राजनीतिक विचारधारा के आधार पर ही अदाणी मामले को लेकर अलग-अलग लोगों में गुस्सा, खुशी, व्याकुलता और शर्मिंदगी जैसे अलग-अलग भाव देखने को मिले।
राहुल गांधी को भी एक सहज मुद्दा मिल गया जिसके आधार पर वह भारत जोड़ो यात्रा के दौरान बनी अपनी छवि को मजबूत कर सकते थे।
उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि यह मुद्दा संसद में भी बहस के केंद्र में बना रहे। उन्होंने एक ऐसे कारोबारी समूह के साथ रिश्तों को लेकर सरकार से जवाब मांगा जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के गठन के बाद तेजी से शिखर पर पहुंचा है।
गांधी यह सोच सकते हैं कि राजनीतिक दृष्टि से उनके हाथ एक सही मुद्दा लगा है लेकिन वास्तव में वह विरोध करने की स्थिति में नहीं है। केंद्र या राज्य स्तर की कोई भी सरकार और न ही कोई नियामक यह दावा कर सकता है कि वह कारोबार और राजनीति के गठजोड़ के मामलों में पूरी तरह परहेज बरतता है।
हिंडनबर्ग रिपोर्ट और उसे लेकर नियामकीय स्तर पर निरंतर बरती जा रही सहिष्णुता इस बात को रेखांकित करती है। गौतम अदाणी की दंतकथाओं सी ताकत और संपत्ति को लेकर विशुद्ध आकर्षण या फिर हिंडनबर्ग रिपोर्ट में रेखांकित की गई समस्याओं से परे देखें तो हम पाएंगे कि हमारे देश में आर्थिक गतिविधियों पर सरकार के अतिशय नियंत्रण की समस्या और इससे निपट पाने में नियामकों की कमी एक जाहिर सी बात है।
यह बात ध्यान देने लायक है कि अदाणी के कारोबार की वृद्धि उन क्षेत्रों में अधिक हुई है जहां सरकारी नीतियों की अहम भूमिका होती है। बंदरगाह, हवाई अड्डे, बिजली, हरित ऊर्जा आदि ऐसे ही क्षेत्र हैं। साथ ही ये वे क्षेत्र हैं जहां उसकी मुख्य प्रतिस्पर्धा सरकारी क्षेत्र से रही है। आईटी, उपभोक्ता वस्तुओं और वाहन क्षेत्र जैसे अपवादों को छोड़ दिया जाए तो भारत में बड़े कारोबार उन्हीं क्षेत्रों में फलते-फूलते हैं जहां केंद्र, राज्य या स्थानीय सरकारें भारी हस्तक्षेप करने की भूमिका में रहती हैं।
गांधी शायद भूल गए हों लेकिन 13 वर्ष पहले दूरसंचार क्षेत्र के चलते ही कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के पतन की शुरुआत हुई थी। हालांकि इस मामले में प्रमुख दोष एक गठबंधन साझेदार का था। उस मामले में तत्कालीन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की भूमिका ने भी घटनाक्रम को कुछ ज्यादा ही बड़ा बना दिया था। ऐसा इसलिए हुआ कि उसके पहले लंबे समय तक दूरसंचार लाइसेंस आवंटन को लेकर एक अपारदर्शी प्रक्रिया अपनाई गई जिसके चलते चुनिंदा कारोबारी ही आवेदन कर सके। यह प्रक्रिया पहले आओ, पहले पाओ की नीति पर आधारित थी और एक असाधारण घटनाक्रम में अवांछित आवेदकों को सीधे रोका जा सकता था।
उस स्कैंडल में जिन तमाम राजनेताओं का नाम आया था वे 2017 में एक असाधारण तकनीकी पहलू की बदौलत रिहा हो गए और यह उस मामले का इकलौता अस्वाभाविक पक्ष था। सर्वोच्च न्यायालय ने उन सभी आवंटित लाइसेंस को निरस्त कर दिया और इस फैसले के चलते यह उद्योग दशकों पीछे चला गया।
इस पूरी गड़बड़ी में इकलौता सकारात्मक निष्कर्ष यह निकला कि आवंटन करने वाली नीतियों की जगह नीलामी को दूरसंचार और कोयला क्षेत्र का मानक बना दिया गया। सीएजी ने उसी समय कोयला क्षेत्र को लेकर भी ऐसे ही खुलासे किए थे।
ये तमाम मामले खबरों की सुर्खियों में रहने वाले थे और इन्होंने ही एक सरकार के उदय और उसके पराभव की पटकथा लिखी। लेकिन सार्वजनिक परिदृश्य के परे काम कर रहा कोई भी छोटा या मझोला कारोबारी समूह इस बात की पुष्टि करेगा कि स्थानीय सांसद, विधायक या विधान परिषद सदस्य के साथ सांठगांठ का स्तर ही किसी कारोबार का होना या न होना तय करता है।
कठोर नियम और नियमन को कारोबारी उद्देश्यों के लिए राजनीतिक संरक्षण पाने की कोशिश की वैध वजह माना जाता है। विनिर्माण कारोबार जो लंबे समय भारत का सबसे बड़ा और तेजी से बढ़ता हुआ नियोक्ता क्षेत्र था, वह उस सांठगांठ का ठोस उदाहरण है जो हमारे रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करता है: रेत माफिया जो अत्यधिक तेज गति से हमारे पर्यावरण को नष्ट कर रहे हैं, वे बिना स्थानीय राजनीतिक संरक्षण के कभी नहीं पनपते। इसी प्रकार श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन भी संभव नहीं था जो लाखों प्रवासी श्रमिकों को हमेशा मुश्किल में डाले रखता है। ऐसे उल्लंघनों को उजागर करने वाले पत्रकारों की जान भी हमेशा जोखिम में रहती है।
निश्चित तौर पर यह बात ध्यान देने लायक है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट के उजागर होने से कुछ दिन पहले अदाणी देश में सकारात्मक वजहों से सुर्खियों में नहीं थे लेकिन देश में जिस प्रकार उच्चतम स्तर पर सांठगांठ को स्वीकार्यता मिली है उसका अर्थ यही है कि उन्हें उससे ज्यादा हासिल हो चुका है जितनी कि उन्हें आलोचना झेलनी पड़ी। उदाहरण के लिए हमें पता है कि अदाणी को अपने विशालकाय सेज के लिए अन्य कारोबारियों की तुलना में काफी सस्ती दर पर जमीन मिली। या फिर यह कि सीएजी ने गुजरात सरकार द्वारा अदाणी बंदरगाह के कई शुल्क माफ कर उसे अनावश्यक लाभ पहुंचाने की बात कही।
उदाहरण के लिए 2014 में सवाल उठे थे कि सरकार के स्वामित्व वाले स्टेट बैंक ने ऑस्ट्रेलिया के विवादित खनन सौदे में अदाणी समूह के साथ समझौता क्यों किया, लेकिन इन सवालों के जवाब नहीं दिए गए। 2016 में सुनीता नारायण के नेतृत्व वाली एक समिति की रिपोर्ट के बाद खबर आई कि सरकार ने मुंद्रा बंदरगाह परियोजना मामले में पर्यावरण उल्लंघन के मामले में 200 करोड़ रुपये का जुर्माना माफ किया है। जब अदाणी समूह को छह हवाई अड्डे सौंपे गए तो नीति आयोग और वित्त मंत्रालय दोनों ने वित्तीय जोखिम और प्रदर्शन को लेकर सवाल उठाए। आश्चर्य की बात है कि किसी सांसद ने इन मसलों को संसद में नहीं उठाया।
अब अदाणी समूह क्षति को कम करने के लिए समय से पहले कर्ज चुकाने और बॉन्ड को दोबारा मोल लेने जैसे कदम उठा रहा है। गौतम अदाणी की नरेंद्र मोदी के साथ करीबी अब सार्वजनिक चर्चा में है और वह मोदी की ईमानदारी की छवि को नुकसान पहुंचा सकती है। इसमें कुछ कमी आ सकती है लेकिन इस बात में संदेह ही है कि देश के आर्थिक ढांचे में रच बस चुकी सांठगांठ का निकट भविष्य में खात्मा होगा।