सरकार ने कुछ सप्ताह पहले उन देशों से भारत में होने वाले निवेश पर निगरानी बढ़ा दी थी जिनकी सीमाएं भारत के साथ मिलती हैं। यह कदम उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवद्र्धन विभाग की ओर से जारी एक नोट के माध्यम से उठाया गया था। इसके तहत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति में बदलाव किया गया ताकि भारतीय कंपनियों के ‘अवसरवादी’ अधिग्रहण को रोका जा सके। बहरहाल इस नोट से उपजे कई अन्य बड़े मुद्दे भी हैं जिन्हें यथाशीघ्र स्पष्ट किया जाना आवश्यक है। यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो भारतीय रिजर्व बैंक अथवा भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड जैसे नियामकों को इन्हें स्पष्ट करना होगा। इस विषय पर अनिश्चितता से वे तमाम लाभ गंवाए जा सकते हैं जो भारत ने 2019-20 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करके अर्जित किए हैं।
इस विषय में सरकार के इरादे को लेकर कोई संशय नहीं है। सबसे बड़ी चिंता यही है कि चीन इस महामारी के कारण उपजी परिस्थितियों का लाभ लेकर भारत में अस्थायी रूप से अवमूल्यित परिसंपत्तियों को खरीदने का प्रयास कर सकता है। इस बात से सभी अवगत हैं कि चीन की पूंजी वहां की सरकार से सीधा जुड़ाव रखती है। इसके नकारात्मक सामरिक निहितार्थ हो सकते हैं और इसलिए ऐसे निवेश की निगरानी आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे चीन की सरकार या कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधित नहीं हैं। इस कदम का आशय एकदम स्पष्ट और उचित है लेकिन इसका क्रियान्वयन भी स्पष्ट होना चाहिए और इस दौरान तयशुदा नियमों का पालन होना चाहिए। जहां तक मौजूदा परिस्थितियों की बात है, ऐसे नियमों का अभाव होने के कारण व्यक्तिगत स्तर पर निर्णय लेने वाले अपने हिसाब से इसकी बेहतर से बेहतर व्याख्या करने का प्रयास कर रहे हैं। इससे भ्रम और अस्पष्टता पैदा हो रही है।
यह भ्रम दो स्तरों पर है। पहला यह कि स्वामित्व को चीनी घोषित करने के लिए आखिर किस स्तर के नियंत्रण को लाभकारी स्वामित्व वाला माना जाए? आधुनिक वित्तीय जगत में पूंजी के कुछ ही ऐसे पूल हैं जिनका स्वामित्व स्पष्ट है। ऐसे में यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि आखिर किसी देश की स्वामित्व हिस्सेदारी कितनी है। परंतु नियम यहां कुछ भी स्पष्ट नहीं करते और यही कारण है कि ऐसे अधिग्रहण के लिए जरूरी पूंजी से निपटने वाले बैंक अपने स्तर पर मानक तय कर रहे हैं। जैसा कि इस समाचार पत्र ने पहले भी लिखा है उनके मानक एक प्रतिशत चीनी पूंजी से 25 प्रतिशत चीनी पूंजी तक अलग-अलग हैं। ऐसी भ्रामक स्थिति निवेश को हतोत्साहित करती है और इसके अलावा नई जरूरतों को लेकर इरादे भी कमजोर पड़ते हैं क्योंकि निवेशक तब तक प्रयास करते रह सकते हैं जब तक उन्हें कोई उपयुक्त सौदा हाथ नहीं लगता। अगर सरकार विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम के क्रियान्वयन से जुड़े नियमों में समुचित बदलाव करके लाभकारी स्वामी शब्द को भलीभांति परिभाषित नहीं करती तो ऐसी दिक्कत आती रहेगी।
ऐसा भी नहीं है कि नई व्यवस्था से उपजा यह इकलौता भ्रम हो। उदाहरण के लिए बाजार प्रतिभागियों को यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि कौन सी कंपनियां जमीनी सीमा वाले प्रावधान के दायरे में आती हैं। यदि हॉन्गकॉन्ग विशेष स्वायत्त क्षेत्र को इस नई व्यवस्था में शामिल किया जाए तो एक बात है लेकिन ताइवान को इन नियमों के दायरे में लेना विचित्र है। इस बात को लेकर भी भ्रम है कि आखिर नए निवेश से क्या तात्पर्य है क्योंकि कुछ निवेश पूर्व प्रतिबद्धता वाले हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं हो सका था। सरकार से आशा थी कि कुछ वह कुछ सप्ताह पहले ही इन बातों को स्पष्ट कर देगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। यदि सरकार चाहती है कि विदेशी निवेश प्रभावित नहीं हो तो उसे इस पर तेजी से कदम उठाना चाहिए।
