने का खर्च तक नहीं निकलता। कोई विश्वविद्यालय या कॉलेज दान से जितना फंड जुटाता है, वह अधोसंरचना, शोध और फैकल्टी में उतना ही निवेश कर सकता है। इससे उसका कद बढ़ता है। दानदाताओं को नाराज करना ठीक नहीं।

इसके अलावा विश्वविद्यालयों को सरकार से भी शोध परियोजनाओं के लिए भारी फंड मिलता है। उदाहरण के लिए अमेरिकी रक्षा विभाग ऐसी फंडिंग का ऐतिहासिक स्रोत रहा है। कंपनियां भी शोध परियोजनाओं को फंड करती हैं। प्रमुख दानदाताओं, बड़ी कंपनियों और राजनेताओं ने इन परिसरों में फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनों को लेकर अपनी नाखुशी कभी नहीं छिपाई। अमेरिकी दानदाता और राजनेतओं ने इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के कहने पर विरोध प्रदर्शनों का दमन भी किया।

एक तरफ विश्वविद्यालयों और सरकार तथा दूसरी ओर निजी क्षेत्र के संबंध इतने गहरे हैं कि ये एक दूसरे के खिलाफ नहीं जा सकते। छात्रों की मांग है कि विश्वविद्यालय उन कंपनियों से दूरी बनाएं जो इजरायल से जुड़े हैं। ऐसे में मांग माने जाने के बजाय विश्वविद्यालयों के खिलाफ कदम उठाना लाजिमी था।
ऐसा नहीं है कि केवल विश्वविद्यालयों के प्रशासक ही बाहरी दबाव महसूस कर रहे हैं। फैकल्टी सदस्य भी छात्रों के वैध प्रदर्शन के पक्ष में नहीं आ पा रहे हैं।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में 111 सदस्यों वाली विश्वविद्यालय सीनेट ने अन्य बातों के अलावा विश्वविद्यालय अध्यक्ष के पुलिस बुलाने के निर्णय की निंदा की लेकिन इसके खिलाफ मतदान नहीं किया। हार्वर्ड में करीब 300 शिक्षकों ने एक पत्र पर हस्ताक्षर करके विश्वविद्यालय अध्यक्ष से मांग की कि वह प्रदर्शनकारी छात्रों से बातचीत करें। विश्वविद्यालय के 2,400 अध्यापकों में यह संख्या बहुत छोटी है।

हस्ताक्षर करने वालों में से अधिकांश मानविकी विभागों से थे। हार्वर्ड के प्रसिद्ध कानून, कारोबार, चिकित्सा और भौतिकी, रसायन तथा अर्थशास्त्र विभागों के शिक्षक सूची से मोटे तौर पर अनुपस्थित नजर आए। कुछ ही विश्वविद्यालयों में शिक्षकों ने नेतृत्व के खिलाफ अविश्वास मत जाहिर किया। ऐसा बहुत कम देखने को मिला।

आप सोच सकते हैं कि अमेरिका के तमाम नोबेल विजेता और अन्य वैचारिक नेतृत्वकर्ता कहां हैं। कोलंबिया विश्वविद्यालय के जोसेफ स्टिगलिट्ज जो स्वयं एक यहूदी हैं, उन्होंने ‘अकादमिक स्वायत्तता में हस्तक्षेप’ की आलोचना की है।

उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा, ‘वे (छात्र) दुनिया में क्या हो रहा है उससे समानुभूति रखते हैं। इतनी बड़ी तादाद में लोगों को मरते और घायल होते देखकर आखिर कोई कैसे प्रतिक्रिया नहीं देगा?’ प्रोफेसर स्टिगलिट्ज एक अपवाद हैं जबकि अमेरिका के अकादमिक जगत में अधिकांश लोग खामोश हैं।

अमेरिका में शिक्षकों के भी दो समूह हैं: क्लिनिकल फैकल्टी अधिकतर शिक्षण करती है और वे अनुबंध पर होते हैं। वे ऐसे मसलों पर कोई रुख अपनाकर अपनी नौकरी को दांव पर नहीं लगाना चाहते। दूसरी तरह के शिक्षक वे हैं जो जिनकी नौकरी पूरी तरह सुरक्षित है और उनकी सेवानिवृत्ति की उम्र तय नहीं है। ऐसा संरक्षण हासिल होने के कारण लोग उम्मीद करते हैं कि वे अकादमिक स्वायत्तता को लेकर बात करेंगे। परंतु ऐसा नहीं हुआ। बीते दशकों में अमेरिकी अकादमिक जगत में संचालन में परिवर्तन आया है।

अमेरिकी विश्वविद्यालय फैकल्टी संचालित माने जाते हैं। यानी फैकल्टी सदस्यों से उम्मीद की जाती है कि वे कॉलेज और विश्वविद्यालयों के संचालन में सक्रिय भूमिका निभाएंगे। बीते दो या तीन दशक में अमेरिकी कॉलेज डीन केंद्रित हो गए हैं यानी डीन के पास अधिक ताकत एकत्रित हो गई है।

वित्तीय स्थिति, फैकल्टी की नियुक्ति और उनका नियमितीकरण तथा उनको मिलने वाले वेतन भत्ते (और सालाना वेतनवृद्धि) आदि सभी ऐसे मामले हैं जिन पर डीन को अधिक नियंत्रण हासिल है। जो प्रोत्साहन अकादमिक प्रशासकों को दानदाताओं और राजनेताओं की मर्जी के मुताबिक का करने को प्रेरित करते हैं वही फैकल्टी पर नियंत्रण में भी मदद करते हैं।

फैकल्टी के प्रतिष्ठित सदस्य ऐसे पदों पर हैं जो धनी दानदाताओं की बदौलत हैं, फिर चाहे वे कोई व्यक्ति हों या कंपनियां। शोध परियोजनाओं के लिए फंड और मोटे तौर पर कॉलेज या विश्वविद्यालय के भीतर शक्ति या प्रभाव के लिए यह आवश्यक है कि फैकल्टी प्रशासकों और दानदाताओं को खुश रखें।

अपने कॉलेज या विश्वविद्यालयों में और डीन तथा अध्यक्षों से निपटने के मामले में फैकल्टी को यह पता होता है कि कैसे मामले को दबाना है। ऐसा केवल अमेरिका में नहीं है। मैंने अकादमिक जगत में काफी वक्त बिताया है और मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि अकादमिक जगत की आंतरिक संस्कृति किसी कंपनी से एकदम अलग नहीं होती।

दुनिया के अन्य समझदार लोगों की तरह अकादमिक जगत के लोग भी जानते हैं कि कौन सी बात उनके लिए लाभदायक साबित होगी। वे समझते हैं कि प्रशासनिक लोगों और ताकतवर बाहर लॉबी को चिढ़ाना उनको महंगा पड़ सकता है।

First Published - May 20, 2024 | 10:29 PM IST

संबंधित पोस्ट