भारतीय बैंकिंग जगत में 13 अगस्त को समाप्त पखवाड़े में ऋण-जमा अनुपात 69.92 था। इसका सीधा आशय है कि प्रत्येक 100 रुपये में बैंकों ने 69.92 रुपये उधार दिए हैं। क्या ऋण आवंटन का यह स्तर काफी कम है? एक वर्ष पहले मध्य अगस्त 2020 में ऋण-जमा अनुपात 82.06 था। इस वर्ष मध्य अगस्त में यह अनुपात 9 दिसंबर, 2016 को समाप्त हुए पखवाड़े की तुलना में सर्वाधिक निचले स्तर पर है। तब नोटबंदी के कारण यह अनुपात कम होकर 69.29 रह गया था। इस एक मौके को छोड़ दें तो पिछले दशक में ऋण-जमा अनुपात मोटे तौर पर 72 से 78 (अगस्त 2013) के बीच रहा है।
स्थापित नियमों के तहत नेट डिमांड एवं टाइम लाइबिलिटी (मोटे रूप में जमा रकम) में प्रत्येक 100 रुपये में बैंक 4 रुपये नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पास रखते हैं जिस पर उसे कोई ब्याज नहीं मिलता है। इसके अलावा कम से कम 18 रुपये बैंकों को सरकारी बॉन्ड में निवेश करना पड़ता है। इस तरह बैंक 100 रुपये जमा रकम में 78 रुपये उधार दे सकते हैं। वे बाजार से उधार लेकर और पूंजी इस्तेमाल कर अधिक उधारी दे सकते हैं।
यद्यपि बैंकिग क्षेत्र का औसत ऋण-जमा अनुपात 69.92 है मगर सभी बैंकों के मामले में यह इतना कम नहीं है। कुछ निजी बैंकों का ऋण-जमा अनुपात बहुत अधिक है जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के ज्यादातर बैंकों का यह आंकड़ा कम है। हाल तक आरबीआई ने कुछ बैंकों को उनकी खस्ता हालत के कारण ऋण आवंटित करने से रोक दिया था। कुछ दिन पहले ही यूको बैंक इस सूची से बाहर निकला है।
अगर ऋण-जमा अनुपात कोई संकेत है तो फिर भारतीय अर्थव्यवस्था तेज छलांग लगाने के लिए तैयार नहीं दिख रही है। पिछले दशक के शुरू में वैश्विक वित्तीय संकट से उत्पन्न हालात के बाद भारतीय बैंकों के पास अत्यधिक नकदी थी और उन्होंने दोनों हाथों से जमकर ऋण बांटे थे। इसका नतीजा हुआ कि बैंकों में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का अंबार लगा गया और आरबीआई को परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा जैसी व्यवस्था की शुरुआत करनी पड़ी।
ज्यादातर बैंक कोविड-19 महामारी की पहली लहर का असर झेलने में सफल रहे हैं मगर फिलहाल एक अलग तरह का जोखिम है जो उन्हें संकट में डाल सकता है। बैंक इस समय काफी ब्याज पर उधार दे रहे हैं जो अब तक नहीं देखा गया था।
वे रिवर्स रीपो रेट (3.35 प्रतिशत) और वैरिएबल रेट रिवर्स रीपो ऑक्शन रेट से अधिक ब्याज कमाने का कोई भी अवसर गंवाना नहीं चाहते हैं। वे अच्छी साख एवं औसत साख वाले ग्राहकों को ऋण पर ब्याज निर्धारित करने (रिस्क प्रीमियम) में कोई सतर्कता नहीं बरत रहे हैं।
13 अगस्त तक बैंकिंग उद्योग में जमा आधार 155.7 लाख करोड़ रुपये और ऋण आधार 109 लाख करोड़ रुपये था। सालाना आधार पर जमा रकम में 10.6 प्रतिशत वृद्धि हुई है। ऋण आवंटन में वृद्धि 6.5 प्रतिशत दर से रही है। चालू वित्त वर्ष में अब तक जमा रकम में 3 प्रतिशत इजाफा हुआ है जबकि ऋण आवंटन की रफ्तार काफी कम होकर 0.6 प्रतिशत रह गई है। यह मोटे तौर पर संकेत है कि ऋण-जमा अनुपात इतने निचले स्तर पर क्यों है। इस समय ज्यादातर बैंक अधिक कमाई के लिए ऋण आवंटन पर जोर दे रहे हैं। आखिर वे ऐसा किस तरह करेंगे? ज्यादातर कंपनियां फिलहाल बैंकों से ऋण लेने के लिए आगे नहीं आ रही हैं इसलिए बैंक खुदरा ऋण आवंटन पर अधिक जोर दे रहे हैं। यह अलग बात है कि कई ग्राहकों की नौकरी चली गई है या उनके वेतन पर कैंची चली है।
फिलहाल फंसे ऋण से जुड़ीं चिताएं बैंकों को परेशान नहीं कर रही है और इस वक्त बैंकिंग उद्योग के लिए सबसे बड़ी चुनौती ऋण आवंटन में तेजी लाना है। ऋण आवंटन बढ़ाने के लिए बैंक नए तरीके भी अपना रहे हैं और इनमें एक और आपूर्ति व्यवस्था के लिए वित्त उपलब्ध कराना।
कोविड महामारी के बाद भारत में कारोबार करने का तरीका बदल गया है। बड़ी विनिर्माण कंपनियां और एफएमसीजी इकाइयों के आपूर्तिकर्ताओं को भुगतान पाने के लिए सप्ताहों और महीनों तक इंतजार कर रही हैं, वहीं तैयार सामान खरीदने वाले डीलर को अब क्रेडिट भी नहीं मिलता है। ज्यादातर कंपनियों ने कैश-ऐंड-कैरी मॉडल अपनाया है और डीलरों को विनिर्माताओं को अग्रिम भुगतान करना पड़ता है। बैंकों को यहां बड़ा अवसर दिखाई दे रहा है। विनिर्माता तो बैंकों से रकम अब कम ले रहे हैं लेकिन डीलरों को रकम की जरूरत है। बैंक आपूर्तिकर्ताओं और तैयार वस्तुओं के खरीदारों को भी पूंजी दे रहे हैं। इस तरह बैंक पूरी आपूर्ति व्यवस्था को वित्त सुविधा दे रहे हैं। बैंक रकम की कमी से जूझ रहे सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों को भी इसी माध्यम से ऋण दे रहे हैं। वे सह-उधारी (बैंक एवं एनबीएफसी मिलकर ऋण आवंटन) के जरिये लघु एवं मझोले उद्यमों (एसएमई) को भी पूंजी उपलब्ध करा रहे हैं।
आरबीआई के दिशानिर्देशों के तहत सह-उधारी व्यवस्था में शामिल बैंक और एनबीएफसी जोखिम एवं कमाई अपने बीच साझा करते हैं। इस व्यवस्था में एनबीएफसी ग्राहकों को अपने हिस्से से 20 प्रतिशत रकम देती है। वह अपने हिस्से की रकम देने के लिए साझेदार बैंक से ऋण नहीं ले सकती है। एनबीएफसी ग्राहक खोजती है, उसकी साख खंगालती है और ऋण का एक छोटा हिस्सा देती है। साझेदार बैंक शेष रकम देता है मगर एनबीएफसी ऋण की किस्त वसूलती है और ब्याज आय के अलावा फीस वसूलती है। बैंक सह-उधारी के लिए वित्त-तकनीक कंपनियों से भी साझेदारी कर रहे हैं। कमाई बढ़ाने के दबाव में भारतीय बैंक नए तरीके एवं ग्राहक खोज रहे हैं मगर कई चुनौतियां भी हैं।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं।)
