वर्ष 2020 में सरकारी डेटा में शामिल मरने वाले 100 लोगों में से करीब 45 लोगों का इलाज नहीं हो सका। महामारी से पहले के वर्ष 2019 में मरने वाले 35.5 फीसदी के आंकड़े के मुकाबले 2020 के लिए यह आंकड़ा 10.5 फीसदी अधिक है यानी यह आंकड़ा 45 फीसदी तक है। सरकार के नागरिक पंजीकरण तंत्र के महत्त्वपूर्ण आंकड़े पर आधारित रिपोर्ट में कोविड-19 सहित अन्य वजहों से भी मरने वाले लोगों के आंकड़े शामिल हैं। इसके मुताबिक मरने वाले केवल 28 प्रतिशत लोगों को ही किसी अस्पताल में इलाज मयस्सर हो पाया।
2015 से पहले की रिपोर्ट में इस तरह के आंकड़े कम ही है। मिसाल के तौर पर 2011 और 2012 में यह संख्या 20 फीसदी से कम थी। हालांकि इसका संबंध इस तथ्य से भी है कि पंजीकरण में सभी मरने वालों के आंकड़े शामिल नहीं हो पाते। 2019 के ‘भारतीय नागरिक पंजीकरण प्रणाली में मृत्यु पंजीकरण की पूर्णता (2005 से 2015)’ शीर्षक वाले अध्ययन के मुताबिक डेटा संग्रह से जुड़ी समस्याओं में कमी आई है। इसके लेखक पब्लिक फाउंडेशन ऑफ इंडिया के जी अनिल कुमार, ललित डंडोना और राखी डंडोना हैं। इसमें कहा गया, ‘भारतीय नागरिक पंजीकरण प्रणाली (सीआरएस) में मृत्यु पंजीकरण की पूर्णता (सीओआरडी) का मूल्यांकन किया गया जिसमें अंदाजा मिला कि 2005 से 2015 के बीच भारत में पूर्ण तरीके से कराए गए मृत्यु पंजीकरण में करीब 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि 2015 में सीओआरडी करीब 76.6 फीसदी तक रहा।’
भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद के पूर्व प्रोफेसर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के निदेशक दिलीप मावलंकर का कहना है कि पंजीकरण डेटा में एकरूपता के बाद मेडिकल इलाज की उपलब्धता में किसी भी तरह की गिरावट स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा या गरीबी के मसले का संकेतक है।
बच्चों के जन्म के दौरान भी मेडिकल सुविधाओं की कमी के समान रुझान देखने को मिले। 2020 में बच्चों को जन्म देने वाली 100 महिलाओं में से केवल 74 महिलाओं को ही सरकारी या निजी अस्पतालों की सुविधा मिली थी जबकि 2019 में यह तादाद 81 थी।
वर्ष 2021 के ‘संस्थागत प्रसव दर पर कोविड-19 के प्रभाव: मातृ मृत्यु दर में बढ़ोतरी का डर’ शीर्षक के अध्ययन के मुताबिक अस्पतालों में बच्चों के जन्म होने से प्रसव के दौरान मां के मरने की आशंका कम हो जाती है। इस शोध के लेखक बांग्लादेश की खुलना यूनिवर्सिटी के रहमान एमए, कनाडा में यूनिवर्सिटी ऑप मैनिटोबा के हेनरी रातुल हल्दर और ऑस्ट्रेलिया की डेकिन यूनिवर्सिटी के शेख मोहम्मद शरिफुल इस्लाम शामिल हैं। इस अध्ययन में बताया गया है कि दुनिया भर में रोजाना प्रसव के दौरान 810 मां की मौत हो रही है जिसे अस्पताल में सुरक्षित डिलीवरी के जरिये रोका जा सकता है। इसमें कहा गया है, ‘वर्ष 2019 में दुनिया भर के स्वास्थ्य संस्थानों में करीब 8 करोड़ डिलिवरी हुई है लेकिन महामारी के बाद यह संख्या कम हो सकती है। जिन गर्भवती महिलाओं के बच्चे घर में जन्म लेते हैं उनकी मौत का जोखिम अधिक होता है। साक्ष्य दर्शाते हैं कि घर में प्रसव के दौरान कई तरह की जटिलताएं होने से करीब 35 फीसदी महिलाओं की मौत हो जाती है।’
क्षेत्रीय स्तर के लिहाज से देखा जाए तो कई राज्यों में जन्म और मृत्यु के पंजीकरण में अब भी काफी देरी होती है। उत्तर प्रदेश, मणिपुर, उत्तराखंड, लद्दाख, असम, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड में तयशुदा 21 दिनों के भीतर 50 फीसदी या इससे भी कम जन्म पंजीकरण होता है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, नगालैंड, मणिपुर, लद्दाख, असम और अरुणाचल प्रदेश में भी मरने वाले की समान सूची है।