अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तमाम देशों से आयात पर जो शुल्क लगाया है, उसका खौफ उत्तर प्रदेश के निर्यातकों पर भी साफ नजर आने लगा है। अप्रैल के पहले पखवाड़े में लागू होने वाले शुल्क को बेशक 90 दिन के लिए टाल दिया गया है मगर निर्यातक भविष्य के लिए चिंतित हैं। अगर ट्रंप टैरिफ लागू होते हैं तो उत्तर प्रदेश के निर्यातकों को अमेरिकी बाजार में होड़ में बने रहने में सबसे ज्यादा चुनौती होगी।
उत्तर प्रदेश के सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यम (एमएसएमई) अमेरिकी बाजार में चमड़ा, रेशम, परिधान, कालीन, कांच, पीतल के सामान जैसी कई वस्तुएं निर्यात करते हैं। भारतीय उत्पादों पर ‘ट्रंप टैरिफ’ लगने यानी शुल्क बढ़ने से उनके लिए तुर्किये, फिलिपींस, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), ऑस्ट्रेलिया, चिली, इजरायल और सिंगापुर जैसे देशों के उत्पादों से टक्कर लेने में काफी मुश्किल होगी। ट्रंप ने इन देशों के उत्पादों पर 10 फीसदी के आसपास टैरिफ ही लगाया है। इसीलिए निर्यातक नए बाजार तलाशने की तैयारी कर रहे हैं और अमेरिका के साथ बातचीत में उत्तर प्रदेश के एमएसएमई क्षेत्र को जरूर शामिल करने की बात कह रहे हैं।
शुल्क तीन महीने के लिए टालने के अमेरिकी ऐलान से पहले ही प्रदेश के निर्यातकों पर खरीदार कीमत घटाने का दबाव डालने लगे थे। रेशम, कालीन, चमड़ा निर्यातकों को मार्च के आखिरी हफ्ते से ऐसी फरमाइशें मिलने लगी थीं। निर्यातकों का कहना है उन्होंने कच्चे माल की लागत, अंतरराष्ट्रीय बाजार में दूसरे देशों के उत्पादों की कीमत और अपनी लागत के हिसाब से ही दाम तय किए थे। अब कीमत घटाने का मतलब घाटा उठाना ही होगा।
पिछले कुछ साल से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तगड़ी होड़ झेल रहे कालीन उद्योग के सामने ट्रंप टैरिफ ने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। देश से कालीन निर्यात में 80 फीसदी हिस्सेदारी उत्तर प्रदेश के भदोही और मिर्जापुर की ही है। करीब 1,500 कालीन निर्यातकों में 800 इसी प्रदेश के हैं और उनमें भी 560 भदोही से ही हैं। ये कालीन निर्माता महंगे कच्चे माल, बुनकरों की कमी और तुर्किये, चीन तथा बेल्जियम के कालीनों से मुकाबला झेल रहे हैं। अब 26 फीसदी ट्रंप टैरिफ ने उन्हें हलाकान ही कर दिया है। कारोबारी बता रहे हैं कि पहले से ऑर्डर दे चुके लोग अब छूट मांग रहे हैं, इसलिए आगे आने वाले ऑर्डर भी कम दाम पर होंगे। कालीन निर्यातक मुशाहिद हसन कहते हैं, ‘भदोही के हाथ से बने कालीन की कीमत 1.5 लाख रुपये से शुरू होती है, जिस पर अमेरिकी खरीदार 25 फीसदी छूट मांग रहे हैं। ऐसे में तो लागत ही नहीं निकलेगी और उन्हें बाजार से बाहर होना पड़ जाएगा।’ कालीन निर्यातक शोभनाथ सिंह के मुताबिक तुर्किये पर महज 10 फीसदी अमेरिकी शुल्क भदोही को होड़ में वैसे ही पीछे कर देगा। अब दो ही रास्ते हैं – या तो दूसरे बाजारों में जाएं या मुनाफा कटवा लें। मुशाहिद कहते हैं कि ट्रंप टैरिफ के फेर में अगर अमेरिका में कालीन सस्ते किए जाएंगे तो यूरोप में भी उन्हें अधिक दाम पर नहीं बेचा जा सकेगा। इसलिए बाजार में टिकना है तो भदोही के निर्यातकों को दुनिया भर में अपने कालीन सस्ते करने होंगे।
बनारसी रेशम उद्योग पर दूसरे देशों से मुकाबले का दबाव तो नहीं है मगर दाम घटाने की मांग उनके पास भी आ रही है। अमेरिका रेशमी कपड़ों, बेड कवर, सोफा बैक, वॉल हैंगिंग, डिनर गाउन, जैकेट, स्कार्फ आदि हाथ से बने उत्पादों का बड़ा बाजार है। प्रीमियम उत्पाद तो वहीं सबसे ज्यादा जाते हैं। 2023-24 में अमेरिका को हुए परिधान व कपड़े के माल के कुल निर्यात में आधे से ज्यादा बनारसी सिल्क ही था। पिछले वित्त वर्ष में भी अमेरिका गए 700 करोड़ डॉलर के परिधान में बड़ी हिस्सेदारी बनारसी रेशम की ही थी। मगर ट्रंप टैरिफ के बाद ऊहापोह हो गई है और एक महीने से सिल्क निर्यातकों के पास नए ऑर्डर आ ही नहीं रहे। निर्यातकों का कहना है कि ईस्टर के मौके पर यूरोप व अमेरिका से ऑर्डरों की भरमार रहती थी, जो इस बार नहीं है।
हालांक रेशम उद्योग को इस टैरिफ वॉर में उम्मीद की किरण भी दिख रही है क्योंकि बांग्लादेश और वियतनाम जैसे मुकाबले वाले देशों पर ज्यादा शुल्क लगा है। इसलिए बाजार में बने रहने के लिए उन देशों के निर्यातकों से होड़ नहीं करनी पड़ेगी। अब चिंता इस बात की है कि अमेरिका ने शुल्क वापस नहीं लिए तो वहां के बाजार में उनके उत्पाद महंगे हो जाएंगे और मांग घटने लगेगी।
अमेरिका और यूरोप के बाजार उत्तर प्रदेश के चमड़ा उत्पादों के लिए भी बहुत अहम है। चमड़ा निर्यातकों के लिए राहत इतनी ही है कि उन्हें टक्कर देने वाले बांग्लादेश और पाकिस्तान भी टैरिफ की मार से अछूते नहीं हैं बल्कि ज्यादा संकट में आए हैं। मगर दाम के मामले में भी इन निर्यातकों के सामने भी मुश्किल आ सकती है। उत्तर प्रदेश से 2024-25 में 1,114.41 करोड़ रुपये का चमड़े का माल अमेरिका भेजा गया था मगर कुछ दिन से वहां के खरीदार भी छूट की मांग करने लगे हैं। इस वजह से उन पर भी मुनाफा गंवाने का दबाव आ गया है। चमड़ा कारोबारी हसीब सिद्दीकी कहते हैं कि अब तुर्किये, कजाकिस्तान, वियतनाम और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी टक्कर मिलने लगी है। मगर अब भी भारत और खास तौर पर कानपुर, आगरा के माल की मांग सबसे ज्यादा रहती है। ऐसे में क्वालिटी के बल पर माल तो बिकेगा मगर कीमत में समझौता करना पड़ेगा। मुरादाबाद के पीतल के सामान के निर्यातक ज्यादा निश्चिंत नजर आते हैं। पीतल कारोबारी अजीमुल्ला का कहना है कि अमेरिका के बाजार में पीतल के सजावटी सामान और प्रतियोगिताओं में बंटने वाली ट्रॉफी-कप आदि की मांग ज्यादा हो गई है, जो बनी रहेगी। आम का सीजन शुरू होने जा रहा है मगर कारोबारी टैरिफ नहीं दूसरी वजहों से चिंतित हैं। आम निर्यातकों का कहना है कि अमेरिका में पिछले साल केवल 5 टन माल गया था और यूरोप में 10 गुना निर्यात हुआ था। मगर कीमत घटाने की मांग उठी तो उन्हें परेशानी होगी। अभी उत्तर प्रदेश से 60 फीसदी आम निर्यात खाड़ी देशों को होता है।
वाराणसी के सिल्क निर्यातक रजत मोहन पाठक ने कहा कि अमेरिकी टैरिफ ने बनारसी साड़ी और कपड़ा निर्यातकों के बीच चिंता बढ़ा दी है। यह भारत के कपड़ा उद्योग का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। अमेरिका इन हस्तनिर्मित कृतियों के लिए एक प्रमुख बाजार रहा है, और यह टैरिफ विशेष रूप से वाराणसी के कारीगरों और व्यापारियों पर असर डालेगा, जो अमेरिकी मांग पर बहुत अधिक निर्भर हैं। ट्रंप की व्यापार असंतुलन को दूर करने की व्यापक नीति के तहत लागू 26 फीसदी टैरिफ से अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए लागत बढ़ सकती है, जिससे इन प्रीमियम उत्पादों की मांग कम हो सकती है। अमेरिकी बाजार बनारसी साड़ियों की विशिष्टता को महत्त्व देता है, लेकिन 26 फीसदी टैरिफ उन्हें कम टैरिफ वाले देशों के विकल्पों की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी बना सकता है।’हालांकि बांग्लादेश (37 फीसदी टैरिफ) और वियतनाम (46 फीसदी टैरिफ) जैसे प्रतिस्पर्धियों को अधिक शुल्क का सामना करना पड़ रहा है, भारत के लिए यह सापेक्षिक लाभ लागत वृद्धि को पूरी तरह से संतुलित नहीं कर सकता।
आम कारोबारी शबीहुल हसन खान ने कहा कि अमेरिकी टैरिफ के बाद आम का विदेशी बाजारों में महंगा होना तय है। विदेशी बाजारों की कीमत का कुछ न कुछ असर यहां के घरेलू बाजार पर भी पड़ेगा। वैसे तो अमेरिका में मलिहाबादी दशहरी महाराष्ट्र के अल्फासों के मुकाबले बहुत तादाद में नहीं भेजा जाता है। अभी दो-तीन सालों से इसकी शुरुआत हुई है। लेकिन अमेरिकी बाजार में कीमत अच्छी मिलने के चलते यूपी के आम कारोबारी वहां से आस लगाए हुए थे जो धूमिल हो गई है। इस टैरिफ की एक और मार आम के बागवानों पर पड़ी है। टैरिफ के चलते उम्दा क्वालिटी की नीम की खली महंगी मिलने लगी है। अमेरिका में जाने वाले खाद्य उत्पाद और खुद वहां के उत्पादक ऑर्गेनिक उत्पादों की खेती करने वाले नीम स्प्रे व खली का ही उपयोग करते हैं। टैरिफ वॉर के चलते नीम की खली व स्प्रे अभी से महंगा हो चला है। अभी फौरी राहत तो 90 दिनों के लिए टैरिफ के टल जाने से मिल ही गई है। इस बार के दशहरी का सीजन 30 जून तक रहेगा और तब तक हम लोग इस टैरिफ टेरर से बचे रहेंगे। हालांकि केंद्र सरकार को आगे अमेरिकी सरकार से टैरिफ पर बातचीत के दौरान आम व इस जैसे अन्य खाद्य उत्पादों के निर्यातकों की चिंता को ध्यान में रखना चाहिए।