वर्ष 2025 में वृहद आर्थिक मोर्चे पर भारत की प्राथमिकताएं पहले ही तय हो गई हैं। सबसे पहले, अमेरिका में तेज वृद्धि ने दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के लिए वित्तीय हालात कठिन बना दिए हैं। चुनौतियों को धता बताने वाली अमेरिकी वृद्धि न केवल दूसरे देशों की वृद्धि से तेज है बल्कि इसने मुद्रास्फीति को घटाने का लक्ष्य भी मुश्किल कर दिया है। पहले बाजार को उम्मीद थी कि अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व 2025 में पांच बार ब्याज दर घटाएगा मगर अब ऐसा होता नहीं दिख रहा। इसलिए 10 साल में परिपक्व होने वाले अमेरिकी बॉन्ड पर यील्ड सितंबर से 100 आधार अंक बढ़ चुकी है और डॉलर सूचकांक भी 20 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचने जा रहा है। डॉलर में मजबूती से तेजी से उभरते बाजारों की मुद्राएं दबाव में हैं और भारतीय रुपया भी अछूता नहीं रहा है।
दूसरी बात, डॉनल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने से दुनिया में हालात और भी कठिन हो गए हैं। अमेरिका शुल्क लगाएगा तो वैश्विक अनिश्चितताएं बढ़ेंगी और वैश्विक पूंजीगत व्यय तथा वृद्धि उसी तरह घटेंगी, जैसा पहले व्यापार युद्ध के दौरान हुआ था। इससे डॉलर भी मजबूत होगा। इस बीच चीन पर सख्ती हुई तो वह अपनी अतिरिक्त क्षमता को भारत समेत दूसरे देशों में भेजेगा, जिससे इन अर्थव्यवस्थाओं में विनिर्माण को खतरा हो जाएगा।
सवाल यह है कि ट्रंप का दूसरा कार्यकाल अमेरिका को कमजोर वैश्विक आर्थिक माहौल में भी तेजी से बढ़ाता रहेगा या सुस्त कर देगा। व्यापार में सख्ती हुई तो वैश्विक वृद्धि मंद होगी मगर राजकोषीय उदारता और नियमों में ढिलाई के कारण क्या अमेरिका इससे बचा रहेगा? उभरते बाजारों के लिए यह यानी कमजोर वैश्विक आर्थिक वृद्धि के साथ मजबूत डॉलर और अमेरिकी बॉन्ड यील्ड सबसे बड़ी चुनौती होगी।
इधर पिछली कुछ तिमाहियों से भारत की आर्थिक वृद्धि दर नरम पड़ गई है। निजी क्षेत्र में मांग के लिए शहरी खपत ही रीढ़ का काम करती थी मगर अब हालात बदल गए हैं। कोविड महामारी में हुई बचत लोग खपा चुके हैं। औपचारिक क्षेत्र में वेतन वृद्धि धीमी हो गई है और उपभोग के लिए कर्ज देने में सख्ती बरती जा रही है।
ग्रामीण क्षेत्रों में खपत बढ़ तो रही है मगर रफ्तार धीमी है और कोविड महामारी के दौरान सरकार ने सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के जो उपाय किए थे उनकी सीमाएं भी आड़े आ रही हैं। निजी क्षेत्र मांग की तस्वीर साफ होने का इंतजार कर रहा है और अगर चीन से अतिरिक्त माल भारत आने लगा तो उनका उत्साह बिल्कुल ठंडा पड़ जाएगा। इसलिए सुस्ती इस साल सरकारी व्यय में धीमी शुरुआत तक ही सीमित नहीं है।
भारत के लिए नीतिगत स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती यह है कि दुनिया में कमजोर दिखे बगैर देश में आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए क्या रणनीति अपनाई जाए। सबसे पहले, रुपया कमजोर बना रहे तो इसे संभालने के लिए ब्याज दरों का सहारा बिल्कुल नहीं लिया जाए। मुद्रास्फीति नियंत्रण के लिए लचीली नीति तैयार करने और विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने का मुख्य मकसद नीतिगत स्तर पर दो उपाय करना था। इनमें नीतिगत दरें और तरलता देसी वृद्धि तथा महंगाई की चाल को संभालती हैं और रुपया विदेश से आ रहे झटके झेलता है। रुपये में बड़ी उथल-पुथल रोकने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार की ढाल भी रहती है।
पिछले एक दशक से भारत के लिए यह रणनीति कारगर रही है। भारी विदेशी मुद्रा भंडार से भारतीय अर्थव्यवस्था मौद्रिक नीति के स्तर पर कुछ हद तक आत्मनिर्भर बन पाई है। इसीलिए पिछले कुछ वर्षों में भारत और अमेरिका में नीतिगत दरों के बीच फर्क बहुत कम हुआ है। इस बीच मुद्रास्फीति को साधने के प्रयासों को स्वीकार्यता तथा विश्वसनीयता मिलने से मौद्रिक नीति के भी हाथ खुल गए हैं।
अब इस नीति को रुपया संभालने के लिए इस्तेमाल करना नुकसानदेह हो जाएगा क्योंकि भारतीय और अमेरिकी बाजारों में कारोबारी दिशाएं काफी अलग हैं और देश में राजकोषीय उपायों की गुंजाइश कम रह गई है। साथ ही रुपये को जबरदस्ती ऊंचा रखा गया तो दुनिया में होड़ करने की क्षमता घटेगी, जिससे मौद्रिक हालात और सख्त हो सकते हैं।
इसके बजाय नीतिगत दरों और नकदी को देसी मुद्रास्फीति के अनुरूप किया जाना चाहिए। मौद्रिक नीति पर विनिमय दर का असर वहीं तक मायने रखता है, जहां इसमें उठापटक से मुद्रास्फीति प्रभावित होती है। खाद्य मुद्रास्फीति के मोर्चे पर कुछ राहत दिख रही है। खाद्य वस्तुओं की कीमतें कम हो रही हैं और खरीफ एवं रबी फसलों से इसमें और कमी आनी चाहिए। इसलिए उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति दर आने वाले महीनों में 4 प्रतिशत पर टिक सकती है। कमजोर रुपया इसमें इजाफा कर सकता है मगर वह मामूली होगा क्योंकि मांग पहले ही सुस्त है।
इसलिए उत्पादन लागत बढ़ने की कुछ चोट कंपनियां खुद ही झेल लेंगी। इधर प्रमुख मुद्रास्फीति दर लगातार 3-4 प्रतिशत दायरे में बनी हुई है, जिससे लगता है कि अर्थव्यवस्था सभी उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल पूरी क्षमता के साथ नहीं कर पा रही है। इन हालात में सुस्त होती वृद्धि दर को देखते हुए मौद्रिक नीति में मौजूद लचीलेपन का फायदा उठाकर नीतिगत दरों में धीरे-धीरे कमी हो और वृद्धि को सहारा मिले। मगर नरमी का फायदा तभी होगा, जब बैंकिंग तंत्र में नकदी की कमी (हाल के महीनों में बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा भंडार के इस्तेमाल के कारण) भी पूरी की जाए।
इस बीच रुपये को इसकी बुनियादी मजबूती के अनुरूप स्थिर होने दिया जाए और विदेशी मुद्रा भंडार का औचित्यपूर्ण इस्तेमाल ही किया जाए। इस समय डॉलर चढ़ रहा है और अमेरिकी शुल्कों के बाद चीन की मुद्रा युआन लुढ़क सकती है इसलिए रुपये को किसी खास स्तर पर रोकना न तो संभव है और न ही वांछनीय। रोकना संभव इसलिए नहीं है क्योंकि विशाल विदेशी मुद्रा भंडार होने पर भी भारत को उसका इस्तेमाल समझदारी से करना होगा क्योंकि शुल्क की लड़ई लंबी चल सकती है। इसकी जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि रुपये की प्रतिस्पर्द्धा करने की क्षमता घटी तो वृद्धि और सुस्त हो जाएगी। हम देख चुके हैं कि कमजोर रुपया भारत में आर्थिक गतिविधियां तेज करता है। इसके अलावा भारत पर अमेरिका ने शुल्क लगाए तो उनका असर कम करने के लिए रुपये में गिरावट ही सबसे उचित और सटीक प्रतिक्रिया होगी।
राजकोषीय नीति में गुंजाइश और भी कम है। पिछले दो साल में नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) एक अंक में बढ़ा है, इसलिए सार्वजनिक ऋण एवं जीडीपी अनुपात फिर बढ़ना शुरू हो गया है। भावी झटकों के लिए राजकोषीय गुंजाइश तैयार करने के इरादे से पहले ऋण अनुपात स्थिर करना होगा और फिर इसमें कमी लानी होगी। इसके लिए खजाने को आने वाले वर्षों में आज से ज्यादा मजबूत बनाना जरूरी होगा। मगर यह भी जरूरी है कि राजस्व एवं व्यय में दिखने वाले अंतर को खजाने की मजबूती नहीं माना जाए। आर्थिक वृद्धि सुस्त पड़ने पर राजकोषीय मजबूती की गति भी धीमी ही हो ताकि राजकोषीय नीति वृद्धि के चक्र के मुताबिक बदलने वाली न बन जाए।
पहली नजर में तो दरें घटाना और राजकोषीय मजबूती की रफ्तार धीमी करना उन पुराने तरीकों से अलग है, जो ऐसे प्रतिकूल वैश्विक माहौल में अपनाए जाते हैं। मगर विदेशी मुद्रा भंडार और मौद्रिक ढांचा यहीं काम आते हैं। भारत में राजकोषीय एवं मौद्रिक नीतियां एक विश्वसनीय ढांचे के अंतर्गत काम करती रही हैं। इनकी मदद से हाल के वर्षों में आर्थिक विकास की उम्मीदें को मजबूती मिली है और जोखिम कम हुए हैं। इनकी बदौलत नीति निर्धारकों को सुस्त आर्थिक वृद्धि दर के दौरान संतुलन बनाए रखने में आसानी होती है।
बेशक वृद्धि के लिए असली दवा लगातार ढांचागत सुधार ही होते हैं। इनसे आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तेज होती है और रोजगार के अवसर पैदा होते हैं, जिनके फायदे बड़े वर्ग को मिलते हैं। भारत के लिए यह दौर अनोखा अवसर लेकर आया है। देश के बाहर की बात करें तो अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध हुआ तो कंपनियां कारोबार के लिए दूसरे सुरक्षित देशों की तलाश तेज कर देंगी। भारत को ऐसे मौकों का इंतजार करना चाहिए और इनका फायदा उठाने के लिए पूरी तरह तैयार रहना चाहिए। देश के भीतर मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का यह पहला पूर्ण बजट होगा, जिसमें उसे अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने और सुधारों को दोगुनी रफ्तार से लागू करने का मौका मिलेगा ताकि दुनिया भर की नजरें भारत पर टिकें।
भारत का आर्थिक इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि संकट हमेशा इसके लिए नए अवसर लेकर आए हैं। व्यापार युद्ध होने, वैश्वीकरण का दायरा सिमटने और आर्थिक बाल्कनीकरण (बड़ी आर्थिक व्यवस्था टूटकर नई छोटी व्यवस्था बनना) से वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने जो संकट पैदा होगा वह लंबा चलेगा और भारत को उसमें अपने लिए अवसर तलाशने का अवश्य प्रयास करना चाहिए।
(लेखक जे पी मॉर्गन में एशिया इकनॉमिक रिसर्च के प्रमुख हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)