मैं इस बात की समीक्षा करने की कोशिश कर रहा हूं कि बजट 2008-09 में केंद्रीय सीमा शुल्क की धारा 2 (डी) के तहत सीमा शुल्क के अंतर्गत आने वाली सामग्रियों की परिभाषा में संशोधन करने के पीछे मुख्य वजह क्या रही होगी।
व्याख्या- इस अनुच्छेद का मुख्य उद्देश्य सामग्रियों की श्रेणी में किसी भी प्रकार का सामान, सामग्री या वस्तु को लाया गया है जिसे सामान की तरह बाजार प्रणाली के तहत बेचा जाता है। इस बात से स्पष्ट है कि बाजार की परिकल्पना इस संबंध में काफी महत्त्वपूर्ण है और इसी से इस बात का निर्धारण किया जाएगा कि कोई सामान कैसे सीमा शुल्क के दायरे में आता है या नहीं।
वैसे यह काफी उलझा हुआ मसला है। इस बात की स्वीकृति तो सामान्य सी बात है कि जो सामान बाजार में बेचा जाता है उसे सीमा शुल्क के दायरे में आना चाहिए। लेकिन समस्या तब होती है माध्यमिक सामान (ज्यादातर रसायन) की बिक्री की बात हो जिसे बेचने के लिए बाजार में एक बड़े जगह या किसी उपयुक्त प्रणाली की जरूरत नहीं होती है।
सर्वोच्च न्यायालय के कई फै सले में यह बात कही जा चुकी है कि ऐसे सामान जो खरीदने और बेचने की प्रक्रिया से गुजरते हैं लेकिन उसकी बाजारीय प्रणाली अन्य सामान से थोड़ा अलग होती है, फिर भी वह सामान बाजार के अंतर्गत ही आएगा। यही बात इस धारा 2 (डी) के संशोधनों में भी वर्णित की गई है।
अब जरा कुछ फैसलों पर अपनी नजर दौडाते हैं। इस तरह का पहला सबसे चर्चित विवाद भोर इंडस्ट्रीज (1989 (1)एससीसी602) का था जिसमें कहा गया था कि कच्चा पीवीसी बाजारीय श्रेणी में नही आता है क्योंकि इसके लिए बाजार में ज्यादा सेल्फ की जरूरत नहीं होती है।
इसके बाद यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठता है कि सेल्फ लाइफ क्या है और क्या इसका निर्धारण प्रायोगिक या काल्पनिक तौर पर किया जाता है। इस पर न्यायालय ने यह क हा था कि ऐसे सामान जिसकी प्रकृति अस्थिर है , फिर भी इसे सैद्धांतिक तौर पर बाजारीय माना जाता है। लेकिन इस संबंध में एक प्रायोगिक तरीका होना चाहिए।
अगर वास्तविकता को देखें तो पता चलता है कि स्टार्च हाइड्रोसाइलेट को कभी बाजारीय प्रणाली के तहत नहीं बेचा गया, लेकिन इस तरह के अस्थिर सामान को बाजार की प्रणाली के तहत रखा जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले में गुजरात नर्मदा घाटी फर्टिलाइजर को. लिमिटेड बनाम सीसीई, 2005 (184) ईएलटी128(एससी) में कहा था कि केवल बाजारीय प्रणाली को पूरा करने और सेल्फ लाइफ को ज्यादा पाने से कोई सामान स्थायी नहीं हो सकता है। किसी भी सामान का वाणिज्यिक अस्तित्व भी बाजार को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक है।
अगर सर्वोच्च न्यायालय यह कहता है कि वाणिज्यिक अस्तित्व बिक्री का एक पैमाना है तो इस लिहाज से नई परिभाषा के अनुसार बाजारीयता में हुआ संशोधन महत्त्वहीन हो जाता है। पहले के फैसलों के आधार पर बाजारीयता को दो पक्ष रहे हैं-
क. बिकने और खरीदे जाने की योग्यता और
ख. बिक्री का साक्ष्य अर्थात् वाणिज्यिक अस्तित्व का होना ।
वर्तमान संशोधन में पहली शर्त को तो रखा गया लेकिन दूसरी शर्त को हटा दिया गया। लेकिन विवाद अभी पूरी तरह से खत्म नही हुआ क्योंकि निर्माता इस बात का दावा करते हैं कि उनके द्वारा उत्पादित वस्तु बेचने और खरीदने की प्रक्रि या के अंतर्गत नही आता है। अब अगर ऐसा ही रहा तो न्यायालय में एक केस और दाखिल होगा अगर राजस्व इस पर तैयार नही होता है। लेकिन यह मामला केवल (क) के संबंध में सीमित है।
इस पूरे बातचीत का निष्कर्ष यह है कि यह संशोधन तब ही सार्थक होगा जब नियम (क) को सीमित किया जाए और उसपर विशेष ध्यान दिया जाए लेकिन अलग अलग केसों में पड़ताल के तरीके भी अलग अलग होने चाहिए। वैसे इस संशोधन का स्वागत करना चाहिए क्योंकि इससे बाजार में बिक्री और खरीद की स्थिति ज्यादा स्पष्ट होगी।