चीन के थ्यानचिन में आयोजित शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन, 2025 इस संस्था के इतिहास में नेताओं का अब तक का सबसे बड़ा जमघट साबित हुआ। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस सहित 20 देशों के नेताओं एवं 10 अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुखों ने भाग लिया। संस्थागत व्यापकता के प्रदर्शन से आगे निकल कर यह शिखर सम्मेलन भू-राजनीतिक संकेत भेजने का एक बड़ा मंच बन गया। विशेष रूप से चीन, भारत और रूस के नेताओं के बीच आपसी तालमेल से यह बात बखूबी साबित हो गई। इन तीनों देशों के नेताओं की बैठक दुनिया खासकर अमेरिका एवं पश्चिमी देशों को एक खास संकेत भेजने के लिए आयोजित की गई थी। इस शिखर सम्मेलन ने एक बहु-ध्रुवीय दुनिया का खाका भी पेश किया।
एससीओ शिखर सम्मेलन ने रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन को भारत और चीन दोनों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ने का अवसर प्रदान किया। इससे पुतिन को पश्चिमी देशों को यह संदेश देने का मौका भी मिल गया कि रूस के पास सहयोगियों की कमी नहीं है। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग का उद्देश्य इस अवसर का उपयोग एक उभरते हुए राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के शिल्पकार के रूप में अपनी साख जमाना था। हालांकि, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सम्मेलन में एक खास और सोचा-समझा संदेश दिया कि भारतीय विदेश नीति दुनिया की प्रमुख शक्तियों के साथ अपने रणनीतिक संबंधों को नए सिरे से संतुलित कर रही है और भारत एक केंद्रीय भूमिका में पहुंचने की कोशिश कर रहा है।
कुल मिलाकर, भारत कई देशों के साथ संबंध रखने के लंबे समय से अपने घोषित सिद्धांत को व्यवहार में ला रहा है और स्वयं को तेजी से बहुध्रुवीय प्रणाली में एक अहम किरदार के रूप में स्थापित कर रहा है।
रणनीतिक लाभ: शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भारतीय विदेश नीति सामान्य रूप से पश्चिम और विशेष रूप से अमेरिका के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने का प्रयास करता रही है। उदाहरण के लिए भारत ने सी-17 और सी-130 सामरिक एयरलिफ्ट विमान, पी-8आई मैरीटाइम पेट्रोल प्लेन, चिनूक, अपाचे और एमएच-60आर हेलीकॉप्टर, एफ404/414 इंजन और एमक्यू-9 ड्रोन सहित उन्नत अमेरिकी रक्षा साजो-सामान खरीदे हैं। वर्ष 2000 और 2024 के बीच कुल मिलाकर भारत ने अमेरिका से 24 अरब डॉलर के रक्षा-साजो-सामान खरीदे हैं। अमेरिका से रक्षा साजो-सामान की खरीदारी में तेजी के बीच रूस के प्रभाव में उल्लेखनीय गिरावट हुई है। भारत के हथियारों के आयात में रूस की हिस्सेदारी 2009-2013 के दौरान 76 फीसदी थी जो पिछले पांच वर्षों में घटकर केवल 36 फीसदी रह गई है।
अमेरिका की ओर भारत का झुकाव और रक्षा एवं आर्थिक मामलों में विभिन्न देशों के साथ उसकी साझेदारी ने चीन की चिंता बढ़ा दी। शीत युद्ध के दौरान चीन असल में अमेरिका और रूस दोनों के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने का प्रयास करता रहा था। अब चीन के पर्यवेक्षकों को इस बात कि चिंता सताने लगी है कि भारत भी उसी की तरह रणनीति अपना सकता है। उन्हें लग रहा है कि भारत की सामरिक स्वायत्तता अमेरिका के साथ इसकी नजदीकी बढ़ा रही है और दोनों देशों के बीच रक्षा खरीद और आर्थिक सहयोग इस बात का पक्का सबूत हैं। हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा भारत से निर्यात पर 50 फीसदी शुल्क लगाने के बाद यह दोनों देशों के बीच संबंध कमजोर हुए हैं।
इस पृष्ठभूमि के बीच भारत और चीन ने 2024 में कजान शिखर सम्मेलन के बाद सावधानीपूर्वक कदम बढ़ाते हुए सुलह के प्रयास तेज कर दिए हैं। थ्यानचिन में दोनों के नेताओं के बीच हुई द्विपक्षीय बैठक में दोनों पक्षों ने आपसी संबंधों में स्थिरता और सीमा पर शांति बहाल करने की स्पष्ट इच्छा जताई। चिनफिंग ने मजबूत संवाद, विस्तारित आदान-प्रदान और बहुपक्षीय सहयोग पर जोर दिया। इसके पीछे उनका मकसद द्विपक्षीय संबंधों को 2020 में गलवान में हुई झड़प से पूर्व की स्थिति में वापस लाना था। सात साल बाद चीन पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी ने व्यापक संबंधों के समुचित विकास के लिए सीमा पर शांति बहाली को आवश्यक बताया। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि आतंकवाद से लड़ाई एससीओ में केंद्र में रहे। इसका नतीजा भी निकला और थ्यानचिन घोषणापत्र में पहलगाम में आतंकी हमले की स्पष्ट और जोरदार निंदा की गई।
ढांचागत बनाम रणनीतिक त्रिकोणीयता: एससीओ शिखर सम्मेलन में भारत और चीन के बीच सुधरते संबंधों को दिखाने के भरपूर प्रयासों के बावजूद कई मसलों पर गतिरोध बना हुआ है। दोनों तरफ से लगभग 60,000 सैनिक अभी भी वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ आमने-सामने हैं। थ्यानचिन में सेना हटाने या सीमा परिसीमन के लिए कोई ठोस कार्य योजना नहीं पेश की गई। पाकिस्तान, तिब्बत और ताइवान पर विवाद बने हुए हैं और केवल कूटनीति इन गहरे रणनीतिक दरारों पर पर्दा नहीं डाल सकती है।
रणनीतिक त्रिकोणीयता भी जटिलता बढ़ा देती है। भारत और चीन दोनों लंबे समय से एक सोची-समझी रणनीति के तहत तीसरी शक्तियों की तरफ झुकाव से आर्थिक एवं कूटनीतिक लाभ उठाते रहे हैं। चीन अमेरिका के शुल्कों के खिलाफ भारत के साथ एकजुटता का प्रदर्शन करना चाहता है लेकिन सतर्क भी है। चीन को इस बात का डर भी है कि भारत के पास अमेरिका के साथ संबंध दुरुस्त करने का विकल्प मौजूद है।
एक संस्था के रूप में एससीओ वैश्विक मंच पर ‘ब्रिक्स’ से पीछे है। मगर इसका महत्त्व बढ़ रहा है। वर्ष 2024 में एससीओ सदस्यों के साथ चीन का व्यापार 512.4 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जो 2018 के स्तर से दोगुना है। लिहाजा, शी द्वारा एक ‘नए प्रकार के अंतरराष्ट्रीय संबंधों’ की वकालत और इसके साथ ऊर्जा, ढांचागत क्षेत्र, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) और डिजिटल अर्थव्यवस्था में एससीओ विकास बैंक और बहुपक्षीय सहयोग जैसी पहल एक रणनीतिक सूझ-बूझ को दर्शाती हैं। इसका उद्देश्य चीन को अमेरिका की नीतियों से बचाना और भविष्य में आर्थिक विकास को जारी रखना है।
अंततः, थ्यानचिन में भारत-चीन की बैठक ने एक सूक्ष्म संतुलनकारी नीति का मुजाहिरा पेश किया। यानी दोनों देशों के बीच यथासंभव सहयोग हो सकता है, जरूरी लगने पर सतर्क रुख भी अपनाया जा सकता है और संबंधों में सुधार के प्रयासों के बीच भू-राजनीतिक दांव-पेच का विकल्प भी खुला है।
निष्कर्ष: मोदी की थ्यानचिन यात्रा और चिनफिंग के साथ उनकी बैठक ने दुनिया में भारत के बढ़ते रुतबे का संकेत दिया है। इस शिखर सम्मेलन में ठोस समझौते तो कम हुए हैं, लेकिन इससे संबंध सामान्य बनाने और भारत में चीन से निवेश फिर शुरू करने के प्रयासों को जरूर ताकत मिली है। इन्हीं प्रयासों का नतीजा है कि वीजा प्रतिबंधों में ढील दी जा रही है, दोनों देशों के बीच सीधी उड़ानें फिर से शुरू होने वाली हैं और उर्वरक, मशीनरी और दुर्लभ खनिज तत्वों के निर्यात पर चीन द्वारा लगाए गए प्रतिबंध भी अब धीरे-धीरे कम हो रहे हैं।
हालांकि, कूटनीतिक दिखावे के पीछे भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्द्धा बनी हुई है। इसके बावजूद भारत अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता से बचने का सतर्क प्रयास कर रहा है और किसी भी एक देश पर निर्भरता से दूर जा रहा है। थ्यानचिन में दिखी भारत-चीन-रूस की दोस्ती एक रणनीतिक संदेश भेजती है। वह संदेश यह है कि भारतीय विदेश नीति एक जटिल, बहु-ध्रुवीय दुनिया में अपने हित सुरक्षित रखने और रणनीतिक स्वायत्तता बरकरार रखने के लिए कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगी।
(पंत ओआरएफ में उपाध्यक्ष हैं और कुमार फेलो (चीन अध्ययन) हैं।)