भूषण पावर ऐंड स्टील लिमिटेड (बीपीएसएल) मामले में उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय के बाद स्थिति काफी जटिल हो गई है। कंपनी की समाधान योजना मंजूर होने के पांच वर्षों बाद उच्चतम न्यायालय ने इसके कारोबार का परिसमापन करने का आदेश दिया है। शीर्ष न्यायालय के इस निर्णय से भारत का वित्तीय क्षेत्र भी सदमे में है और कंपनियां भी। जेएसडब्ल्यू स्टील द्वारा बीपीएसएल के अधिग्रहण को पलटते हुए इस निर्णय ने ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) और इसे लागू करने वाले संस्थानों पर भी सवाल खड़े किए गए हैं।
एक बड़े उलटफेर में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऋणदाताओं की समिति (सीओसी) द्वारा स्वीकृत और आईबीसी और अपील न्यायाधिकरणों (राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण और राष्ट्रीय कंपनी विधि अपील न्यायाधिकरण) से अनुमति प्राप्त बीपीएसएल की समाधान योजना में प्रक्रिया के स्तर पर खामियां थीं और वह आईबीसी के नियमों के अनुरूप नहीं थी।
न्यायालय के अनुसार समाधान प्रक्रिया में कई बुनियादी गड़बड़ थीं। न्यायालय ने ऋणदाताओं को जेएसडब्ल्यू द्वारा दी गई रकम लौटाने और बीपीएसएल का परिसमापन करने के आदेश दिए। बीपीएसएल संकट के समाधान के पांच वर्षों बाद आए इस आदेश के बाद ऋणदाताओं को भारी नुकसान हो सकता है क्योंकि कंपनी का परिसमापन होने पर उन्हें जो रकम मिलेगी, वह समाधान के बाद मिली रकम से बहुत कम रह सकती है।
आईबीसी की शुरुआत 2016 में हुई थी और तब इसे भारत में बड़े आर्थिक सुधारों में एक बताया गया था। आईबीसी का मकसद असफल कंपनियों में फंसी पूंजी निकालना, ऋण के मामले में नियमों का सही से पालन कराना और संसाधनों की आवंटन क्षमता में सुधार करना था। बड़े आकार के फंसे ऋणों के समाधान में इसकी सफलता ने वित्तीय क्षेत्र को मजबूती दी और निवेशकों का हौसला बढ़ाया। मगर उच्चतम न्यायालय के हाल के आदेश के बाद आईबीसी के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है। समाधान योजना पूरी होने के वर्षों बाद इसे पलटने वाले न्यायालय के आदेश ने ऋणदाताओं एवं निवेशकों के लिए अनिश्चितता की स्थिति पैदा कर दी है और इससे आईबीसी के कारगर होने पर सवालिया निशान लग गए हैं।
उच्चतम न्यायालय के आदेश में बीपीएसएल मामले से जुड़े सभी संस्थानों की आलोचना की गई है। आईबीसी ढांचे में काफी अहम समझे जाने वाले संस्थान एनसीएलटी और एनसीएलएटी की गड़बड़ी भरी समाधान योजना मंजूर करने के लिए आलोचना की गई है। खराब निर्णय और कानूनी समय सीमा एवं नियमों का उल्लंघन करने वाली योजना का समर्थन करने के लिए सीओसी को भी आड़े हाथों लिया गया है। देर करने और कानूनी लापरवाही के लिए समाधान पेशेवर को जिम्मेदार ठहराया गया है, जिससे ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) की कमजोर निगरानी व्यवस्था भी उजागर हुई है। आईबीबीआई आईबीसी का नियमन करने वाली नियामकीय संस्था है।
न्यायालय के आदेश के बाद आईबीसी में बदलाव की चर्चा तेज हो गई है। मगर वास्तविक समस्या आईबीसी में नहीं बल्कि इसे लागू करने वाले संस्थानों में है। आईबीसी की सफलता पुख्ता कानूनी ढांचे पर उतनी ही निर्भर है, जितना इसे लागू करने वाले संस्थानों की क्षमता एवं विश्वसनीयता पर। एनसीएलटी और एनसीएलएटी को मजबूती देना जरूरी है। इन दोनों ही न्यायाधिकरणों में कर्मचारियों, न्यायाधीशों की लगातार कमी रही है और वे तकनीक का भी सीमित इस्तेमाल कर रहे हैं। कई न्यायाधीश दीवानी अदालतों से आते हैं इसलिए उनके पास जटिल कारोबारी मामले निपटाने का तजुर्बा नहीं होता है। ऋण शोधन अक्षमता कानून पर नियमित प्रशिक्षण और जटिल मामलों में न्याय मित्र का इस्तेमाल करने की अनुमति देने से न्यायाधीशों के निर्णय बेहतर हो सकते हैं।
आईबीबीआई द्वारा समाधान पेशेवर पर निगरानी रखने के तौर-तरीके में भी सुधार की जरूरत है। यद्यपि बोर्ड ऐसे पेशेवरों को प्रमाणित करता है मगर उनके (पेशेवरों) कदमों पर निगरानी रखने और उन्हें जवाबदेह ठहराने की उनकी क्षमता अनिश्चित लग रही है। समाधान पेशेवर अपनी कानूनी एवं जरूरी जिम्मेदारियों का वहन अच्छे तरीके से करें इसके लिए ठोस क्रियान्वयन अधिकारों एवं स्पष्ट दिशानिर्देशों की जरूरत है।
आईबीसी के अंतर्गत सीओसी समाधान प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका निभाता है। मगर उच्चतम न्यायालय के आदेश में उसकी आलोचना से एक बड़ा मुद्दा सामने आता है। सवाल यह है कि न्यायालय किस सीमा तक समिति के निर्णयों की समीक्षा कर सकता है? यह स्वाभाविक है कि ऋणदाता अपने व्यावसायिक हितों के लिए काम करेंगे, इसलिए उनके निर्णय सामान्यतः न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखे जाने चाहिए।
प्रक्रियात्मक लापरवाही की न्यायिक समीक्षा पूरी तरह वाजिब है मगर सीओसी के व्यावसायिक निर्णयों पर सवाल उठाना अधिक समस्याएं खड़ी करता है। समस्याएं और भी ज्यादा होती हैं क्योंकि ऐसी समीक्षा के लिए कोई स्पष्ट मानदंड नहीं होते हैं। आवश्यकता से अधिक न्यायिक हस्तक्षेप आईबीसी की बुनियाद को चोट पहुंचा रहा है।
उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के दूरगामी प्रभाव होंगे। बैंकों को अब जेएसडब्ल्यू स्टील से मिली रकम लौटानी होगी। उधर जेएसडब्ल्यू को बीपीएसएल से अब अपने निवेश निकालने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। इस निर्णय से पैदा हुई अनिश्चितता के बाद भविष्य में बोली लगाने वाले अधिक जोखिम प्रीमियम की मांग कर सकते हैं या वे संकट में फंसी कंपनियों से पूरी तरह दूर रह सकते हैं। इससे फंसे ऋणों का समाधान और मुश्किल में पड़ सकता है। यह निर्णय पूंजी को शिथिल रख सकता है, निवेशकों का भरोसा चकनाचूर कर सकता है और निजी निवेश (जो 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए काफी अहम है) आने की रफ्तार सुस्त कर सकता है।
कई वर्ष पहले हुए अधिग्रहण को पलटना और मुनाफे में आ चुकी कंपनी के परिसमापन का आदेश दिया जाना हौसला तोड़ता है। संभव है कि प्रक्रियात्मक लापरवाही हुई हो मगर न्यायालय का आदेश उस अनुपात में कुछ ज्यादा ही सख्त लग रहा है और इस पर बहस छिड़ सकती है। आईबीसी मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप सीमित रखने से जुड़े कानूनी प्रावधान ऐसी घटनाएं रोक सकते हैं। अगर ऐसे प्रावधान नहीं किए जाएंगे तो निपटाए गए मामलों को न्यायालय द्वारा पलटे जाने की आशंका समाधान प्रक्रिया में भाग लेने वाले संभावित बोलीदाताओं को दूर रख सकती है।
इस पूरे मामले का सारांश यह है कि उच्चतम न्यायालय का आदेश बीपीएसएल मामले में आईबीसी के संस्थागत ढांचे में गहरी विसंगतियों को उजागर करता है। अनावश्यक न्यायिक हस्तक्षेप पर भी सवाल खड़े हुए हैं। वित्तीय क्षेत्र के सुधारों को जारी रखने और लंबे समय के लिए निवेश करने वालों को आकर्षित करने के लिए नीति-निर्धारकों को तत्काल इन मुद्दों का समाधान करना चाहिए। आईबीईसी में भरोसा बहाल करने के लिए संस्थागत और न्यायिक सुधारों की जरूरत है। प्रतिस्पर्द्धात्मक रूप से ठोस और जवाबदेह संस्थान तैयार करने से ही आईबीसी की पूर्ण क्षमता का लाभ उठाया जा सकता है और ऋणदाताओं, निवेशकों और वृहद अर्थव्यवस्था के हित सुरक्षित रखे जा सकते हैं।
(लेखिका आईजीआईडीआर, मुंबई में सहायक प्राध्यापक हैं)