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खस्ताहाल कंपनी को सुप्रीम कोर्ट की फटकार

Last Updated- December 07, 2022 | 5:43 AM IST

एक खस्ता हाल कंपनी, जो बड़े ऑर्डर तो दे देती है और विक्रेता को चेक भी जारी करती है लेकिन भुगतान का उसका कोई वास्तविक इरादा नहीं होता है, पर फौजदारी मुकदमा चलाया जाना चाहिए।


उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में यह आदेश दिया है। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि ऐसी कंपनी पर निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत फौजदारी मुकदमा चलना चाहिए।  यह मामला सदर्न स्टील लिमिटेड बनाम जिंदल विजयनगर स्टील लिमिटेड से जुड़ा हुआ है।

इस मामले में पाया गया कि कंपनी के निदेशकों ने कंपनी की खस्ता हालत को जानते हुए भी चेक जारी किए। लेकिन जब चेक बाउंस हुआ तब जिंदल स्टील ने कानूनी कार्यवाही शुरू की , लेकिन सदर्न स्टील ने कहा कि वह बीमारू कंपनी है इसलिए कार्यवाही नहीं होनी चाहिए।

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उसकी अपील खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी अपील को खारिज कर दिया। उसने अपने फैसले में कहा कि सदर्न स्टील ने अपने आचरण की वजह से साख खो दी है। जब इसको बीमारू कंपनी घोषित कर दिया गया था तो उसने जिंदल स्टील से बड़ी खरीद का ऑर्डर क्यों दिया।

इसका सीधा सा मतलब है कि कंपनी ने जो भी खरीद की, उसका भुगतान करने का उसका कोई इरादा नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालत से इस आपराधिक मुकदमे को 6 महीने के भीतर निबटाने को कहा।

प्लॉट आवंटन

हरियाणा राज्य औद्योगिक विकास निगम और कंपनियों के बीच विवाद का सुप्रीम कोर्ट में निबटारा हो गया है। यह मामला निगम द्वारा कंपनियों को प्लॉट आवंटित करने से जुड़ा है। अब निगम इन कंपनियों को चालू बाजार दर पर प्लॉट पुनर्आवंटित करने की बात कर रहा है। कई कंपनियां निगम की इस शर्त पर सहमत भी हो गई हैं। इस सरकारी निगम ने 2001 में कंपनियों को प्लॉट आवंटित किए थे।

इनमें से कई कंपनियों ने अलग-अलग कारणों के चलते अभी तक अपना काम शुरू नहीं किया है, जबकि कुछ कंपनियों को निगम की मदद भी मिली। जिन कंपनियों का काम शुरू नहीं हो पाया, उनका आवंटन निगम ने रद्द कर दिया। इन कंपनियों ने निगम के इस फैसले को पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी।

कोर्ट ने निगम को आदेश दिया कि वह इन कंपनियों का भुगतान वापस करे। इसके बाद निगम मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। सुप्रीम कोर्ट ने कई अलग-अलग मामलों का अध्ययन किया और निगम के दोबारा प्लॉट आवंटन करने के फैसले पर सहमत हो गया। कोर्ट ने इन कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे आवश्यक राशि 6 हफ्तों के भीतर जमा करा दें। साथ ही निगम को भी निर्देश दिया गया है कि भुगतान के 1 महीने के भीतर ही कंपनियों को प्लॉट पर कब्जा दे दिया जाए।

सिविल कोर्ट को अधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार (एमआरटीपी) आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि वह किसी हाउसिंग अथॉरिटी को किसी आवेदक को प्लॉट आवंटित करने का आदेश दे।

यदि कोई व्यक्ति प्राधिकरण द्वारा प्लॉट आवंटन में भेदभाव को लेकर शिकायत करे तो यह शिकायतकर्ता व्यक्ति के लिए मुआवजे की बात प्राधिकरण से कर सकता है। इस मामले में वेद प्रकाश अग्रवाल ने ने एक प्लॉट के लिए गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के समक्ष आवेदन किया था।

कुछ समय के बाद इनका आवेदन निरस्त कर दिया गया। इसके बाद अग्रवाल ने प्राधिकरण की शिकायत, आयोग से करते हुए इस मामले में हस्तक्षेप करने को कहा। आयोग ने अग्रवाल की शिकायत मंजूर करते हुए प्राधिकरण को अग्रवाल को वैकल्पिक प्लॉट आवंटित करने को कहा। इसके बाद प्राधिकरण ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में उठाया।

सुप्रीम कोर्ट ने आयोग के निर्देश को दरकिनार करते हुए कहा कि आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है। यह अधिकार सिविल कोर्ट के पास है। इसमें आयोग को कहा गया कि वह केवल मुआवजे और पुर्नभुगतान के आधार पर मामलों को देखे।

ओएनजीसी की अपील खारिज

सुप्रीम कोर्ट ने तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) की अपील को खारिज कर दिया। यह मामला 90 के दशक के आखिर में निगम के एक अस्थायी कर्मचारी को स्थायी करने से जुड़ा हुआ है। इस मामले में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी निगम के खिलाफ ही फैसला दिया था। इसमें हाईकोर्ट ने फैसला दिया था कि ओएनजीसी के अनुबंधित कर्मचारी भी कंपनी के ही कर्मचारी माने जाएंगे, किसी ठेकेदार के नहीं।

औद्योगिक ट्राइब्यूनल ने पाया कि ओएनजीसी ने किसी भी ठेकेदार की नियुक्ति नहीं की। वह केवल कर्मचारियों को काम बांटता है और उसका पर्यवेक्षण करता है। वही कर्मचारियों को रोजाना के हिसाब से  मजदूरी देता है। इसमें कुछ कर्मचारियों के खिलाफ भी अनुशानात्मक कार्रवाई की गई। इसके मुताबिक ओएनजीसी और यूनियन के सदस्यों के बीच मालिक और नौकर जैसे संबंध हैं। 

First Published - June 16, 2008 | 1:36 AM IST

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