बैंक की गलती होने पर उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई और ग्राहकों को हर्जाना देने की व्यवस्था होनी चाहिए। इस विषय पर विस्तार से बता रहे हैं देवाशिष बसु
एक ग्राहक के रूप में हमें सबसे खराब अनुभव बैंकों और वित्तीय सेवाओं से प्राप्त होता है। शेयर और बीमा निवेश योजनाओं को लेकर झूठे वादे, पारंपरिक बीमा योजनाओं के नुकसानदेह नतीजे और ऐसी योजनाओं में फंसा दिया जाना आम है जिनसे आप बाहर नहीं निकल पाते। एजेंटों और वितरकों द्वारा ऐसी योजनाओं को ग्राहकों को बेच देना आम बात है।
ऐसे भयावह अनुभव की दो वजह हैं। पहली, इनमें से अधिकांश योजनाएं अथवा सेवाएं अमानक हैं। सफाई के लिए तैयार लिक्विड के उत्पादन और लाभ का मानकीकरण किया जा सकता है ताकि वे सभी सफाई का काम करें। वित्तीय सेवाओं के मामले में ऐसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि यहां कुछ उत्पाद कुछ ग्राहकों के काम आते हैं जबकि जरूरी नहीं कि वे दूसरों के लिए भी उपयोगी साबित हों। खासतौर पर तब जब हम बात करते हैं बाजार संबद्ध योजनाओं की।
दूसरी वजह है नियमन का कमजोर प्रवर्तन। खासतौर पर बैंकिंग और बीमा सेवाओं के लिए। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का नियामकीय दर्शन है दिशानिर्देश जारी करना और शिकायत निवारण करने की एक प्रक्रिया तय करना। रिजर्व बैंक यह जानने को लेकर बहुत उत्सुक नहीं है कि ये दिशानिर्देश और प्रक्रियाएं जमीन पर किस प्रकार काम करती हैं। जरा निम्नलिखित बातों पर विचार करें:
खातों को बिना किसी भेदभाव के फ्रीज करना: बैंक बिना समुचित चेतावनी या नोटिस के केवल केवाईसी अपडेट न होने जैसी छोटी सी वजह पर बचत और चालू खाते को फ्रीज कर देते हैं। कागज पर मौजूद प्रावधानों के मुताबिक आरबीआई को किसी भी तरह का कदम उठाने के पहले ग्राहकों को कम से कम तीन नोटिस भेजने चाहिए।
इसके बावजूद अनेक मामलों में बैंक नोटिस भेजने में ढिलाई बरतते हैं। यहां तक कि मेरा खाता भी ऐसे ही फ्रीज कर दिया गया था। हालांकि खातों को फ्रीज किए जाने की वजह से लोगों को बहुत अधिक परेशानी और शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है लेकिन नियमों का पालन नहीं करने वाले बैंकों की न तो कोई जवाबदेही है और न ही उन्हें इसके लिए कोई दंड दिया जाता है। हमारी भुगतान व्यवस्थाएं ऐसी हैं जिनसे दुनिया रश्क करती है। बैंक तकनीक का इस्तेमाल करके उपभोक्ताओं को तीसरे पक्ष की योजनाएं अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
इसके बावजूद रिजर्व बैंक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि केवाईसी को अपडेट करने के लिए ग्राहकों को जो नोटिस भेजे जाएं उनकी डिजिटल छाप हर बैंक के पास उपलब्ध रहे। कोर बैंकिंग के तहत एक केंद्रीकृत प्रक्रिया नोटिस तैयार करती है, उसके बाद आशा की जाती है कि उन्हें संबंधित शाखा द्वारा भेजा जाएगा। मेरे मामले में केंद्रीय स्तर पर नोटिस तैयार तो हुए लेकिन संबंधित शाखा ने उन्हें भेजा नहीं।
खोए हुए दस्तावेज: द मनीलाइफ फाउंडेशन के सामने ऐसे कई मामले आए जहां बैंक और फाइनैंस कंपनियों ने ऋण के बरअक्स अपने पास रखे गए दस्तावेजों को आंशिक तौर पर या पूरी तरह गुम करके संपत्तियों के मूल्य को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचाया। इनमें कारोबारी ऋण और आवास ऋण शामिल हैं। अगर संपत्ति के दस्तावेजों की श्रृंखला पूरी न हो तो मूल्य को स्थायी क्षति पहुंचती है। कर्ज देते समय दूसरे बैंक भी ऐसे आधे-अधूरे दस्तावेजों को स्वीकार नहीं करते।
इसके बावजूद इस नुकसान के लिए जिम्मेदार बैंक या फाइनैंस कंपनी से यह नहीं कहा जाता है कि वे ग्राहकों को हर्जाना दें, भले ही उन्होंने अपनी गलती मान भी ली हो। अक्सर बैंक अपनी गलती नहीं मानते। हमें एक ऐसे ग्राहक के बारे में जानकारी है जिससे कहा गया कि वह बैंक के वेयरहाउस में जाए जहां दस्तावेज जमा किए गए थे और वहां खुद अपने कागजात तलाश करे।
एक अन्य मामले में एक शीर्ष बैंक कागजात के सिलसिले को सुचारु बनाने के क्रम में प्रमाणित प्रति जुटाने में विफल रहा और इस प्रकार जरूरी पुलिस प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी। ऐसे में उक्त ग्राहक अपनी संपत्ति की बिक्री नहीं कर पा रहा है। सवाल यही है कि आरबीआई के लिए ऐसे गुमशुदा दस्तावेजों के मामलों से निपटने के लिए मानक परिचालन प्रक्रिया (एसओपी) स्थापित कर पाना इतना मुश्किल है। क्योंकि ये दस्तावेज ही पीड़ितों को क्षतिपूर्ति समेत तमाम बातों का ध्यान रखते हैं।
नामांकन और हस्तांतरण के मुद्दे: नामांकन और हस्तांतरण के मामलों में एसओपी की कमी सबसे अधिक महसूस की जाती है जहां हर बैंक, फाइनैंस कंपनी और यहां तक कि बैंक की कोई शाखा भी अपने नियम बना सकती है। आरबीआई के परिपत्र में कहा गया है कि बैंकों को किसी मृत ग्राहक के खाते की राशि को उसके नामित के खाते में स्थानांतरित करने के पहले समुचि सावधानी बरतनी चाहिए लेकिन वह उनसे बॉन्ड, जमानत आदि की मांग नहीं कर सकता है। इसकी लगातार अनदेखी की जा रही है।
बैंक लॉकर: आरबीआई ने हाल ही में बैंकों से कहा है कि वे बैंक लॉकर खोलने वाले ग्राहकों के साथ स्टाम्प पेपर पर हस्ताक्षरित समझौता करें। एसओपी की अनुपस्थिति में स्टाम्प पेपर की कीमत में भी कोई मानकीकरण नहीं होता। इस विषय में स्पष्ट दिशानिर्देश जारी किए जाने चाहिए और ग्राहकों को भी समझौते की एक प्रति उपलब्ध कराई जानी चाहिए। डिजिटल दुनिया में एक स्कैन कॉपी उपलब्ध कराना बहुत आसान है और आसान पहुंच के लिए इसे ग्राहकों के रिकॉर्ड में भी रखा जाना चाहिए।
इसमें कैसे सुधार करें: अगर हमारे नियामक अपने सोच को बदलें तो ग्राहकों की इस मुश्किल को दूर किया जा सकता है। फिलहाल इस बारे में रिजर्व बैंक का रुख अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। वह नियम बनाता है लेकिन यह देखने की कोशिश नहीं करता है कि वे ग्राहकों पर किस प्रकार असर करते हैं। यहां दो सामान्य कदम उठाने की आवश्यकता है। जहां तक संभव हो बैंकिंग परिचालन के सभी पहलुओं के लिए एसओपी जारी किए जाने चाहिए ताकि बैंकों और खासकर शाखा के अधिकारियों को यह छूट न हो कि वे उनकी व्याख्या करें, शर्तें लागू करें या ग्राहकों को ठग कर बिक्री के लक्ष्यों को हासिल करें।
दूसरा, बैंक की गलती होने पर उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई और ग्राहकों को हर्जाना देने की व्यवस्था होनी चाहिए। अगर बैंक और बैंक अधिकारी भारी जुर्मानों और नुकसान के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार हों तो वे स्वाभाविक रूप से सतर्कता का परिचय देंगे। अगर नुकसान के बदले दंड का प्रावधान नहीं किया गया तो ग्राहक सेवा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं होगा।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक हैं)