वित्त मंत्री अपने बजट भाषण में आम तौर पर कई अच्छी एवं नेक घोषणाएं करते रहे हैं। परंतु, जब इन घोषणाओं की समीक्षा होती है तो कई सवाल मुंह बाए सामने खड़े हो जाते हैं। वित्त वर्ष 2025-26 के लिए पेश बजट में भी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कई अच्छी एवं उत्साह जगाने वाली घोषणाएं की हैं जिनमें आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने, अर्थव्यवस्था को समावेशी बनाने, निजी क्षेत्र से निवेश बढ़ाने और मध्य वर्ग की खर्च करने की क्षमता बढ़ाने जैसे कई उपाय शामिल हैं। मगर बड़ा सवाल यह है कि ये घोषणाएं किस हद तक नीतियों में तब्दील होती हैं।
सीतारमण ने लगातार आठवां बजट पेश किया है। हरेक वर्ष उनके बजट में कुछ महत्त्वपूर्ण एवं जरूरी बातें जुड़ती गई हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है बजट को वास्तविकता के धरातल पर उतारना, खासकर राजस्व अनुमानों को लेकर सधा एवं सटीक रवैया अपनाना। इस बजट में भी संशोधित अनुमान की तुलना में अर्थव्यवस्था की नॉमिनल वृद्धि दर 10.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है जबकि सकल कर राजस्व 10.8 प्रतिशत दर से बढ़ने की बात कही गई है।
इसका आशय यह है कि टैक्स बॉयंसी 1.06 प्रतिशत रहेगी जिसे हासिल करने में कोई परेशानी पेश नहीं आनी चाहिए। राजस्व व्यय में बढ़ोतरी 6.7 प्रतिशत तक सीमित रखी गई है इसलिए बजट राजस्व, राजकोषीय एवं प्राथमिक राजकोषीय लक्ष्य हासिल करने में दिक्कत नहीं होगी। कर राजस्व के अनुमान वास्तविक रहते हैं तो इससे कर अधिकारियों पर दबाव कम हो जाता है और करदाता भी राहत महसूस करते हैं।
हाल के वर्षों में पेश हुए बजट की एक खास बात यह रही है कि उनमें अधिक पारदर्शिता बरती जा रही है और बजट प्रस्तावों से इतर होने वाले खर्च भी शामिल किए जा रहे हैं। बजट में पारदर्शिता बढ़ने से व्यापक आर्थिक हालात पर होने वाले प्रभावों की समीक्षा करने में भी मदद मिलती है। तीसरी अहम बात यह देखने को मिली है कि पिछले बजटों की तरह ही पूंजीगत व्यय में चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान की तुलना में 10.1 प्रतिशत बढ़ोतरी की गई है।
हालांकि, चुनावों के कारण लागू पाबंदियों से चालू वित्त वर्ष के लिए संशोधित अनुमान 928 अरब रुपये के बजट प्रस्ताव की तुलना में कम रहे हैं। मगर वित्त वर्ष 2025-26 के लिए बजट में पूंजीगत व्यय के मद में 2024-25 के बजट अनुमान की तुलना में केवल 100 अरब रुपये की बढ़ोतरी की गई है। कुछ मामलों में यह थोड़ा निराश करने वाला है मगर सरकार को सार्वजनिक निवेश का आकार बढ़ाने और राजकोषीय घाटा कम करने में किसी एक विकल्प का चयन करना है।
चौथी अहम बात राजकोषीय सुदृढ़ीकरण से जुड़ी है जिस पर सरकार का खास ध्यान रहा है। अगले वित्त वर्ष राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.4 प्रतिशत तक रहने का अनुमान लगाया गया है, जो पिछले दो वर्षों की तुलना में थोड़ा बेहतर माना जा सकता है। चालू वर्ष में पूंजीगत व्यय में कमी इसका कारण रहा है। ध्यान देने योग्य बात है कि बजट में राजस्व घाटा 862 अरब रुपये या जीडीपी का 0.4 प्रतिशत घटाने का लक्ष्य रखा गया है। अगर यह लक्ष्य हासिल कर लिया गया तो वाकई अच्छी बात होगी।
बजट में सबसे महत्त्वपूर्ण विषय एफआरबीएम अधिनियम, 2003 के अंतर्गत तय राजकोषीय सुदृढ़ीकरण था मगर इसका मामूली जिक्र ही वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में किया। राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह में आगे बढ़ते हुए ऋण एवं जीडीपी अनुपात चालू वित्त वर्ष के 57.1 प्रतिशत से घटाकर 2030-31 तक 50 प्रतिशत (1 प्रतिशत कम या ज्यादा) लाने की बात कही गई है। यानी इससे साफ है कि सरकार राजकोषीय स्थिति मजबूत बनाने को लेकर काफी गंभीर है और ऋण एवं जीडीपी अनुपात कम कर इसे अधिक टिकाऊ स्तर तक लाना चाह रही है। इसके साथ ही सरकार निजी क्षेत्र को सस्ती दरों पर अधिक रकम जुटाने की पूरी गुंजाइश मुहैया करना चाहती है।
बजट में विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए जिन उपायों का जिक्र किया गया है वे कैसे साधे जा सकते हैं? सरकार ने आने वर्षों में गरीबी घटा कर शून्य करने, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देने, किफायती स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने, लोगों को हुनरमंद बनाकर उत्पादकता बढ़ाने एवं आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने और दुनिया में भारत को ‘खाद्यान्न उत्पादन में श्रेष्ठ बनाने’ के लिए किसानों को सशक्त बनाने की बात कही गई है। इन सभी लक्ष्यों की सराहना की जानी चाहिए मगर बजट में जिस तरह रकम आवंटित की गई हैं उनसे ये पूरे होते नहीं दिख रहे हैं।
मसलन, बजट में शिक्षा के मद में आवंटन चालू वित्त वर्ष की तुलना में महज 12 प्रतिशत अधिक है जबकि स्वास्थ्य के लिए आवंटन मात्र 10.8 प्रतिशत बढ़ाया गया है। हुनर एवं कौशल विकास, महिलाओं एवं किसानों को सशक्त बनाने के लिए भी बजट में विशेष प्रावधान नहीं किए गए हैं। यह सच है कि इन क्षेत्रों में राज्यों को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। यह भी सच है कि बजट में केवल आवंटन बढ़ाने से स्थिति बदलने वाली नहीं है। इस तरह, केंद्रीय बजट में जिन लक्ष्यों का जिक्र किया गया है वे महज फिलहाल घोषणाएं ही मानी जा सकती हैं। करों के संबंध में बात करें तो वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा है कि सरकार जल्द ही एक नया आयकर विधेयक लेकर आएगी।
यह एक स्वागत योग्य प्रस्ताव है और उम्मीद की जा रही है कि इस कदम से उलझन दूर होने के साथ स्थिति अधिक स्पष्ट होगी और कानूनी विवाद थमते नजर आएंगे। इनके अलावा, प्रशासनिक एवं अनुपालन से जुड़े खर्च भी कम हो जाएंगे। हालांकि, वित्त मंत्री ने बजट में आयकर ढांचे को सरल बनाने का एक और मौका गंवा दिया है। पुरानी कर व्यवस्था से पीछा छुड़ाने और नई कर प्रणाली की तरफ पूर्ण रूप से कदम बढ़ाने का यह एक बेहतरीन मौका था। कम करों वाली और कम बदलाव वाली सरल प्रणाली अब समय की मांग है। बजट में कई तरह की कर रियायतें एवं तरजीह देने के बजाय नई कर प्रणाली की तरफ कदम बढ़ाया जाना चाहिए था।
नई प्रणाली में भी फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि सात कर श्रेणियां रखकर सरकार क्या हासिल करना चाहती है। देश की कुल आबादी में महज 2.5 प्रतिशत लोग ही वास्तव में आयकर भुगतान कर रहे हैं, इसलिए यह समझ से परे है कि एक भिन्न कर संरचना के साथ आय में बढ़ोतरी के साथ कर में इजाफा कैसे हो पाएगा। वर्ष 1991 से पहले 12 कर श्रेणियां थी। चेलैया समिति के सुझावों के बाद इन्हें कम कर 4 किया गया और फिर 1996 के बजट में ये 3 कर दी गईं (अपवादों को छोड़कर)। मौजूदा सात कर श्रेणियों को तत्काल सरल बनाने की आवश्यकता है ताकि प्रशासनिक एवं अनुपालन खर्च में कमी लाई जा सके।
(लेखक 14वें वित्त आयोग के सदस्य एवं एनआईपीएफपी के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके निजी विचार हैं)