अगर आप सुधार की प्रक्रिया पर एक नजर डालें तो आपको पता चलेगा कि इस दौरान कानून से ज्यादा नीतियों में बदलाव हुआ है। ज्यादातर मामले में विधायी परिवर्तनों का कड़ा विरोध किया गया।
भारतीय सांसद पुराने पड़ चुके या कोई काम के नहीं रह गए कानूनों को बदलने में कतराते रहे हैं। इस तरह से हम कई तरह की विसंगतियों और बेहूदेपन से जूझते रहे हैं। मिसाल के तौर पर भारतीय टेलीग्राफ कानून 1885 को ही ले लिया जाए, जिसके तहत मोबाइल टेलीफोन सेवा को भी नियंत्रित किया जाता है और साथ ही क्रिकेट मैचों के प्रसारण का भी नियंत्रण इसी के आधार पर किया जाता है।
हालांकि इन सुधार प्रक्रियाओं से भारत का श्रम कानून ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ। श्रम सुधार आज वामपंथी दलों और सरकार के बीच विवादों का एक अखाड़ा बन गया है। आज ट्रेड यूनियन और श्रमिकों से जुड़े मामलों को सीधे वामपंथी विचारधाराओं से जोड़कर देखा जाता है।
इसके अलावा जब भी श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा की बात की जाती है, तो उसमें ज्यादातर संख्या में संगठित क्षेत्र के मजदूरों की ही बात हो पाती है। इसमें कुल श्रम शक्ति के मात्र 7 प्रतिशत मजदूर ही आते हैं जो मुख्यत: सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के हैं।
अभी जो भारत में आर्थिक एक्सप्रेस ने रफ्तार पकड़ी है, उसमें असंगठित क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान है। बिना किसी सुरक्षा के जिस प्रकार असंगठित क्षेत्र ने रोजगार के अवसर सृजित किए हैं, वह काबिले गौर है। इस लिहाज से अगर संगठित क्षेत्र के विकास को देखें, तो वह काफी कम हुआ है। भारत का श्रम कानून श्रम की गतिशीलता को पूरी तरह से बचाने की कोशिश करता है और यही वजह है कि संगठित क्षेत्र में विकास की दर धीमी हो गई है।
संगठित क्षेत्र में इस तरह के लचीलेपन से जटिलता बढ़ती गई और इस सच्चाई से संगठित क्षेत्र दूर भागता गया कि लाभ कमाना हर कंपनियों का उद्देश्य होता है। इससे न सिर्फ कंपनियों को फायदा होता है, बल्कि सारे शेयरधारी भी इससे लाभान्वित होते हैं। इस संबंध में उत्तम नाकाटे का मामला काफी रोचक है।
एक कर्मचारी डयूटी के वक्त कंपनी परिसर में सोया हुआ पाया गया था और उसे अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत दोषी पाया गया। इसके बाद नाकाटे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गया। सर्वोच्च न्यायालय ने नाकाटे की बात सुनी और कंपनी से कहा कि उसे उस दिन के कुल मेहनताना का आधा दिया जाए।
यह मामला पिछले 12 सालों तक चलता रहा, जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से नाकाटे के समर्थन में फैसला नहीं सुना दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्णय सुनाए थे, वे तत्कालीन नियमों पर आधारित थे, जबकि इसकी व्याख्या में और ज्यादा स्पष्टीकरण की जरूरत थी। यही वजह रही कि सर्वोच्च न्यायालय को भी इस मामले को निपटाने में 20 साल लग गए।
जब भी कानूनी सुधारों की बात की जाती है, तो केवल विसंगतियों को हटाकर उसे नहीं लाया जा सकता है। मिसाल के तौर पर फैक्ट्री कानून को ही लें। इसमें यह तक कहा जाता है कि फैक्ट्रियों की पुताई होनी चाहिए और अग्निशमन सुरक्षा के लिए लाल बाल्टी में बालू भर कर रखा जाना चाहिए। यह इसलिए किया जाता है ताकि एक मानक तय किया जा सके और सौहार्द्र और विसंगति को खत्म किया जा सके।
क्या बीड़ी बनाने वाले उद्योगों में तीन विशिष्ट केंद्रीय कानून की जरूरत है? जब हेल्थकेयर केंद्रों और अस्पतालों में महिलाएं दिन और रात दोनों शिफ्टों में काम करती है, उस स्थिति में क्या यह नियम होना चाहिए कि बीपीओ क्षेत्र में महिलाओं को रात की शिफ्ट में काम नहीं करना चाहिए? इस तरह फैक्ट्री कानून के तहत कुछ निर्देशों और बाधाओं का दूर करने की दरकार है।
प्रबंधनीय सुरक्षा पद्धति और पेशेगत सुरक्षा की जरूरत की फैक्ट्री कानून में व्याख्या होनी चाहिए। इसके साथ ही कार्य स्थलों की गरिमा और आवागमन की समुचित व्यवस्था भी जरूरी है। भारत में अपेक्षित संशोधन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के दिशा निर्देशों का पूरक होना चाहिए और इसमें इस बात की आशा जगाई जानी चाहिए ताकि महिलाओं को काम और कौशल दिखाने का सही अवसर प्राप्त हो सके।
वाम दल हमेशा से लिंग बराबरी की बात करता रहा है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि विपक्षी पार्टियां किस विचारधारा के तहत महिलाओं के अधिकार से जुड़े मुद्दों पर चुप्पी साध लेती है। संरक्षणात्मक विधायिकी में समस्या तब खड़ी होती है, जब लचीलेपन की गुंजाइश की उम्मीद लगाई जाती है। वह भी इस आधार पर कि श्रम हमेशा सही होता है। इस लिहाज से नाकाटे का दावा भी गलत नहीं मालूम पड़ता है।
अगर पश्चिम बंगाल में मजदूर वेतन को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं, जब कि वे ओवरटाइम कर रहे हों, तो इसमें गलत क्या है। औद्योगिक विवाद कानून का अध्याय 5 बी देखिये। यह इस बात की मांग करता है कि अगर राज्य सरकार के 100 मजदूरों की छंटनी कर दी जाए, या संगठन को बंद कर दिया जाए या उसे कहीं दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया जाए, तो फिर से कर्मचारियों को एकजुट कर उनसे काम ले पाना मुश्किल हो जाएगा और निश्चित तौर पर इससे विकास में बाधा आएगी।
संयोग से द्वितीय राष्ट्रीय आयोग ने कहा था कि उद्योगों के बंद होने की घटना को छोड़कर सारी गतिविधियों की सूचना पहले दी जानी चाहिए। इसी तरह की बातें अनुबंधित श्रम कानून (सीएलआरए) को लेकर है। इसके तहत राज्य सरकार को यह अधिकार दिया जाता है कि किसी संगठन की श्रम शक्ति में अनुबंधित कामगारों को समाहित किया जाना चाहिए या नहीं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय वास्तविक स्थिति पर ध्यान देने की जरूरत की ओर इशारा करती है।