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Electoral Bonds: पारदर्शिता के लिए अदालती फैसले का स्वागत है

चुनावी बॉन्ड पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन भारत में भ्रष्टाचार अब भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। बता रहे हैं अजय छिब्बर

Last Updated- February 29, 2024 | 10:13 PM IST
पारदर्शिता के लिए अदालती फैसले का स्वागत है, Court decision welcomed for transparency

चुनावी बॉन्ड को रद्द करने का उच्चतम न्यायालय का निर्णय स्वागत योग्य है। चुनावी बॉन्ड को 2019 के आम चुनाव से ठीक पहले साल 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार ने शुरू किया था। इसने राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को, जिसे पहले रिश्वत के रूप में दिया जाता था, वैध और कानूनी बना दिया।

इसमें चंदा देने वाले या उसे हासिल करने वाले का नाम जाहिर नहीं किया जाता, केवल सरकारी क्षेत्र के भारतीय स्टेट बैंक के पास ही जानकारी होती है, इसलिए यह एक ऐसी अपारदर्शी व्यवस्था है जिसने सत्ता में रहने वाली पार्टी को फायदा पहुंचाया। इन बॉन्ड खरीद की जानकारी चुनाव आयोग को भी नहीं होती।

तो इस लाभ के लिए भुगतान योजना ने निश्चित रूप से ऐसी व्यवस्था बनाई जिसे महाभ्रष्टाचार कहा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने इस पर रोक लगा दी है। न्यायालय ने सरकार को यह भी निर्देश दिया है कि वह इस बात का पूरी तरह से खुलासा करे कि इस योजना में अभी तक किस पार्टी को कितना धन मिला है।

अब इसका आने वाले आम चुनाव की फंडिंग पर कोई असर पड़ेगा या नहीं यह देखने वाली बात होगी। लेकिन दीर्घकालिक स्तर के लिहाज से यह सवाल बना हुआ है: इसके विकल्प में अब क्या होगा?

क्या हम फिर उसी पुरानी व्यवस्था में लौट आएंगे जहां नोटों से भरे सूटकेस होते थे और सत्तारूढ़ दल अपने चुनाव अभियान के लिए धन जुटाने के लिए बड़े-बड़े घोटाले करते थे?

या क्या भारत कोई ऐसी प्रणाली विकसित कर सकता है जो न केवल चुनावों से जुड़े भ्रष्टाचार से निपट सके बल्कि आम भ्रष्टाचार से भी, जो कि हमारी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के लिए अभिशाप बना हुआ है?

सरकार ने एक श्वेतपत्र जारी कर यह दिखाने की कोशिश की कि पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार भ्रष्टाचार में डूबी थी। मौजूदा सरकार ‘अधिकतम शासन और न्यूनतम सरकार’ के नाम पर भ्रष्टाचार और रिसाव को कम करने का दावा करती है।

इसमें कोई शंका नहीं कि पिछली संप्रग सरकार भ्रष्टाचार से ग्रसित थी। यहां तक कि अगर उसके कार्यकाल में हुए घोटाले के ऐसे कई दावों को बदनाम करने वाला और गलत मान लें, जैसा कि दूरसंचार घोटाले में हुआ जब तत्कालीन नियंत्रक एवं लेखापरीक्षक विनोद राय ने घोटाले की राशि को लेकर बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़े पेश किए थे, तो भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि संप्रग शासन में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा था।

अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार (राजग) का दावा है कि उसने भ्रष्टाचार को काफी हद तक कम कर दिया है। भ्रष्टाचार को आकने वाली प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनैशनल यह दर्शाती है कि राजग के सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचार के मामले में भारत का स्कोर सुधरा है। टीआई का भ्रष्टाचार स्कोर, जो 0 से 100 के पैमाने पर (जहां 100 का मतलब है बिल्कुल भ्रष्टाचार नहीं) कारोबारियों और विशेषज्ञों की धारणा पर आधारित है, साल 2013 के 36 से सुधरकर 2018 में 41 पर पहुंच गया।

लेकिन यह फिर साल 2013 में नीचे खिसककर 39 पर पहुंचा और वैश्विक औसत 43 से भी नीचे हो गया। जी20 के कई मध्यम आय वाले देशों जैसे कि ब्राजील, मैक्सिको, इंडोनेशिया और तुर्की के मुकाबले भारत ने इस पैमाने पर बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन चीन और वियतनाम से नीचे है। दुनिया में भारत का टीआई भ्रष्टाचार रैंक साल 2013 के 94वें से सुधरकर साल 2018 में 78वें तक पहुंच गया, लेकिन इसके बाद यह फिर गिरकर 180 देशों में 93वें स्थान तक पहुंच गया। राजग जब सत्ता में आया तो शुरुआती दौर में भ्रष्टाचार में गिरावट आई, लेकिन यह फायदा अब कुछ हद तक पलट हो चुका है।

कारोबारियों और विशेषज्ञों की धारणाओं के अलावा आम आदमी के नजरिये पर विचार करना भी जरूरी है। राजग सरकार का दावा है कि विभिन्न सेवाओं की बेहतर आपूर्ति और नागरिकों तक सब्सिडी की सीधी पहुंच की वजह से भ्रष्टाचार कम हुआ है, जिसमें लाभ का एक हिस्सा खा जाने वाले मध्यस्थ नहीं हैं। इसका कहना है कि आधार प्रमाणीकरण के साथ ई-सेवाओं के व्यापक उपयोग ने रिसाव और भ्रष्टाचार को कम से कम किया है। ऐसे कई दावे सही हो सकते हैं, लेकिन आम आदमी अब भी व्यापक तौर पर फैले छोटे-मोटे भ्रष्टाचार की शिकायत करता है।

आपको राशन कार्ड बनवाना हो, किसी दस्तावेज का पंजीकरण कराना हो, या कोई कर भुगतान करना हो, दाएं-बाएं से कुछ न कुछ पैसा देना ही पड़ता है। ट्रांसपैरेंसी इंटरनैशनल के एक वैश्विक सर्वेक्षण में इसकी पुष्टि हुई है, जिससे यह खुलासा होता है कि साल 2020 में नागरिकों के रिश्वत देने के मामले में एशिया में भारत की रैंकिंग सबसे खराब है। करीब 39 फीसदी लोगों ने यह शिकायत की है कि जब भी उनका साबका किसी अधिकारी से पड़ा उन्हें रिश्वत देनी पड़ी और इस मामले में भारत की स्थिति बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका जैसे दक्षिण एशियाई देशों से काफी बदतर है।

भारत में भ्रष्टाचार एक जीवनपद्धति बन गई है। न्यायपालिका और पुलिस में भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर है और अक्सर सड़कों पर और अदालती कार्यालयों में इसे साफतौर से देखा जा सकता है, तथा अमीरों की तुलना में गरीब अधिक पीड़ित होते हैं। हालांकि समय के साथ कई देशों ने भ्रष्टाचार को कम किया है तो भारत को भी करना चाहिए।

आगे का रास्ता ज्यादा पारदर्शिता की मांग करता है, अफसरों की मनमानी कम से कम हो और सेवाओं की उपलब्धता में ज्यादा प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया जाए। भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत कार्रवाई भी समाधान का एक हिस्सा है, लेकिन तभी जब इस्तेमाल चुनिंदा तरीके से न हो और ऐसा न लगे कि यह एक राजनीतिक साधन है।

टैक्स इंस्पेक्टर राज के दौर को अब खत्म करना ही होगा। कई देशों ने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए भ्रष्टाचार आयोगों का इस्तेमाल किया है, लेकिन उनका प्रदर्शन मिलाजुला रहा है। तो यह साफ है नोटबंदी या चुनावी बॉन्ड जैसे तंत्र के माध्यम से भ्रष्टाचार के वैधीकरण जैसे कठोर एकबारगी उपाय टिकाऊ समाधान नहीं हैं। इसकी जगह सरकारी प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और अनजाने में भ्रष्टाचार में योगदान देने वाले कानूनों के जाल को सुलझाने के लिए एक अधिक व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय को निचले स्तरों पर भ्रष्ट न्यायिक प्रणाली के सुधार को प्राथमिकता देने पर भी विचार करना चाहिए, जिसका वह प्रमुख है। स्वच्छ भारत का मतलब केवल सड़कों और शौचालयों को साफ करना नहीं है, इसमें एक स्वच्छ और अधिक पारदर्शी शासन प्रणाली भी शामिल होनी चाहिए।

(लेखक जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)

First Published - February 29, 2024 | 10:13 PM IST

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