जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 2014 में साधारण बहुमत के साथ सत्ता में आई उस वक्त विरासत में उसे ऐसी अर्थव्यवस्था मिली जिसकी हालत खस्ता हो रही थी। महंगाई दर 15 प्रतिशत के आसपास थी और विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से कम हो रहा था। बैंक संकट में थे और समग्र आर्थिक विकास में गिरावट के रुझान दिखने लगे थे। भारत का नाम ‘फ्रेजाइल फाइव’ क्लब में शामिल हो गया था जो उन देशों का एक समूह था जिनकी अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहद नाजुक हो रही थी।
आज, अच्छी बात यह है कि हालात बिल्कुल उलट है। मुद्रास्फीति 6 प्रतिशत से नीचे है। विदेशी मुद्रा भंडार की मात्रा बहुतायत में है। बैंकों को सुरक्षित कर लिया गया है और नोटबंदी के फैसले तथा कोविड-19 के दोहरे झटके के बाद वृद्धि को लेकर उम्मीदें जग रही हैं।
चाहे आप इसे पसंद करें या नहीं लेकिन इसका श्रेय 2014 के आखिर में पांच स्पष्ट निर्देश देने के लिए प्रधानमंत्री को दिया जाना चाहिए जिन निर्देशों के मुताबिक मुद्रास्फीति को कम रखना, राजकोषीय घाटे के स्तर को कम करना, विदेशी मुद्रा भंडार तैयार करना, कर प्रणाली में सुधार और बैंकों को संरक्षित किया जाना था। उन्होंने भले ही इन उपायों के अर्थशास्त्र को नहीं समझा होगा, लेकिन उन्हें इन कदमों के राजनीतिक निहितार्थों की पूरी जानकारी थी। कृषि कानूनों को वापस लेने के उनके फैसले से यह साबित होता है कि वह सिर्फ एक ही आयाम में सब कुछ देखते हैं और वह है राजनीति। बेशक इससे कभी-कभी मदद मिलती है लेकिन हमेशा नहीं।
2014 के मूल निर्देशों को लगभग पूरी तरह से लागू किया गया है भले ही वह दोषपूर्ण ही क्यों न हो। अब इसका असर दिखने का दौर है, बशर्ते राजनीति फिर से हावी न हो जाए।
अगर कांग्रेस द्वारा भूमि और श्रम से जुड़े जरूरी सुधारों को अवरुद्ध नहीं किया गया होता तो इसमें कम ही समय लगता। लेकिन शंका में रहने और सुधारों को स्थगित करने के लिए प्रधानमंत्री भी समान रूप से उतने ही दोषी हैं क्योंकि वह अधिक जोखिम उठा सकते थे। उन्होंने कृषि कानूनों को निरस्त करने के साथ फिर से ऐसा ही कदम उठाया है। एक सुधारक के रूप में उनकी विश्वसनीयता की राह में अब रोड़ा आ चुका है क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में चुनाव जीतने की भी जरूरत है। उत्तर प्रदेश हर लिहाज से महत्त्वपूर्ण हो सकता है लेकिन अधिकांश राज्यों पर यह बात लागू नहीं हो सकती है।
सुधार के फैसले बदलने का रुख अब इससे अधिक नहीं होना चाहिए क्योंकि अगर आप इस पर विचार करने के लिए ठहरते हैं तो अर्थव्यवस्था फिर से उसी स्तर पर वापस आ सकती है जहां यह 2003 में थी। भारत उस वक्त एक विमान की तरह था जो रनवे के आखिर में उड़ान भरने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए इंतजार कर रहा था। इसके बाद अर्थव्यवस्था ने उड़ान भी तब तक भरी जब तक वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के आने के बाद 2010-2013 के बीच इसकी स्थिति खराब नहीं हुई। उन दिनों जो कुछ भी गलत हो सकता था, वह सब गलत ही हुआ।
अब क्या होगा?
लेकिन अब यह सब इतिहास है। भाजपा के पास अब वही मौका है जैसा मौका इसके पास 2003 में था लेकिन 2004 में इसे कांग्रेस के हाथों वह मौका गंवाना पड़ा था। इसके लिए सोनिया गांधी की अच्छी किस्मत का हवाला भी दिया जा सकता है जिसके चलते छह महीने पहले जल्दी चुनाव कराने का फैसला लेने वाली भाजपा को पांच साल का कार्यकाल पूरा करने का इंतजार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। राजनीति में यह बहुत लंबा समय होता है।
इसलिए सबसे अहम सवाल यह है कि क्या भाजपा फिर से अपने मौके को गंवा देगी? ऐसा मुमकिन है अगर यह 2022 और 2023 में 16 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर आसक्त हो जाए। अफसोस की बात है कृषि कानूनों के निरस्त होने से भी यही अंदाजा लगता है। यह स्पष्ट है कि सरकार के लिए सबसे बड़ा खतरा खुद से ही है जहां यह राजनीतिक अहंकार, बंगाल चुनाव की गलतियों को दोहराने जैसा भारी पड़ सकता है। पार्टी को महसूस करना चाहिए कि अगर वह 2024 में केंद्र की सत्ता बनाए रखना चाहती है तो उसे आर्थिक गतिविधियों की रफ्तार कम नहीं करनी चाहिए जो सभी रणनीतिक लाभों को भुनाने से मिल रहा है।
ध्यान केंद्रित करना
इसे सुनिश्चित करने के तीन तरीके हैं । 2011 से 2013 के बीच संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार ने जो किया ये तरीके उसके ठीक उलट हैं। यह कोई रॉकेट विज्ञान की बात नहीं है। पहला, मुद्रास्फीति को कम रखें, खासतौर पर खाद्य और पेट्रोल-डीजल से जुड़ी महंगाई दर। दूसरा तरीका यह है कि विस्तारित खर्च करने के बजाय राजकोषीय घाटे को कम रखें। तीसरा तरीका यह है कि रुपये का अवमूल्यन करके भी अधिक निर्यात करें।
मैं इसका ब्योरा नहीं दे सकता हूं कि वास्तव में इन उद्देश्यों को कैसे हासिल किया जाना चाहिए। सरकार के पास आज कई बेहतरीन आर्थिक प्रबंधक हैं और उन्हें पता है कि सरकार को क्या बताना है।
सरकार को इस वक्त कम से कम आधे दर्जन अच्छे लोगों की भी जरूरत है। हालांकि कुछ अच्छे लोग सभी प्रमुख आर्थिक मंत्रालयों में हैं और प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में शीर्ष स्तर पर हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव भी बहुत उम्दा अर्थशास्त्री हैं।
अंत में हमेशा की तरह इसे भी एक राजनीतिक दिशा मानी जा सकती है जो महत्वपूर्ण होने जा रहा है। महत्त्वपूर्ण निर्णय यह चयन करना भी है कि कौन सी लड़ाई लडऩी है और किसको नजरअंदाज करना है।
भाजपा पहले ही एक ऐसी लड़ाई हार चुकी है जो वह लगभग जीत चुकी थी। मुमकिन है कि अब और अधिक ब्लैकमेल का इंतजार हो क्योंकि विपक्ष का उत्साह काफी बढ़ गया है।