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आखिर कितनी पैनी है नियामकों की नजर

Last Updated- December 10, 2022 | 8:18 PM IST

मसला यह है कि क्या नियामकों के पास इतनी विशेषज्ञता है कि वे प्रभावी ढंग से बैंकों की निगरानी कर सकें। हाल में बैंकों को भारी घाटे का सामना करना पड़ा है।
ऐसा खासतौर से अमेरिका और इंगलैंड के बैंकों के साथ देखने को मिला। इसके साथ ही बेसल-2 पूंजी अनुपात की बनावट में कमजोरी भी उजागर हुई है और साथ ही उचित मूल्यांकन लेखा मानकों को लेकर हमारी जानकारी पर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं।
कुछ पीछे जाएं तो 8 जून, 2007 के मेरे विश्लेषण के मुताबिक 2006 के दौरान आधा दर्जन से अधिक बड़े बैंकों ने मुनाफा दर्ज किया था। मेरा निष्कर्ष था कि –
‘यदि मेरे अनुमान और विश्लेषण तुलनात्मक रूप से सही हैं तो आंकड़े कई मुद्दे और सवाल उठाते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि एक प्रभावी और प्रतिस्पर्धी बाजार भुगतान जोखिम और प्रतिफल होते हैं, ऐसे में जोखिम को कमतर आंका जा रहा है। वैकल्पिक रूप से क्या बाजार जोखिमों के लिहाज से बैंकिंग निगरानी के लिए बेसल समिति (बीसीबीएस) पूंजी शुल्क काफी कम है।’
निष्कर्ष बैंकों द्वारा अपने कारोबारी मुनाफे के साथ बताए गए मूल्य जोखिमों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित हैं। यह देखना भी सुखद था कि फाइनैंशियल सर्विसेज अथॉरिटी (एफएसए) के अध्यक्ष आदिर टर्नर ने 21 जनवरी, 2009 को एक भाषण में इन्ही बिंदुओं को उठाया। इस दौरान वे ‘वित्तीय संकट और वित्तीय नियमन का भविष्य’ विषय पर चर्चा कर रहे थे।
अपने भाषण में टर्नर ने कहा कि ‘यह साफ है कि बैंकों के कारोबारी खातों के लिहाज से, हमें प्रावधानों में मामूली बढ़ोतरी नहीं बल्कि कई गुना वृद्धि करनी पड़ेगी … यह मुश्किल हालात की आशंका को कम करने में असफल रहा है, जो सकल प्रणालीगत जोखिमों के लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण है। और अगर लिए गए जोखिमों से तुलना की जाए तो बही खातों के मुकाबले पूंजी अनिवार्यता का कुल स्तर काफी कम था।’
ये ठीक वही बिन्दु हैं जिनका उल्लेख मैंने अपने लेख में किया था। इन बातों में खास बात यह है कि कैसे बाजार कुशलता पर भरोसा किया गया। उदाहरण के लिए एलन ग्रीनस्पैन (जैसा कि बताया गया है) जोखिम और प्रतिफल के बीच कोई बड़ा संबंध नहीं मानते हैं। क्या इन लोगों ने सबूतों की ओर से जानबूझ कर अपनी आंखों को बंद कर लिया था?  किसी को उम्मीद थी कि बेसल समिति किसी भी हालात का मुकाबला कर लेगी।
इसके अलावा बेसल-2 के नजरिए में एक और कमी है, जो नियामक क्रय-विक्रय की अनुमति देती है। यह बात मेरे दिमाग में उस समय आई जब मैंने यह पाया कि आखिर क्यों बड़े वाणिज्यिक बैंक और निवेश बैंक सब-मॉर्गेज ऋण को मॉर्गेज बैक्ड सिक्युरिटीज (एमबीएस) या समर्थक मॉर्गेज ऑब्लिगेशन (सीएमओ) में प्रतिभूतिकृत क्यों कर रहे हैं?
इसकी सिर्फ एक वजह यह थी कि ये ऋण एक बार फिर से उनके खातों में निवेश पोर्टफोलियो के तौर पर चढ़ जाएं। जवाब शायद यह है कि वे नियामक क्रय-विक्रय में बड़े पैमाने पर लगे हुए थे।
ऋण खाते के तहत निवेश ग्रेड से कमतर मॉर्गेज ऋण के साथ 75 प्रतिशत तक का ऋण भार जुड़ा होता है (निवेश ग्रेड से नीचे के लिए जोखिम भार 150 प्रतिशत  और मॉर्गेज ऋण के लिए 50 प्रतिशत।) जबकि उन्हें एएए प्रतिभूतियों में परिवर्तित करने से जोखिम भार घटकर 10 प्रतिशत रह गया (एएए प्रतिभूतियों के लिए 20 प्रतिशत और 50 प्रतिशत इसलिए क्योंकि यह एक मॉर्गेज ऋण है।)
अरबों डॉलर वाले पोर्टफोलियो के जरिए बैंकों ने पूंजी को 6 करोड़ डॉलर (8 प्रतिशत का 75 प्रतिशत) से घटाकर 1 करोड़ डॉलर कर सकते हैं और इसके जरिए कम पूंजी पर अधिक प्रतिफल दर्शाया जा सकता है। कारोबारी खातों में ऋण खातों के लिए एमटीएम जरूरी नहीं है।
और कुल घाटे का एक बड़ा हिस्सा मार्क-टू-मार्केट घाटा था, जो खर्च नहीं होता था और परिसंपत्तियां खाते में ही बनी रहती थीं। सच बात तो यह है कि इससे निष्पक्ष खाता मूल्यांकन की कमजोरी उजागर हुई है। यह एक ऐसा बिंदु है जिसका जिक्र इस कॉलम में पहले भी किया जा चुका है। बाजार मूल्यांकन हमेशा निष्पक्ष नहीं होते हैं। परिसंपत्तियों के लिहाज से ये बाजार तरलता पर निर्भर हैं।
एक बड़ी बीमा कंपनी अमेरिकन इंटरनैशनल ग्रुप (एआईजी), जो अब सरकारी नियंत्रण के तहत काम कर रही है, एक दूसरी ही तरह के नियामक क्रय-विक्रय में शामिल थी। जैसा कि आपको याद होगा फर्म इसलिए संकट में फंसी क्योंकि उसने 400 अरब डॉलर के के्रडिट-डिफाल्ट स्वैप (सीडीएस) की बात कही, इनमें से कुछ प्रतिभूतिकृत मॉर्गेज ऋण के रूप में थे।
यह लंदन स्थित एक छोटी इकाई ने किया था और वह बेहद लचर नियामक प्रशासन के कारण ऐसा कर सकी। अमेरिका में बीमा कंपनियों का नियमन राज्य स्तर पर किया जाता है। यह भी संभव है कि नियामक समझ न सके हों या लंदन इकाई क्या कर रही है, इसमें उन्होंने खास दिलचस्पी न दिखाई हो। और चूंकि यह एक अमेरिकी कंपनी की इकाई थी, इसलिए संभवत: एफएसए ने भी उसकी गहराई के साथ निगरानी नहीं की।
टर्नर ने कारोबारी खाते के संबंध में नियामकों द्वारा आर्थिक उतार-चढ़ावों को तेज करने की नीति (प्रो-साइक्लिकैलिटी) से जुड़े मुद्दे को भी उठाया है। बैंकिंग खातों के मामले में इस प्रो-साइक्लिकैलिटी का जोर-शोर से उल्लेख किया गया है, जिसने आर्थिक मंदी के दौरान बैंकों को उतार-चढ़ावों को कम करने की कोशिश (काउंटर-साइक्लिकैलिटी) करने से रोका।
एक मंद पड़ी अर्थव्यवस्था का अर्थ है गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) में बढ़ोतरी, जिसके कारण बैंकों की पूंजी में सेंध लग जाती है और कर्ज देने की उनकी क्षमता कम हो जाती है। बैंकों द्वारा कर्ज जारी करने की अक्षमता या अनिच्छा के कारण मंदी और लंबी खिंचती है, और यह ऐसे बदतर हालात हैं जिससे दुनिया फिलहाल जूझ रही है।
एक बार फिर वित्तीय सेवाओं के नियमन पर आते हैं। यहां दो मुद्दे और हैं। बैंकों की पूंजी में क्या कुछ शामिल होना चाहिए? क्या आधुनिक वित्त व्यवस्था की प्रभावी निगरानी करने के लिए नियामकों के पास पर्याप्त विशेषज्ञता है? इन मसलों पर बहस जारी रहेगी।

First Published - March 17, 2009 | 11:14 PM IST

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