जब भी चुनाव नजदीक आते हैं तो दो सवाल जरूर पूछे जाते हैं। पहला सवाल यह पूछा जाता है कि भारत में हरित पार्टी या ग्रीन पार्टी कब गठित की जाएगी।
दूसरा सवाल यह होता है कि क्या पर्यावरण से संबध्द मुद्दे हमारे चुनाव में महत्त्वपूर्ण है? इन दोनो ही सवालों के जवाब न केवल एक-दूसरे से जुडे हुए हैं बल्कि वह भारत की चुनाव प्रणाली और पर्यावरण को लेकर उसकी चिंताओं से भी जुड़े हुए हैं।
तथ्य यह है कि हमारी संसदीय लोकतंत्र की संरचना र्फस्ट- पास्ट-द-पोस्ट (वेस्टमिंस्टर सिस्टम) पर आधारित है। इस शासन प्रणाली के अंतर्गत किसी भी संपूर्ण भारतीय मुद्दे को लेकर चलने वाली पार्टी को सफलता मिलना मुश्किल हो जाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जर्मनी में ग्रीन पार्टी का अस्तित्व है और उसने वहां गठबंधन सरकार भी बनाई है पर ब्रिटेन में ऐसा नहीं है।
कुछ साल पहले यूरोपीय संसद के चुनाव में ब्रिटेन की ग्रीन पार्टी को ठोस संख्या में मत मिले जिनकी संख्या जर्मनी की ग्रीन पार्टी से भी ज्यादा थी। पर इसके अलावा एक और मुद्दा यूरोप और अन्य देशों की ग्रीन पार्टी के लिए चिंता का विषय है। यह भी सच है कि मुख्यधारा की सभी पाटयों ने पर्यावरण से जुड़े हरित एजेंडे को अपना लिया है।
उदाहरण के लिए सभी पाटयां पर्यावरण को बचाने की आवश्यकता को महसूस करती हैं। वे यह मानती हैं कि पर्यावरण में हो रहे बदलाव को रोकने के लिए कार्बन एवं अन्य गैसों के प्रवाह में कटौती जरूरी है। साथ ही वे अक्षय ऊर्जा और विभिन्न ईंधनों का इस्तेमाल करने वाले हाइब्रिड वाहनों जैसी तकनीकों में पैसा निवेश करने की आवश्यकता को भी महसूस करती हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या ये पाटयां सही मायनों में अपनी अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसे संरचनात्मक बदलाव ला पाएंगी जो बदलते पर्यावरण को बचाने के लिए आवश्यक है। यह ग्रीन वाटरलू है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जर्मनी में ऐंजिला मर्केल की कंजर्वेटिव सरकार ने ग्रीन पार्टी एजेंडा को इस तरह अपनाया कि वहां ग्रीन पार्टी लगभग हाशिए पर चली गई।
अब जहां सरकार को पर्यावरण के संबंध में कडे क़दम उठाने की जरूरत है, वहीं नौकरियों में कटौती और आर्थिक मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था को संभालने की आवश्यकता भी है। पर अब सरकार की सच्चाई सामने आ रही है। मर्केल सरकार अपनी बातों से पीछे हट रही है। बड़ी कंपनियों को कार्बन गैस के प्रवाह में छूट देने से लेकर नए वाहनों में सब्सिडी देकर वह ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री को लाभ पहुंचाने तक का काम कर रही है।
ऑस्ट्रेलिया में भी बिल्कुल ऐसा ही है। वहां की सबसे बडी राजनीतिक पार्टी सत्ता में यह कहकर आई कि वह विपक्षी जॉन हावर्ड की सरकार पर्यावरण विरोधी नीतियों के खिलाफ है। और अब जब यह नई पार्टी सत्ता में है तो इसके पर्यावरण संबंधी कार्य पिछली सरकार से भी खराब और दयनीय हैं। जब अर्थव्यवस्था को सही अर्थ में बदलने की बात आती है तो अपने कहे गए शब्दों पर चलना बहुत मुश्किल होता है।
हालांकि यह निराशाजनक है लेकिन अगर बराक ओबामा अपने किए गए सारे वादों के उलट यह कह दें कि वह भी ज्यादा बदलाव नहीं ला सकते तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा। भारत में यह मुद्दा इसी तरह का है, हालांकि वह इन सबसे भिन्न है। सच यह है कि सभी बड़ी पाटयों ने हरित मुद्दे को अपने घोषणापत्र में शामिल कर लिया है।
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी जैसी सभी बडी पाटयां पर्यावरण बचाने, जल प्रदूषण को रोकने और कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था के लिए अक्षय ऊर्जा प्रणाली पर खर्च करने के वादे करती हैं।
यहां सवाल यह उठता है कि ये जो हरित मुद्दे हैं, क्या ये ऐसे मुख्य पर्यावरण के मुद्दे हैं, जिनका हमें निराकरण करना चाहिए और क्या विकास व अर्थव्यवस्था के मुद्दों पर विचार किए बगैर पर्यावरण के मुद्दों पर विचार किया जा सकता है। इन सबका सीधा संबंध भारत की पर्यावरण संबंधी चिंताओं से है। सच तो यह है कि हमारे देश में एक बडी आबादी प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर है।
जमीन, जंगल और पानी ही उनकी आजीविका के स्त्रोत हैं। पर्यावरण का केंद्रीय मुद्दा यह है कि इन प्राकृतिक संसाधनों की उत्पादकता में किस तरह से ऐसा सुधार लाया जाए जो हमेशा बना रहे। पर्यावरण का केंद्रीय मुद्दा यह भी सुनिश्चित करना है कि स्थानीय लोगों तक इसके लाभ किस तरह पहुंच सकें जो जीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था के निर्माण में मददगार हो सकें। यह गरीबों के संसाधनों में निवेश करने जैसा है।
यह ऐसे प्रशासन या राजनीतिक ढांचे से जुड़ा है जिसमें इस निवेश से आम लोगों को फायदा होगा और एक हरित भविष्य की रचना होगी। हमें नदियों के प्रदूषण को रोकने की जरूरत है क्योंकि लाखों लोग अपने पीने के पानी और अन्य आवश्यकताओं के लिए इन पर निर्भर हैं। हमें विकास की नीतियों पर फिर से विचार करने की जरूरत है।
ऐसी परियोजनाओं में जिन जंगलों और जमीन का उपयोग किया जाता है, उन पर लाखों लोग आश्रित होते हैं। आज हमें विकेंद्रीकृत जल या ऊर्जा प्रणाली की जरूरत है जिससे स्थानीय पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम किया जा सके और न केवल कुछ लोग बल्कि सभी लोगों के लिए यह संसाधन उपलब्ध हों।
पर यहीं आकर हमारी राजनीतिक पाटयों के घोषणापत्र एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। हरित मुद्दों पर बात करना तो आसान है, खासकर उन मुद्दो पर जिन्हें भारत का मध्यम वर्ग हरित मानता है। लेकिन बिंदुओं को आपस में मिलाना बहुत मुश्किल है।
यानी यह कठिन है कि वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों से समझौता किए बगैर देश अपनी अर्थव्यवस्था को कैसे हरित करेगा ताकि सभी को विकास का लाभ मिल सके। यही कारण है कि एक हरित पार्टी बनाना आसान है पर हरित क्रांति लाना मुश्किल।
