अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का रूस से तेल खरीदने के लिए भारत पर अतिरिक्त आयात शुल्क (टैरिफ) लगाने का दबाव, एक सोची समझी रणनीति हो सकती है। इसका मकसद यूक्रेन के मामले में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन पर दबाव डालना और हमारे व्यापार वार्ताकारों से कुछ रियायतें हासिल करना हो सकता है। लेकिन ट्रंप का यह दावा हमारे लिए और भी अपमानजनक है कि एक अमेरिकी कंपनी, पाकिस्तान के ‘विशाल’ तेल भंडार का पता लगा सकती है और इसका कुछ हिस्सा भारत को बेचा जा सकता है।
भारत, जरूरत पड़ने पर बिना अधिक अतिरिक्त लागत के कई दूसरे देशों से तेल खरीद सकता है। आधिकारिक बयानों के मुताबिक, हम हर दिन जो 50 लाख बैरल तेल का आयात करते हैं, वह अब 40 अलग-अलग देशों से आता है। लेकिन ऐसा करने पर हमें राजनीति, नियमों के अनुपालन और प्रतिष्ठा से जुड़ी कुछ परेशानियां हो सकती हैं और भारत के प्रसंस्कृत पेट्रोलियम निर्यात पर भी असर पड़ सकता है। यह सब हमें उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था की कड़वी भू-आर्थिक प्रतिस्पर्धा के बारे में अहम सबक सिखाता है।
कई लोगों का मानना है कि ट्रंप की भू-राजनीतिक रणनीतियां, अमेरिका के तेल उत्पादन और निर्यात को बनाए रखने के उद्देश्य से जुड़ी हैं ताकि तेल की कीमतें अभी के ऊंचे स्तर पर बनी रहें। कच्चा तेल और गैस कंपनियों को (जिन्होंने पिछले एक दशक में अमेरिका में उत्पादन बढ़ाया है) मुनाफे में रहने के लिए 60-65 डॉलर प्रति बैरल से अधिक की कीमतों की जरूरत होती है। कई उत्पादक शेल बेसिन अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुके हैं और ट्रंप की ‘ड्रिल’ करने की अपील के बावजूद, कंपनियां उत्पादन बढ़ाने के बजाय शेयरधारकों को रिटर्न देने को प्राथमिकता दे रही हैं।
तेल और गैस अमेरिका की सबसे बड़ी निर्यात वस्तुएं हैं, लेकिन ट्रंप द्वारा घोषित किए जाने वाले अरबों के ऊर्जा निर्यात के लिए यह जरूरी है कि कीमतें गिरें नहीं, भले ही तेल निर्यात करने वाले देशों का संगठन ओपेक+ उत्पादन में कटौती खत्म कर दे और वैश्विक आपूर्ति बढ़ा दे। ट्रंप वास्तव में ओपेक की इस लंबी रणनीति से वाकिफ हैं कि वह 2015 के बाद अमेरिका के हाथों गंवाए गए बाजार हिस्से को वापस पाना चाहता है।
भारत, दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है जो हर दिन कच्चे तेल के आयात पर करीब 40 करोड़ डॉलर खर्च करता है। इसी वजह से भारत तेल बेचने वालों के लिए एक बड़ा बाजार है। लेकिन, अपनी खपत के लगभग 90 फीसदी हिस्से के लिए आयात पर निर्भर होने के कारण, हमारी आर्थिक तरक्की पर भू-राजनीतिक जोखिमों का खतरा बढ़ रहा है। ऐसे में देश में घरेलू उत्पादन बढ़ाना अब एक आवश्यक रणनीति बन गई है।
पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने हाल के वर्षों में किए गए बड़े सुधारों का जिक्र किया है। वर्ष 2022 से, करीब 10 लाख वर्ग किलोमीटर के उन क्षेत्रों को भी खोज के लिए खोल दिया गया है जहां के लिए पहले मनाही थी। 29 जुलाई को उन्होंने राज्य सभा में बताया कि 2015 से अब तक 172 हाइड्रोकार्बन खोज किए गए हैं, जिनमें से 62 समुद्र में हैं। हालांकि उन्होंने जो आंकड़े दिए, उनके हिसाब से सिर्फ 60 करोड़ बैरल का अतिरिक्त संभावित भंडार मिला है, जिसमें से कुछ ही निकाला जा सकता है। यह मात्रा बहुत कम है।
नए खुले क्षेत्रों में अभी तक पर्याप्त खोज नहीं हो पाई है क्योंकि भारत में खोज और उत्पादन को आकर्षक बनाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया गया है। असल समस्या यह है कि पुरी, उन लोगों के कारण बंधे हाथों से काम कर रहे हैं जो कर लगाने का काम देखते हैं, जिनके लिए तेल उद्योग सिर्फ राजस्व का एक स्रोत है और वे इससे लगातार पैसा निकालना चाहते हैं।
वर्ष 2022 में, तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) ने 2025 तक 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अन्वेषण करने का लक्ष्य रखा था। अब इस लक्ष्य को 2030 तक बढ़ा दिया गया है जबकि अभी तक सिर्फ 1.8 लाख वर्ग किलोमीटर में ही खोज हो पाई है! फरवरी 2025 में ओएनजीसी ने निवेशकों को बताया कि उसने 2024 में अन्वेषण से जुड़ी ड्रिलिंग पर करीब 10,000 करोड़ रुपये खर्च किए। लेकिन शायद उन्होंने यह नहीं बताया कि तेल उद्योग विकास उपकर के रूप में भी करीब 14,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए। 1970 के दशक से चला आ रहा यह उपकर, तेल उद्योग के विकास के लिए नहीं है बल्कि कई दशकों से यह सिर्फ वित्त मंत्रालय की तेल कंपनियों पर कर लगाने की अतृप्त इच्छा को पूरा कर रहा है। पिछले तीन साल में उपकर के रूप में हासिल लगभग 43,000 करोड़ रुपये से खोज गतिविधियों में बहुत अधिक बढ़ोतरी हो सकती थी।
भारत के घरेलू तेल उत्पादकों ने 2022-24 में ‘विंडफॉल टैक्स’ के रूप में भी उद्योग से निकाले गए करीब 45,000 करोड़ रुपये का एक बड़ा हिस्सा चुकाया। हालांकि नए निवेशों को कोई छूट नहीं मिली जैसा कि ब्रिटेन में हुआ। अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियों ने जिनके पास अन्य जगहों पर भी निवेश के अच्छे मौके थे, उन्होंने भी इंतजार करने की नीति अपनाई ताकि यह देखा जा सके कि नीतिगत सुधारों के साथ-साथ खोज के जोखिमों की वित्तीय भरपाई हो पाएगी या नहीं।
हालांकि, कुछ हाल के घटनाक्रमों से घरेलू उत्पादन में सुधार की उम्मीद जगी है। फरवरी में, ओएनजीसी ने भारत पेट्रोलियम (बीपी) के साथ एक तकनीकी सेवा प्रदाता के रूप में अनुबंध किया, ताकि मुंबई के पुराने तेल क्षेत्र से उत्पादन में 40 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी की जा सके। हाल ही में जारी किया गया पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस विनियम मसौदा, दूसरे पुराने क्षेत्रों में भी खोज को बढ़ावा दे सकता है।
ऊर्जा एजेंसी रिस्टैड ने बताया है कि कई देशों ने जोखिम भरी नई खोजों के बजाय लागत-प्रभावी ‘बुनियादी ढांचा आधारित खोज’ को प्राथमिकता दी है। भारत को दोनों की जरूरत है और इसलिए ओएनजीसी की बीपी और रिलायंस के साथ सौराष्ट्र के समुद्री तट पर एक संभावित ब्लॉक के अन्वेषण के लिए हाल में हुए एक और समझौते की घोषणा उत्साहजनक है।
पाकिस्तान के सिंधु घाटी से लेकर कच्छ/सौराष्ट्र तक फैले समुद्री क्षेत्र को संभावित तेल क्षेत्र माना जाता है, हालांकि अभी तक यहां व्यावसायिक स्तर पर कोई खोज नहीं हो पाई है। वर्ष 2024 में, कुछ संदिग्ध रिपोर्ट सामने आईं कि पाकिस्तानी जलक्षेत्र में तेल की बड़ी संभावना है जो एक अज्ञात ‘दोस्त देश’ के साथ किए गए लंबे सर्वेक्षणों पर आधारित थी जिसके बारे में माना जाता है कि यह देश तुर्किये है।
ट्रंप ने पाकिस्तान की क्षमता के बारे में कोई नया मूल्यांकन नहीं किया है। हालांकि, उनकी इस बात को महज अज्ञानता भरी बयानबाजी के रूप में नजरअंदाज करना हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा। इसके बजाय तेल की अधिक खोज करना ही हमें आगे ले जाएगा।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)