देश के सार्वजनिक वित्त के नजरिये से देखें तो वर्ष 2022-23 का केंद्रीय बजट मोदी सरकार के राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के जांचे-परखे फॉर्मूले पर केंद्रित है। कम से कम केंद्र के मामले में तो यही सच है। वर्ष 2020-21 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 9.2 फीसदी से घटकर 2021-22 में 6.8 फीसदी हो जाना था। चालू वर्ष के घाटे का संशोधित अनुमान 6.9 फीसदी है। 2022-23 के लिए घाटे के 6.4 फीसदी रहने का अनुमान है। यह स्तर भी 2025-26 के लिए तय 4.5 फीसदी के स्तर से दो फीसदी तक ज्यादा है। परंतु अगले तीन वर्षों में इतनी कमी लाने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
आप कह सकते हैं कि केंद्र ने अपेक्षाकृत सहज राजकोषीय घाटा लक्ष्य तय करने के लाभों से राज्यों को वंचित रखा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्यों को अपनी पूंजीगत निवेश जरूरतों को पूरा करने के लिए 50 वर्ष के लिए एक लाख करोड़ रुपये के ब्याज मुक्त ऋण देने की बात कही। इसके साथ ही उन्होंने राज्यों को यह भी याद दिला दिया कि 15वें वित्त आयोग के सुझाव के मुताबिक उन्हें अपने राजकोषीय घाटे को 2022-23 तक कम करके चार फीसदी तक लाना है। वर्तमान अनुमान के मुताबिक 2021-22 में राज्य का राजकोषीय घाटा 4.1 से 4.7 फीसदी के बीच रहने का अनुमान है। बुरी बात यह है कि राज्यों को 2023-24 तक अपना घाटा जीडीपी के तीन फीसदी तक कम करना होगा। ऐसे में केंद्र को तीन वर्ष के दौरान घाटे का लक्ष्य हासिल करने की लचीली सुविधा मिलती रहेगी जबकि राज्यों के सामने अगले दो वर्ष में लक्ष्य हासिल करना लगभग असंभव सा है। वित्त मंत्रालय तथा 15वें वित्त आयोग को ऐसे दोहरे मानकों की जवाबदेही लेनी चाहिए। इसके बावजूद सीतारमण को यह श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने केंद्र के राजकोषीय घाटे के आकलन को पारदर्शी बनाया। सन 2021-22 में सरकार को बजट से इतर उधारी को 30,000 करोड़ रुपये कम करना था। 2020-21 में यह उधारी 1.21 लाख करोड़ रुपये तथा 2019-20 में 1.48 लाख करोड़ रुपये थी। मंगलवार को पेश बजट में सीतारमण ने बताया कि 2021-22 में बजट से इतर उधारी में महज 750 करोड़ रुपये की कमी की गई जबकि 2022-23 में किसी कमी की बात नहीं कही गई। महज तीन वर्ष में घाटे की अंकेक्षण व्यवस्था को साफ करने की यह सराहनीय पहल है।
सीतारमण के चौथे बजट में तीन और सराहनीय पहल हैं। पहला, अगले वर्ष के पूंजीगत व्यय में 25 फीसदी का इजाफा (यदि बिक्री के पहले एयर इंडिया में डाली गई 52,000 करोड़ रुपये की एकबारगी पूंजी को अलग कर दें तो यह 35 फीसदी है)। दूसरा, पूंजीगत व्यय में लगातार दो वर्ष तक सफल इजाफा अर्थव्यवस्था में निवेश की दृष्टि से बेहतर है। खासतौर पर ऐसे समय जबकि निजी क्षेत्र अपना निवेश बढ़ाने को तैयार नहीं है क्योंकि क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है।
दूसरी बात, ऐसा लगता है कि वित्त मंत्रालय का विनिवेश प्रक्रिया की मदद से सरकारी राजस्व बढ़ाने और इस प्रकार घाटे के आंकड़ों को अनुकूल दिखाने संबंधी रुझान कम हो गया है। भारतीय जीवन बीमा निगम का निर्गम लाने की घोषणा के बावजूद सरकार ने विनिेवश प्राप्तियों से 78,000 करोड़ रुपये मिलने की बात कही जबकि बजट अनुमान 1.75 लाख करोड़ रुपये था। वर्ष 2022-23 के लिए विनिवेश प्राप्तियों के 65,000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान रखा गया है।
आशा की जानी चाहिए कि विनिवेश प्राप्तियों का नया और कम महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य इस वास्तविक आकलन पर आधारित होगा कि वर्ष के दौरान किस तरह की परिसंपत्तियों की बिक्री की जा सकती है। जबकि इस दौरान शेयर बाजार शायद उतने उत्साहित न रहें जितने कि चालू वर्ष में हैं। यह सरकार की निजीकरण में धीमी होती रुचि की वजह से भी हो सकता है। इसकी वजह साफ तौर पर राजनीतिक हो सकती हैं। बैंकों या बीमा कंपनियों के निजीकरण का कोई जिक्र बजट भाषण में नहीं मिला। निजीकरण शब्द की जगह भी अब स्वामित्व का रणनीतिक हस्तांतरण या रणनीतिक साझेदारों का चयन जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाने लगे हैं।
तीसरा, वर्ष 2022-23 के लिए उल्लिखित सकल कर राजस्व के आंकड़े भी हकीकत के करीब हैं। वर्ष 2021-22 में 18 फीसदी की नॉमिनल वृद्धि दर के साथ केंद्र सरकार का सकल कर राजस्व 24 फीसदी बढ़ा। आश्चर्य नहीं कि 2022-23 में 11 फीसदी की और कम नॉमिनल वृद्धि के अनुमान के साथ केंद्र सरकार का सकल कर राजस्व 9.6 फीसदी की गति से बढऩे की बात कही गई है। कॉर्पोरेशन कर और व्यक्तिगत आय कर राजस्व के प्राय: 13 फीसदी की दर से बढऩे का अनुमान है लेकिन बजट के मुताबिक पेट्रालियम उत्पादों के उत्पाद शुल्क में संभावित कटौती की जरूरत हो सकती है और 2022-23 में उत्पाद शुल्क संग्रह में 15 फीसदी कमी आ सकती है।
प्रश्न यह है कि 2022-23 के बजट में ऐसे कौन से अनुमान हैं जो समस्या पैदा कर सकते हैं? कम से कम छह ऐसे मसले हैं जिन्हें लेकर चिंतित होने की आवश्यकता है। सरकार के बढ़े हुए व्यय की पूर्ति के लिए बाजार उधारी में 32 फीसदी इजाफा, भारतीय रिजर्व बैंक के बॉन्ड के प्रबंधन और प्रतिफल के मामले में उसके कौशल की परीक्षा लेगा। इससे आने वाले वर्ष में सरकारी व्यय का दायरा भी सीमित होगा। जीडीपी में डेट का हिस्सा मौजूदा 60 फीसदी से कम होने के बजाय बढ़ेगा। सन 2020-21 में कुल सरकारी व्यय में ब्याज भुगतान की हिस्सेदारी 19 फीसदी थी। चालू वर्ष में यह हिस्सेदारी पहले ही 22 फीसदी से अधिक है और 2022-23 में यह 24 फीसदी तक हो सकती है। केवल पिछले व्यय की भरपाई में एक चौथाई हिस्सा खर्च करना अनुत्पादक हो सकता है।
सरकार ने जिस प्रकार 2022-23 में राजस्व व्यय में केवल 0.86 फीसदी इजाफा होने दिया और जिस तरह अपना पूंजीगत व्यय बढ़ाया वह उत्साह की वजह हो सकता है। लेकिन राजस्व व्यय को कैसे सीमित किया गया? मोटे तौर पर ऐसा सब्सिडी व्यय में 27 फीसदी कमी करके किया गया। यदि पीएम फूड राशन योजना को अप्रैल 2022 से बंद किया जाता है तो खाद्य सब्सिडी बिल भी कम होगा। परंतु क्या उर्वरक सब्सिडी बिल और पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढऩे पर पेट्रोलियम सब्सिडी बिल भी कम होगा? ऐसे ही प्रश्न महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में 25 फीसदी कटौती तथा पीएम किसान सम्मान योजना में मामूली इजाफे को लेकर भी पूछे जाएंगे। रक्षा आवंटन में भी केवल पांच फीसदी इजाफा हुआ।
अंतत: 2022-23 का बजट वापस संरक्षणवाद के एजेंडे पर लौट आया है। इसे आत्मनिर्भर भारत का नाम दिया गया है। सीमा शुल्क नियमों के अधीन 350 से अधिक रियायतों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाएगा तथा पूंजीगत वस्तुओं तथा परियोजनाओं से जुड़े आयात पर रियायती शुल्क को समाप्त करके 7.5 फीसदी सीमा शुल्क लगाने का मार्ग प्रशस्त किया जाएगा।
यह बजट पारदर्शी होने के साथ-साथ सरकार की राजनीतिक मान्यताओं का भी ध्यान रखने वाला है।