जैसा कि हम जानते हैं कि सेवा कर, जो कि पिछले एक दशक से भारत में लागू है, अब अपने गंतव्य आधारित खपत कर की तरफ अग्रसर है। इसके परिणामस्वरुप सेवा कर वहां पर आरोपित किए जाएंगे जहां खपत होगी।
इसका उल्टा यह हुआ कि जहां इसका निर्यात किया जाएगा वहां इसे आरोपित नहीं किया जाएगा। इसलिए भारत से सेवाओं का निर्यात घरेलू सेवा कर कानून से मुक्त हो सकता है। यद्यपि निर्यात पर सेवा कर लगाना उचित भी नहीं है।
सेवा कानून के निर्यात कानून 2005(नियम) में पहली बार निर्यात पर सेवा करों की संपूर्ण व्याख्या की गई थी और इसके अलावा इसमें यह भी कहा गया था कि निर्यात को किस तरह से सेवा कर से मुक्त रखा जा सकता है। इस नियम के तहत निर्यात पर लगने वाले सेवा कर को तीन बड़ी श्रेणी में रखा गया और हर श्रेणी के अंतर्गत कर में रियायत के लिए अलग अलग उपबंध किए गए हैं।
इसके अतिरिक्त इसमें दो और शर्तें जोड़ दी गई है जो इस हरेक श्रेणी के आयात के लिए सीमाओं की व्याख्या करता है। इसमें उन सेवाओं को लिया गया है जो भारत से बाहर के देशों को भेजा जाता है या भारत के बाहर निर्यात किया जाता है और उसके बदले हस्तांतरण स्वीकार किए जाते हैं।
यह शर्त सबसे पहली बार वित्त कानून 2006 में कही गई थी और इसका संशोधन बाद में 1997 में किया गया था। हालांकि विदेशी हस्तांतरण की प्राप्ति काफी सीधा मुद्दा है और इसपर ज्यादा विवाद की कोई जगह नहीं है। जब वित्त कानून 2006 को पहली बार लाया गया था, तो उसमें देश के बाहर डिलीवरी और सेवा के इस्तेमाल के बारे में कहा गया था।
वैसे इसमें भारत के बाहर सेवाओं की डिलीवरी को लेकर कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई थी और न ही भारत से बाहर इसके प्रयोग के बारे में ज्यादा कुछ कहा गया था। इसलिए सेवाओं के निर्यात को लेकर दुविधा बनी हुई थी। मार्च 2007 में भारत से बाहर सेवाओं की डिलीवरी को हटा दिया गया और इसमें एक अतिरिक्त शर्त यह जोड़ दी गई कि यह एक ऐसी सेवा है, जो कि भारत से उपलब्ध होनी चाहिए और यह भारत से बाहर जाता हो। वैसे यह थोड़ी राहत देने वाली बात थी ।
जहां भारत में सेवाओं की डिलीवरी को लेकर कोई स्पष्ट उपबंध नहीं थे, वहां इस तरह की बातों से थोड़ी राहत तो महसूस होनी ही चाहिए। वैसे इसमें कोई शक नहीं कि प्रस्तावों के अभाव में भारत के अंदर या भारत के बाहर सेवाओं की उपलब्धता को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई रहती है। वैसे भारत के अंदर सेवाओं के प्रस्ताव को विशेष स्थितियों में समझना आसान होता है लेकिन समस्या तब शुरु होती है जब भारत से बाहर प्राप्तकर्ता द्वारा इसके इस्तेमाल की बात की जाती है।
वैसे इस तरह की सेवाओं को लेकर अस्पष्टता का माहौल बना हुआ रहता है और इसकी प्रकृति भी असामान्य होती है। खासतौर पर समस्या तब होती है जब इसके क्रियान्वयन की बात होती है। जैसे कि सेवाओं की मार्केटिंग, जो कि विदेशी सिद्धांतों पर कार्य करती है, को क्रियान्वित करने में तो और मुश्किलें आती है।
सेवाओं की मार्केटिंग की सीमा काफी विस्तृत होती है और इसमें उपभोक्ताओं की आकांक्षाओं, प्रमोशन इवेंट को संचालित करना, ऑर्डर स्वीकार करना और इस तरह की बहुत सारी बातों का समावेश होता है। इसके प्रदर्शन के संदर्भ में यह बात अहम होती है कि इस तरह की गतिविधि से क्या इस बात की पुष्टि होती है कि अमुक सेवा भारत के बाहर इस्तेमाल किए जाने चाहिए या इस तरह की सेवाओं का इस्तेमाल केवल विदेशी सिद्धांतों पर किया जाना चाहिए।
दूसरे शब्दों में कि केवल सेवाओं को हासिल करने वाला अगर भारत के बाहर का है तो क्या इसे भारत के बाहर की सेवाओं के तहत रखा जाना चाहिए? सेवा कर ट्रिब्यूनल ने हाल में ही ब्लू स्टार लि. बनाम सीसीई (2008-टीआईओएल-716-सीईएस-टीएटी) के मामले में इस संबंध में कुछ प्रमुख निर्णय दिए हैं। इस मामले में तथ्य यह था कि कंपनी ने विदेशी सिद्धांतों के आधार पर अमेरिका और इंगलैंड और दूसरे देशों से ऑर्डर बुक कराये थे।
इसमें ऑर्डर भारत में बुक कराये जा रहे थे और सामान विदेशी आपूर्तिकर्ता के प्रत्यक्ष संपर्क में था। एकबार विदेशी आपूर्तिकर्ता इन सामानों को भारतीय उपभोक्ताओं को बेच देते हैं तो इसका कमीशन अपीली कंपनी को दिया जा रहा था। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि ऑर्डर की बुकिंग और उपभोक्ताओं की आकांक्षाओं को भारत में प्रस्तावित करने के लिए इस तरह की सेवाएं दी जा रही थी और इसके बदले विदेशी हस्तांतरण स्वीकार किए जा रहे थे। इसलिए इसमें कहा जा रहा था कि इसे भारतीय सेवाओं के अंतर्गत रखना चाहिए और इसमें कर में रियायत देनी चाहिए।