बोफोर्स तथा अन्य बातों के लिए राजीव गांधी को कोसने का चलन बन गया है मगर सच यह है कि 1985 से 1989 तक वह इकलौता दौर था, जब हमारे देश ने भविष्य को ध्यान में रखकर हथियार खरीदे थे। सबसे पहले वादा कीजिए कि आप लेख का आखिरी हिस्सा पहले नहीं पढ़ेंगे। इस लेख में एक होशियारी की गई है, जो आखिर में सामने आएगी। अरसे बाद भारत को ऐसा सैन्य प्रमुख मिला है जो कटु सत्य बोल रहा है। एयर चीफ मार्शल ए पी सिंह लगातार कहते आए हैं कि भारत की वायु सेना और प्रतिद्वंद्वी देशों की वायु सेना में कर्मचारियों तथा तकनीक के मामले में बहुत अंतर है। रक्षा क्षेत्र में जहां सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) का एकाधिकार है वहां सारे सवालों से परे मानी जाने वाली हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को भी उन्होंने आईना दिखा दिया। इस कंपनी को उन्होंने कैमरे और माइक्रोफोन के मामले में आड़े हाथों लिया। उनका बयान एकदम अलग लगता है क्योंकि हमें अपने सैन्य प्रमुखों से दीन-हीन अंदाज में यही सुनने के आदी हो गए हैं, ‘…हमारे पास जो है हम उसी से लड़ लेंगे।’
वायु सेना प्रमुख ने जो चुप्पी तोड़ी है उस पर प्रतिक्रियाएं उम्मीद के मुताबिक ही आ रही हैं। जब भी कोई कहता है कि सशस्त्र बलों के पास हथियारों की कमी है तो उसके बारे में यही कहा जाता है कि वह बिका हुआ है, या आयात का हिमायती है। आरोप लगाया जाता है कि दुष्टों की मंडली भारत को खुद की क्षमता तैयार करने से रोक रही है और महंगे आयात पर निर्भर रखना चाहती है। रक्षा क्षेत्र भी ‘इन्फ्लुएंसर्स’ का मैदान बन गया है और सेनाओं के प्रमुख सावधान हो गए हैं। इस बीच डॉनल्ड ट्रंप ने आग में एफ-35 का घी डाल दिया है।
इन बातों ने रक्षा खरीद को लगभग असंभव बना दिया है। भारत में अब भी बहुत कम हथियार और उपकरण बनते हैं। जो बनते हैं वे भी साझे उपक्रमों में बनते हैं। जब बढ़ते स्वदेशीकरण की डींगें हांकी जाएं तब खुद से पूछिए कि 200 से अधिक सुखोई 30-एमकेआई और असंख्य जगुआर या मिग बनाने के बाद भी क्या हम एक पूरा विमान अपने दम पर तैयार कर सकते हैं? हम चीनियों की तरह ऐसा नहीं कर पाते हैं। यही वजह है कि हमने 36 राफेल विमानों की खरीद को साहसी कदम बताया था। इससे गतिरोध टूटा और नई दिल्ली में चल रही लॉबीइंग और लीक बनाम लीक के सिलसिले को चुनौती मिली। परंतु हमने इसके विरुद्ध आने वाला तर्क भी स्वीकार किया: आखिर भारत के लिए ऐसी नौबत ही क्यों आई? नतीजा रहा पांच अरब डॉलर की खरीद मानो जंग के दौरान हड़बड़ी में कुछ खरीदा जा रहा हो। अपने ऊपर ‘हथियारों के सबसे बड़े आयातक’ का शर्मनाक ठप्पा हमने खुद लगाया है।
स्टॉकहोम की संस्था सिपरी जो डॉलर की 1990 की कीमत पर आयात का हिसाब लगाती है। उसके हिसाब से 2015 से 2024 के बीच 10 सालों में भारत का कुल हथियार आयात 23.7 अरब डॉलर से थोड़ा अधिक रहा। यह वैश्विक हथियार आयात का 9.8 फीसदी है मगर औसतन 2.3 अरब डॉलर के ही हथियार हर साल खरीदे गए।
यहां दो बातें हैं। पहली बात, नरेंद्र मोदी का राफेल, अपाचे, एम-777 माउंटेन हविट्जर, हारपून मिसाइल, एमएच-60 रोमियो नौसैनिक हेलीकॉप्टर, और एमक्यू-9बी ड्रोन आदि की सीधी खरीद का फैसला वैसा ही बहादुरी और समझदारी भरा फैसला था जैसे कोई अनुभवी डॉक्टर मरीज की बिगड़ती हालत देखकर एक के बाद एक सर्जरी करता जाता है। दूसरा एक प्रश्न है। दो सीमाओं पर लगातार और सीधे जूझने वाली दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सेना खुद को हमेशा आईसीयू में यानी ऐसी तंगी में कैसे रख सकती है कि अक्सर उसकी आपातकालीन सर्जरी करनी पड़े।
आप पलटकर मुझसे भी सवाल कर सकते हैं कि दुनिया में सबसे अधिक हथियार आयात करने वाला देश पर खरीद से डरने की तोहमत कैसे लगा सकते हैं? फिर उसके पास हमेशा जरूरी हथियारों की कमी क्यों रहती है? ये जायज सवाल हैं और भारत की रक्षा योजना के विरोधाभासों को सामने रखते हैं। इस पर कई किताबें लिखी जा सकती हैं। मेरी पसंदीदा किताब है स्वर्गीय स्टीफन पी कोहेन और सुनील दासगुप्ता की पुस्तक ‘आर्मिंग विदआउट एमिंग’, जो भारत में सामरिक सोच और योजना की संस्कृति न होने पर अफसोस जताती है।
इसमें लेखक बताते हैं कि भारत का सिद्धांत पूरी तरह फौरी जरूरतें पूरी करने वाला है। इस बारे में मेरा नजरिया मेरे व्यक्तिगत दस्तावेजों पर आधारित है। मेरे पास एक नोट है, जो आगे चलकर देश के रक्षा मंत्री बने जसवंत सिंह ने पेंसिल से कागज के एक पुर्जे पर लिख दिया था। 1994 की गर्मी में साल्जबर्ग में सामरिक मामलों पर एक कार्यक्रम के दौरान जब जनरल सुंदरजी भारत के सामरिक सिद्धांत की कमजोरियां गिना रहे थे तब सिंह ने मुस्कराते हुए यह पुर्जा मुझे थमाया था। उन्होंने लिखा था, ‘भारत के सैन्य-रणनीतिक सिद्धांत की पड़ताल के लिए बनी संसदीय समिति का अध्यक्ष मैं ही था। हमने देखा कि न तो कोई रणनीति है और न ही कोई सिद्धांत।’
इसमें बदलाव आने का कोई सबूत नहीं मिलता क्योंकि अगर बदलाव आया होता तो हम मोर्चे पर जाने वाले लड़ाकू विमान ऐसे नहीं खरीद रहे होते जैसे सुपरमार्केट से राशन खरीद रहे हों या हैम्लीज से खिलौने खरीद रहे हों। या हम एक साथ सैकड़ों एंटी-टैंक मिसाइल या करीब 60,000 इन्फैंट्री राइफल नहीं खरीद रहे होते। हमारी रक्षा खरीद का यही इतिहास रहा है। बस 1985 से 1989 के बीच राजीव गांधी का दौर इससे अलग था मगर उसमें से बोफोर्स का वायरस निकल आया।
इसी वायरस के डर से खरीद न्यूनतम हो गई। वरना बालाकोट के बाद मिग-21 बाइसन को एफ-16 के बेड़े में क्यों शामिल कर दिया जाता? याद कीजिए करगिल में कैसे शुरुआत में भारतीय वायु सेना को झटके झेलने पड़े थे। उसे दो मिग विमान और एक एमआई-17 लड़ाकू हेलिकॉप्टर गंवाने पड़े थे और एक को छोड़कर उसमें सवार सभी लोग मारे गए थे। जो शख्स बच गया था उसे भी पाकिस्तान ने युद्धबंदी बना लिया था। चौथा शक्तिशाली टोही विमान कैनबरा था, जिसका इंजन फेल हो गया और जिसे कुशल चालक दल बचाकर वायुसेना अड्डे पर ले आया था। बाद में विमान को वायुसेना से हटा लिया गया। चारों विमानों और हेलिकॉप्टरों को कंधे पर रखी मिसाइल से दागा गया था। इसके बाद वायु सेना ने रातोरात अपने मिराज विमानों के लिए इजरायल से लेसर उपकरण खरीदे और तस्वीर एकदम बदल गई।
ये उदाहरण ‘सब चलता है’ वाले रुख की मिसाल देने के लिए नहीं है। हम इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश में हैं कि खरीद से डर क्यों लगता है? 1987 से इसकी एक वजह बोफोर्स का खौफ है। हर रक्षा खरीद में देर की जाती है, जॉर्ज फर्नांडीज के शब्दों में कहें तो उसे अनिर्णय की भूलभुलैया में फेंक दिया जाता है। यही वजह है कि भारत में हथियारों के सौदागरों, बिचौलियों और बी 2 बी हथियार बाजार के लिए जगह बन जाती है। जनता सौदेबाजी और बदलती जरूरतों के बीच भ्रमित है, जबकि हम किसी भी और देश से ज्यादा आयात कर रहे हैं। विरोधाभास देखेंगे? 1991 के बाद हुए रक्षा मंत्रियों में एके एंटनी को सबसे अधिक अमेरिका विरोधी और जोखिम से बचने वाला माना जाता है लेकिन अमेरिका से सबसे ज्यादा हथियार भी उन्होंने ही खरीदे। सी-130, सी-17 और पी-8आई की खरीद सरकारों के बीच सौदैं से की गई और ऐसी की गई, जो आजादी के बाद कभी नहीं हुई थी। नरेंद्र मोदी ने थोड़ी ज्यादा जल्दबाजी के साथ वही तरीका फिर चलाना शुरू कर दिया।
डर से लड़ना है तो उसका सामना करना होगा। राजीव गांधी को बोफोर्स आदि के लिए कोसना आसान है मगर सच यह है कि 1985 से 1989 का दौर वह है, जब सबसे अधिक सक्रियता के साथ हथियार खरीदे गए और भविष्य का ध्यान रखा गया। आज भी तीनों सेनाओं द्वारा इस्तेमाल होने वाले ज्यादातर उपकरण राजीव गांधी के समय खरीदे गए थे। उदाहरण के लिए मिराज, टी-72 टैंक, नई सीरीज के मिग, बीएमपी सशस्त्र लड़ाकू वाहन और बोफोर्स। उन सालों में हमारा रक्षा बजट भी जीडीपी के 4 फीसदी की लक्ष्मण रेखा लांघ गया था।
आंकड़े बताते हैं कि यह डर कितना नुकसानदेह है। पिछले दशक में हमारा रक्षा आयात सोने के सालाना आयात के आधे से भी कम रहा। सच कहें तो यह रिलायंस इंडस्ट्रीज के आयात पर होने वाले खर्च के 5 फीसदी से भी कम और इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के आयात खर्च के करीब 8 फीसदी के बराबर रहा था। हम साल में औसतन 2.3 अरब डॉलर का सैन्य आयात करते हैं, जो हमारे उर्वरक आयात के एक चौथाई से भी कम है। किसानों के लिए खरीद में जवानों के लिए खरीद से कम घोटाले क्यों होते हैं? रक्षा आयात पर विवाद इसलिए नहीं होता कि इनका आकार बड़ा होता है। विवाद इसलिए होता है क्योंकि ये छोटे होते हैं, इसमें कई कंपनियां होती हैं और पूरे सिस्टम में डर बैठा हुआ है। अगर हम इस डर पर जीत हासिल नहीं करते तो हम खुद को हमेशा मुश्किल में पाएंगे और जल्दबाजी में खरीद करनी होगी।
अब आखिर में बताता हूं कि मैंने क्या होशियारी की थी। मैंने अप्रैल 2015 में राफेल विवाद के बाद एक लेख लिखा था। इस हफ्ते का आलेख बिल्कुल वैसा ही है, बस थोड़े आंकड़े और संदर्भ बदले हैं। इससे पता चलता है कि हालात बदलना या नहीं बदलना दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति का उतना ही बड़ा मखौल है।