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आखिरकार कामयाब हुए केंद्रीय बैंक…

कोई केंद्रीय बैंक नहीं चाहता कि उसे बाद में सख्ती बरतने से पहले आरंभ में ही नीतियां शिथिल करनी पड़े। इन अनिश्चितताओं के बीच सही नीतिगत निर्णय लेना हमेशा चुनौती होगा।

Last Updated- November 11, 2024 | 10:24 PM IST
As global central banks consider rateब्याज दरों में कटौती पर ग्लोबल केंद्रीय बैंकों के बीच झिझक, बढ़ती जा रही महंगाई की चिंता , cuts, inflation worries loom

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के ताजा आर्थिक पूर्वानुमान के अनुसार वर्ष 2024 और 2025 में विश्व अर्थव्यवस्था 3.2 फीसदी की गति से विकसित होगी। यह 3.6 फीसदी की उस वृद्धि दर से भी कम है जो 2006 से 2015 के बीच देखने को मिली। इसके बावजूद वृद्धि अनुमानों को लेकर राहत देखी जा सकती है।

राहत इसलिए है कि वैश्विक मुद्रास्फीति के रिकॉर्ड स्तर के विरुद्ध जंग जीती जा चुकी है, कम से कम आईएमएफ का तो यही कहना है। इस दौरान वृद्धि को भी ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा। वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंदी में गए बिना ही वैश्विक मुद्रास्फीति में कमी आ रही है।

कोविड के बाद मुद्रास्फीति को लेकर केंद्रीय बैंकों के रुख के आलोचक रहे टीकाकार गलत साबित हुए हैं। वर्ष 2022 की तीसरी तिमाही में वैश्विक मुद्रास्फीति 9.4 फीसदी के साथ सालाना आधार पर उच्चतम स्तर पर रही।

अमेरिका में जून 2022 में यह 9.1 फीसदी पर पहुंच गई थी। तब से मुद्रास्फीति की दर में लगातार गिरावट आई है। अब अनुमान है कि 2025 के अंत तक वैश्विक स्तर पर हेडलाइन मुद्रास्फीति 2000 से 2019 के बीच के 3.6 फीसदी के औसत स्तर से नीचे आ जाएगी।

कोविड-19 के बाद मुद्रास्फीति में इजाफा शुरू हुआ और केंद्रीय बैंकों की समय-समय पर आलोचना की गई कि वे देर से और सख्ती बरत रहे हैं। चूंकि वे बैंक प्रतिक्रिया देर से दे रहे थे इसलिए आलोचकों ने कहा कि सख्ती को आक्रामक रखना पड़ा। उन्हें मुद्रास्फीति में धीमापन आने पर मौद्रिक नीति शिथिल करने में देरी बरतने के लिए भी जिम्मेदार ठहराया गया। क्या उन्होंने कुछ अलग किया? चूंकि केंद्रीय बैंकों के कदम मोटे तौर पर सुसंगत थे इसलिए आइए अमेरिकी फेडरल रिजर्व के कदमों पर ध्यान देते हैं।

महामारी के कारण आपूर्ति क्षेत्र को झटके लगे और मांग को भी। मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों की मदद से मांग बढ़ाने के प्रयास एकदम उचित थे। विस्तारवादी नीतियों के कारण अमेरिका में मुद्रास्फीति बढ़ी और मार्च 2021 में वह दो फीसदी की लक्षित दर से ऊपर निकल गई। महामारी के कारण लगे प्रतिबंधों को 2021 की दूसरी छमाही तक समाप्त कर दिया गया।

उत्पादकों ने पाया कि आपूर्ति क्षेत्र की बाधाओं के कारण उत्पादन एकदम से बढ़ाना मुश्किल है। मांग आपूर्ति से अधिक हो गई और अमेरिका में मुद्रास्फीति बढ़ गई। अनुमान लगाया जा रहा था कि आपूर्ति गतिरोध दूर होने पर मुद्रास्फीति नियंत्रण में आ जाएगी। परंतु फेड से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह महामारी के बढ़ने के दौरान मौद्रिक नीति सख्त करेगा।

दिसंबर 2021 तक अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर 7 फीसदी हो गई। 2022 के आरंभ में जब केंद्रीय बैंक नीतिगत सख्ती की तैयारी कर रहे थे तब एक और झटका लगा। फरवरी 2022 में यूक्रेन में लड़ाई छिड़ गई। तेल कीमतें तेजी से बढ़ीं और अमेरिका में मुद्रास्फीति उसी महीने 7.9 फीसदी हो गई। 2022 के मध्य तक वैश्विक मुद्रास्फीति महामारी पूर्व स्तर के तीन गुना हो गई।

फेड ने मार्च 2022 के मध्य से सख्ती बरतनी शुरू की और नीतिगत दर में 25 आधार अंकों का इजाफा कर दिया। जून 2022 तक वहां नीतिगत दर 150 आधार अंक बढ़ गई। जुलाई 2023 तक दरों में पांच प्रतिशत से अधिक का इजाफा हो गया। क्या फेड और अन्य केंद्रीय बैंकों को यूक्रेन में छिड़ी लड़ाई के चलते पहले ही सख्ती बरतनी थी।

इसका संक्षिप्त उत्तर है कि ऐसे मामलों में केंद्रीय बैंक की प्रतिक्रिया तत्काल ही दिख सकती है। क्या किसी ने कल्पना की होगी कि यूक्रेन में लड़ाई दो साल से अधिक समय तक चलेगी? और इसके बावजूद तेल कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल के नीचे रहेंगी। इसकी वजह है यूरोपीय संघ और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन के देशों द्वारा रूस से तेल आयात की कीमत निर्धारित करना। कितनी मौद्रिक सख्ती बरती जा सकती है और किस गति से ऐसा किया जा सकता है इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।

मान लेते हैं कि फेड पहले सख्ती बरत देता तब क्या होता? आईएमएफ के पूर्वानुमान में एक मॉडल की मदद से ऐसे तीन संभावित निष्कर्षों की बात की गई जो तब सामने आते जब फेड तीन तिमाही पहले सख्ती लागू कर देता। उसके मुताबिक शीर्ष मुद्रास्फीति तब पर्यवेक्षित से दो फीसदी कम होती। बहरहाल वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 0.2 फीसदी कम रहता। उसके मुताबिक फेड ने सही समय पर कदम उठाया।

अमेरिका में मुद्रास्फीति मार्च 2023 तक पांच फीसदी से ऊपर रही। यहां तक कि गत सितंबर में भी यह दो फीसदी के लक्ष्य से ऊपर थी। माना जाता है कि जब मुद्रास्फीति लंबे समय तक ऊंचे स्तर पर रहती है तो बिना वृद्धि से समझौता किए मुद्रास्फीति की दर में कमी लाना मुश्किल होता है लेकिन वृद्धि पर अधिक असर नहीं हुआ। इस लगभग चमत्कार को कई बातों से समझा जा सकता है।

पहला, जैसा कि आईएमएफ ने कहा, मुद्रास्फीति के अनुमान स्थिर रहे क्योंकि लोगों ने अपनी दीर्घकालिक अपेक्षाएं नहीं बदलीं। हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं कि ऐसा क्यों हुआ। यह संभव है कि हाल के वर्षों में केंद्रीय बैंकों की प्रतिष्ठा बढ़ी हो। आर्थिक कारकों ने महामारी और मुद्रास्फीति से विचलन को एक अप्रत्याशित घटना के रूप में देखा होगा। शायद उनका मानना रहा हो कि केंद्रीय बैंकों में में यह क्षमता है कि वह मुद्रास्फीति की दर को नियंत्रित कर लेगा।

दूसरा, ऐसा लगता है कि उच्च मुद्रास्फीति के दौर में फिलिप कर्व की स्थिति गहरा गई। इसका अर्थ यह है कि कोई भी मौद्रिक सख्ती और आर्थिक शिथिलता का परिणाम मुद्रास्फीति में अधिक कमी के रूप में दिखता है, बजाय कि उस स्थिति के जब यह कर्व सपाट रहता है। केंद्रीय बैंकों का प्रदर्शन सामान्य दिनों से बेहतर रहा। सवाल यह है कि केंद्रीय बैंकों ने यह अनुमान कैसे लगाया कि फिलिप कर्व ऊंचा रहने वाला है।

तीसरा, उच्च मुद्रास्फीति के कारण वेतन-मूल्य चक्र नहीं शुरू होता जो मुद्रास्फीति को और टिकाऊ बना देता। निश्चित रूप से एक वजह यह है कि उन्नत देशों में श्रम संगठनों का पराभव हुआ है और कामगारों के पास लेनदेन की पहले जैसी क्षमता नहीं रही।

चौथा, जिंस कीमतों में इजाफा 1970 के दशक के तेल के झटके की तुलना में कम था और ऊर्जा की गहनता वाली अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट आई। जिंस के कारण उत्पन्न मुद्रास्फीति आज समस्या नहीं है। यह कहना सही होगा कि केंद्रीय बैंकों को अनुकूल कारकों की मदद मिली।

एक मसला बरकरार है। क्या केंद्रीय बैंकों को पहले ही दरों में कटौती शुरू कर देनी थी? हमारे सामने जो भूराजनीतिक जोखिम हैं उन्हें देखते हुए केंद्रीय बैंकों को समझदारी बरतनी चाहिए। यूक्रेन और पश्चिम एशिया में संघर्ष बढ़ा है। दोनों ही नियंत्रण से बाहर हो सकते थे, और अभी भी हो सकते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की अपनी अनिश्चितताएं रही हैं।

कोई केंद्रीय बैंक नहीं चाहता कि उसे बाद में सख्ती बरतने से पहले आरंभ में ही नीतियां शिथिल करनी पड़े। इन अनिश्चितताओं के बीच सही नीतिगत निर्णय लेना हमेशा चुनौती होगा। मौजूदा दौर में केंद्रीय बैंक ही सही साबित हुए हैं। अब यह उनकी रणनीतिक समझ की बदौलत है या खुशकिस्मती कहना मुश्किल है।

First Published - November 11, 2024 | 10:20 PM IST

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