हमलोग आतंक के माहौल में जी रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली में हुए बम विस्फोट से काफी जान-माल की क्षति हुई और पूरे शहर में आतंक पसर गया।
कुछ दिनों के बाद पुलिस ने दावा किया कि उसने इस मामले को सुलझा लिया है और इसके तहत उसने एक मास्टरमाइंड को भी मुठभेड़ में मार गिराया। मीडिया ने भी इस मामले को लेकर काफी हल्ला मचाया।
मीडिया ने पुलिस की कार्रवाई पर अपना कैमरा केंद्रित रखा और उसने उसी मास्टरमाइंड पर अपना ध्यान फोकस किया, जिस पर पुलिस शक कर रही थी। हालांकि इस पूरी घटना का वास्तविक मास्टरमाइंड कौन है, यह अब तक स्पष्ट नहीं है।
यही वजह रही कि दिल्ली को एक और बम धमाके से गुजरना पड़ा। इस बार पुलिस के पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं था। वह अपने दावे को लेकर इस बार चुप्पी बनाए हुई थी। इस घटना के बाद राजनीतिक दलों में खुसर फुसर होने लगी और वे आतंक से निपटने के लिए एक सख्त कानून की मांग भी करने लगे। कमोबेश यही हाल व्यापार और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी होता है।
जब भी कोई बड़ी घटना घटती है, उसके बाद ही सख्त कानून की दरकार पड़ती है। चाहे यह आतंकवाद हो या भेदिया कारोबार और मूल्य गणना संबंधी आर्थिक अपराध, जरूरत इस बात है कि भारत में इन सबके लिए एक सख्त दिशा निर्देश और कानून की व्यवस्था की जाए। इस संबंध में ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि अपराध को साबित करना आसान हो जाए।
अगर भारत के कानून की बात की जाए, तो इस तरह के अपराध के लिए यहां सख्त सजा का प्रावधान है। जरूरत इस बात की है कि इस तरह के अपराध में लिप्त कारकों की पहचान करने के तौर तरीके को आसान बनाया जाए। अगर इस तरह के मानक की व्यवस्था की जाएगी, तो अपराध साबित हुए मामलों की संख्या इतनी हो जाएगी कि आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे।
यह दलीलें दी जाती हैं कि जितने मामलों में दोष साबित होगा, उतना ही समाज पर उसका अच्छा असर नहीं होगा। सच से कोई भी चीज काफी समय तक दूर नहीं रह सकती है। बात यह है कि अगर अपराध को आसानी से साबित किया जा सके तो साबित हुए अपराध के मामलों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हो सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि इससे अपराध पर रोक लगेगी।
ऐसा ही तब होगा जब अति ज्ञानवान समाज की रचना के लिए परीक्षा को आसान बना दिया जाए। आज 95 प्रतिशत से ज्यादा अंक लाने वाले छात्रों की संख्या 20 साल पहले की तुलना में ज्यादा है। इसके बावजूद आज स्नातक उतीर्ण छात्र बीस साल पहले की तुलना में कम रोजगार पाते हैं।
अगर कानून का मकसद समाज को यह स्पष्ट करना है कि अपराध से कुछ हासिल नहीं होता है, तो कानून प्रवर्तक के लिए किसी अपराध को साबित करना आसान काम नहीं होगा। अगर अपराध को साबित करने का काम आसान बना दिया जाए तो इससे यह गलत एहसास होने लगेगा कि समाज से अपराध को मिटाने की जिम्मेदारी उनके कंधे पर है।
अगर प्रमाणीकरण की प्रक्रिया आसान होगी, तो ज्यादा से ज्यादा निर्दोष लोग अपराधी साबित होते रहेंगे। इससे कानून को लागू करने वाले मात्र आंकड़े बढ़ाने में सफलता प्राप्त करते रहेंगे। न्यायिक प्राधिकरणों को भी इसी आधार पर मापने की जरूरत है।
आज कल ऐसे मामले बढ़ रहे हैं, जिसमें गंभीर अपराधी को फेयर ट्रायल मिल जाता है। वैसे इसके लिए मीडिया को भी धन्यवाद देने की जरूरत है, क्योंकि वह इस तरह के मामले को काफी तूल देती है। चाहे वह आर्थिक कानून हो या अपराध कानून, अगर आज्ञाकारी तरीके से इसे मीडिया में कवरेज मिले, तो इससे किसी भी अप्रभावी मामले को भी नियंत्रित करने में आसानी होगी।
आज भारत में जिन अनेक हाई प्रोफाइल ट्रायल के बारे में पढ़ा जा रहा है, उन्हें अन्य जगह मिसट्रायल के रूप में देखा जा सकता है। जज, जो कि एक मानव भी हैं, मीडिया की चकाचौंध में काम करने में सतर्क रहते हैं। लगातार ऐसा हो रहा है कि अदालतों के न्यायाधिकार क्षेत्र में संसद का दखल बढ़ रहा है, जो कि नियामकों की कार्रवाई के खिलाफ अपील सुनने के लिए ट्रिब्यूनल बना रही है।
फिर चाहे वह सुरक्षा संबंधी कानून हो या बिजली से संबंधित, या फिर कथित आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध से संबंधित कानून, इन सभी मामलों में ट्रिब्यूनल में जहां पर कार्यवाहियां चलती है। हालांकि संसद ने ऊंची अदालतों में अपील के लिए वैधानिक अधिकार दे रखा है।
मिसाल के तौर पर, सिक्योरिटीज अपील ट्रिब्यूनल द्वारा कानून पर उठाए गए सवाल से संबंधित अपीलें सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। सर्वोच्च न्यायालय वैधानिक अपीलों को वैसे ही देखता है, जैसे विशेष अनुमति याचिकाओं को देखता है। अदालत को ये फैसला करने का अधिकार है कि किसी अपील से समय और ऊर्जा तो बर्बाद नहीं हो रही।
ट्रिब्यूनल के फैसलों के खिलाफ कई अपीलों को सुना तक नही जाता। इससे अपील प्रक्रिया की प्रभावकारिता का क्षय होता है। यह जज पर निर्भर करता है। कुछ जज बहुत ज्यादा उदार होते हैं, तो कुछ बेहद परंपरावादी। ऐसे में चाहे वह नियामक हो या आरोपी, अपील का प्रभाव खत्म हो जाता है।
प्रभावकारी नियामक और उसको लागू करने का कारण लचीला कानून नहीं हो सकता है। चाहे वह आतंकवाद हो या इनसाइडर ट्रेडिंग, आरोपियों की बढ़ती संख्या सांख्यिकीय आराम जरूर दे सकती है, लेकिन इससे प्रवृतियों को रोकना मुश्किल है। इस तरह के अपराधों में सही उत्तर तब ही मिलेगा, जब आरोपी को पता लगाने की प्रक्रिया में उदारता लाई जाए।
(लेखक जेसीए, एडवोकेट एंड सॉलिसिटर के सदस्य हैं। यहां पर दिए गए विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)