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रिजर्व बैंक के लक्ष्यों में दिख रहा विरोधाभास

अगर हमें समझना है कि यह कैसे हुआ तो मौद्रिक नीति, मुद्रा प्रबंधन और तरलता यानी नकदी के बीच संबंधों की पड़ताल करनी होगी।

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राजेश्वरी सेनगुप्ता   
Last Updated- February 23, 2025 | 9:51 PM IST

गत वर्ष नवंबर से भारतीय रिजर्व बैंक ने डॉलर के मुकाबले रुपये को कमजोर होने दिया है। इसके साथ ही उसने करीब दो सालों से रुपये को मिल रहा सहारा भी खत्म कर दिया। लेकिन विदेशी विनिमय बाजार में उसका हस्तक्षेप जारी रहा है ताकि रुपये को एक हद से नीचे नहीं गिरने दिया जाए। इसी वजह से उभरते हुए एशियाई देशों में यह सबसे कम उतार-चढ़ाव वाली मुद्रा रहा, जिसमें केवल 3 फीसदी गिरावट आई। किंतु इससे उस समय मौद्रिक नीति पर दबाव पड़ा है और नकदी की स्थिति तंग हुई है, जब अर्थव्यवस्था कमजोर है और सहारा तलाश रही है। अगर हमें समझना है कि यह कैसे हुआ तो मौद्रिक नीति, मुद्रा प्रबंधन और तरलता यानी नकदी के बीच संबंधों की पड़ताल करनी होगी। 

रुपया तब गिरता या डॉलर तब चढ़ता है, जब विदेशी मुद्रा बाजारों में उतने डॉलर नहीं पहुंचते, जितने की मांग होती है। मिसाल के तौर पर जब भारत की वृद्धि की संभावना कमजोर होने से पूंजी की आवक भी घट जाती है। इससे निपटने के लिए रिजर्व बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर बेच सकता है। इससे रुपये की गिरावट थम जाती है या कम हो जाती है।

किंतु केंद्रीय बैंक डॉलर मुफ्त में नहीं देता बल्कि रुपये लेकर बेचता है। इससे प्रणाली में से रुपये निकल जाते हैं और मौद्रिक हालात तंग हो जाते हैं। रिजर्व बैंक इस तरह का लेनदेन बैंकों के साथ करता है। जब कोई व्यक्ति बैंक से 1 लाख रुपये के डॉलर मांगता है तो बैंक विदेशी मुद्रा बाजार में जाकर डॉलर बचने वाले को तलाशता है और उसे खरीदार से मिलवा देता है। 

इस मामले में बैंक बिचौलिये की तरह काम करता है और डॉलर की खरीद कीमत और बिक्री कीमत के बीच का अंतर उसका मुनाफा होता है। लेकिन जब कोई बैंक रिजर्व बैंक से डॉलर लेता है तो तरीका बदल जाता है। बैंक को डॉलर के लिए 1 लाख रुपये चुकाने ही होते हैं मगर उसकी संपत्तियां आम तौर पर कर्ज और सरकारी बॉन्डों की शक्ल में होती हैं। बैंक जमा का छोटा सा हिस्सा नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) की शर्त के कारण रिजर्व बैंक के पास रखा रहता है। जब केंद्रीय बैंक डॉलर बेचता है तो बैंक यही सीआरआर उसे देते हैं। इसका मतलब है कि जब बैंक रिजर्व बैंक से भारी संख्या में डॉलर खरीदते हैं तो रिजर्व बैंक के पास रखी उनकी नकदी कम पड़ सकती है।

यही हो रहा है। पिछले कुछ साल में बैंकिंग प्रणाली के पास नकदी का अच्छा अधिशेष रहा है। लेकिन पिछले कुछ महीनों में रिजर्व बैंक ने भारी संख्या में डॉलर बेचा, जिससे उसके विदेशी मुद्रा भंडार में तेजी से कमी आई है। पिछले साल सितंबर में यह भंडार 704 अरब डॉलर था, जो इस साल जनवरी में घटकर केवल 630 अरब डॉलर रह गया। नतीजा यह हुआ कि देश की बैंकिंग प्रणाली में भी नकदी कम हो गई और यह कमी अब 1-2 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई है।

इसे दूर करने के लिए रिजर्व बैंक ने दो तरीके अपनाए हैं। वह बैंकों को रोजाना कर्ज देता रहा है। उसने खुले बाजार में भी खरीद भी बार-बार की है, जिसमें वह बैंकों से सरकारी बॉन्ड खरीदता है ताकि रिजर्व बैंक के पास उनकी जमा रकम की भरपाई हो सके। इन कदमों के जरिये बैंकों के पास उनके कामकाज के लिए जरूरी रकम बनी रहती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विदेशी मुद्रा में रिजर्व बैंक के दखल के कोई नतीजने नहीं होते।

ओवरनाइट इंटरबैंक बाजार में उधार लेने की जो लागत बैंक को चुकानी पड़ती है उसे वेटेड एवरेज कॉल रेट (डब्ल्यूएसीआर) कहते हैं। जब बैंकों के पास अधिशेष नकदी होती है तो डब्ल्यूएसीआर रीपो दर से नीचे जाता है, जिससे अंतर या स्प्रेड ऋणात्मक (नेगेटिव) हो जाता है। किंतु नकदी की किल्लत होने पर पिछले साल नवंबर से यह अंतर धनात्मक (पॉजिटिव) है। इससे संकेत मिलता है कि नकदी की कमी झेल रहे बैंकों को जरूरी रकम जुटाने में संघर्ष करना पड़ रहा है। यह मायने रखता है क्योंकि रिजर्व बैंक ने अब संकेत दिया है कि मौद्रिक हालात को शिथिल किया जा सकता है। उसने 7 फरवरी को रीपो दर घटाई थी, जिसके लिए मुद्रास्फीति के दबाव में कमी और वृद्धि में धीमेपन को वजह बताया गया था। 

लेकिन कटौती के कुछ ही दिन बाद उसने विदेशी मुद्रा बाजार में बड़ा हस्तक्षेप करके रुपये की गिरावट थामी। हालांकि विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप की जानकारी कुछ समय बाद जारी की जाती है मगर जो प्रमाण मौजूद हैं उनसे लगता है कि रिजर्व बैंक ने केवल दो दिन में 7 अरब से 11 अरब डॉलर बेच डाले। इससे मौद्रिक हालात सख्त हुए और डब्ल्यूएसीआर बढ़ गई। कुल मिलाकर केंद्रीय बैंक मिले जुले संकेत भेजता रहा है। क्या वह मौद्रिक हालात सहज बनाने के लिए वाकई प्रतिबद्ध है? उसके कदमों से तो यह पता करना मुश्किल है।

बैंकों के लिए संकेत साफ है: जब तक रिजर्व बैंक नकदी की किल्लत रखेगा और बैंकों के बीच ऋण की स्थिति भी बिगड़ी रहेगी तब तक वे अपनी ब्याज दरें घटाने से हिचकेंगे। इस अनिच्छा का मतलब है कि रिजर्व बैंक की रीपो दर कटौती का असर बाकी अर्थव्यवस्था तक नहीं पहुंचेगा और मौद्रिक प्रोत्साहन का कोई लाभ नहीं होगा। 

संक्षेप में कहें तो विनिमय दर संभालने की रिजर्व बैंक की रणनीति उसकी मौद्रिक नीति का असर कम कर रही है। कानून के अनुसार रिजर्व बैंक का प्राथमिक लक्ष्य है मूल्य स्थिर रखना और वृद्धि का प्रयास करना। इसमें विनिमय दर प्रबंधन शामिल नहीं है। अब वक्त आ गया है कि केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति एवं वृद्धि पर ध्यान दे और विनिमय दर को बुनियादी कारकों के हिसाब से चलने दे। 

First Published : February 23, 2025 | 9:51 PM IST