तिरुपुर में कताई-बुनाई मशीनों की खड़खड़ाहट तकरीबन 12 लाख लोगों के दिल की धड़कन है, जो कपड़ा और परिधान उद्योग पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से निर्भर हैं। कपास की भीनी-भीनी सुगंध और कभी-कभी रंगाई कारखानों से आने वाली तीक्ष्ण गंध, यहां के लोगों के दैनिक जीवन में घुली-बसी है। हालांकि इन दिनों तिरुपुर की सड़कों पर एक अजीब सी शांति पसरी हुई है। उद्योग जगत द्वारा साहस दिखाने के बावजूद, यहां सभी की निगाहें अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय व्हाइट हाउस के निर्णय में उतार-चढ़ाव पर टिकी हैं। ऊंचा शुल्क कपड़ा उद्योग के लिए जोखिम पैदा कर रहा है जिससे ऑर्डर, आय को नुकसान हो रहा है और लाखों नौकरियों पर खतरा है।
बड़े कारखानों से लेकर छोटे कारोबारियों तक यह आम भावना थी जो पूरे शहर में गूंजती थी कि ‘तिरुपुर फीनिक्स की तरह है, हम राख से उठ खड़े होंगे।’ वर्ष2010-11 में रंगाई इकाइयों के बंद होने, 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने के कारण कारोबार में आई मंदी, 2019 में कोविड महामारी और कच्चे माल के संकट तथा युद्ध जैसी कई अन्य बाधाओं से तिरुपुर का कपड़ा उद्योग इसी अदम्य भावना की बदौलत उबर पाया।
तिरुपुर निर्यातक संघ (टीईए) के अध्यक्ष और केएम निटवियर के प्रवर्तक केएम सुब्रमण्यन ने कहा, ‘अगर हम अमेरिका से होने वाली आय का 50 फीसदी गंवा देते हैं तो हमारा नुकसान लगभग 6,000 करोड़ रुपये होगा। हालांकि, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के व्यापार समझौतों के साथ हम गंवाए गए ऑर्डर की आसानी से भरपाई करने में सक्षम होंगे।’ सुब्रमण्यन ने जितना निश्चिंत भाव से जवाब दिया, वैसी शांति शहर के बाकी हिस्सों में दिखाई नहीं दी। कई लोगों का मानना था कि अगर 50 फीसदी शुल्क बना रहता है तो अगले छह महीनों तक टिके रहना भी बड़ी बात होगी।
तिरुपुर को भारत की निटवियर राजधानी के रूप में जाना जाता है। वित्त वर्ष 2024-25 में तिरुपुर ने पास स्थित कोयंबत्तूर (50 किमी के दायरे में) के साथ भारत के कुल 65,178 करोड़ रुपये के निटवियर निर्यात में लगभग 69 फीसदी या 44,747 करोड़ रुपये का योगदान दिया। उद्योग के अनुमान के अनुसार इसमें 13,000 करोड़ रुपये से अधिक अमेरिकी बाजार को जाता है। ऊंचे शुल्क के कारण इस क्षेत्र से अमेरिका को होने वाले निर्यात में करीब 50 फीसदी की कमी आ सकती है। इससे तमिलनाडु के इस छोटे से शहर में उद्योगों की कमर टूट जाएगी क्योंकि यहां की 80 फीसदी से अधिक कंपनियां सूक्ष्म, लघु और मध्यम उपक्रम (एमएसएमई) श्रेणी की हैं, जिनका सालाना राजस्व 100 करोड़ रुपये से भी कम है।
कंपनियां अमेरिका पर बहुत अधिक निर्भर हैं और शुल्क युद्ध के समाधान का इंतजार कर रही हैं जबकि दूसरी विविध निर्यात बाजार वाली कंपनियों को भरोसा है कि यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बाजारों के खुलने से संकट से उबरने में मदद मिलेगी।
तिरुपुर निर्यातक एवं विनिर्माता संगठन के अध्यक्ष एम मुत्तुरत्नम ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, ‘बहुत सारे एमएसएमई हैं जो पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर हैं। वे कारोबार से बाहर हो जाएंगे। उन्हें दूसरे बाजार से ऑर्डर हासिल करने में कम से कम छह महीने से एक साल लगेगा, तब तक उद्योग में टिके रहने के लिए सरकारी प्रोत्साहन की आवश्यकता है।’ संगठन के ज्यादातर सदस्य 10 करोड़ रुपये से कम सालाना कारोबार वाले छोटे उद्यमी हैं और कोविड से पहले इसके सदस्यों की संख्या 1,200 थी जो अब घटकर करीब 700 रह गई है।
वॉलमार्ट, टारगेट, एमेजॉन, टीजेएक्स कंपनीज, कोल्स, गैप और एचऐंडएम सहित सभी अमेरिकी रिटेलरों ने भारत में अपने आपूर्तिकर्ताओं को शुल्क पर स्पष्टता होने तक ऑर्डर रोकने के लिए कहा है। क्षेत्र के एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता एस्टी एक्सपोर्ट्स इंडिया के अध्यक्ष एन तिरुकुमारन ने कहा, ‘हम न केवल लोगों को ऑर्डर रोकते हुए देख रहे हैं बल्कि ऑर्डर रद्द भी किए जा रहे हैं। मेरी कंपनी में भी ऑर्डर में गिरावट आई है। बहुत सारी अमेरिकी आपूर्ति भारत से बाहर चली जाएगी, जिससे कई कारखानों पर ताला लग जाएगा और बहुत सारी नौकरियां जाएंगी।’
उद्योग का अनुमान है कि तिरुपुर में लगभग 7 लाख लोग सीधे तौर पर और करीब 5 लाख लोग परोक्ष रूप से कपड़ा उद्योग पर निर्भर हैं। ओडिशा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार जैसे राज्यों के लगभग 3 लाख प्रवासी मजदूर भी तिरुपुर कपड़ा ईकोसिस्टम का हिस्सा हैं। प्रीमियर एजेंसीज के आर सेंथिल कुमार ने कहा, ‘अमेरिकी ब्रांडों के लिए भी दूसरी जगह से आपूर्ति हासिल करना आसान नहीं है क्योंकि बांग्लादेश या वियतनाम जैसे वैकल्पिक बाजारों की एक निश्चित क्षमता है और वे एक बार में इतनी बड़ी मात्रा में ऑर्डर स्वीकार करने में सक्षम नहीं होंगे।’
उद्योग निकाय ने कहा कि अमेरिका से बड़ी मात्रा में ऑर्डर मिलते हैं मगर उद्योग को वहां से 5 फीसदी मार्जिन मिलता है जबकि यूरोप में 25 फीसदी तक मार्जिन मिलता है मगर यहां फैशन उत्पादों की ज्यादा मांग है। सुब्रमण्यन ने कहा, ‘स्थान बदलने से इस आपूर्ति श्रृंखला में भी बाधा आएगी और अमेरिकी ग्राहकों को अधिक भुगतान करना पड़ेगा।’
2016 से नोटबंदी, जीएसटी, कच्चे माल की किल्लत जैसी एक के बाद एक कई अड़चनों के कारण भारी नुकसान होने की वजह से पोलो कैसल के जीआर सेंथिलवेल को अपना कारखाना बंद करना पड़ा था और 2.25 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाने के लिए उन्हें अपनी पैतृक संपत्ति बेचनी पड़ा। सेंथिलवेल ने कहा, ‘हमें सरकार से तत्काल एक पैकेज, बैंकिंग क्षेत्र से सहायता और यूरोपीय संघ, ब्रिटेन या अफ्रीका जैसे नए बाजार तलाशने में मदद की आवश्यकता है।’
अफ्रीकी बाजार में बहुत संभावनाएं हैं मगर कई लोगों का मानना है कि दक्षिण अफ्रीका और कुछ अन्य को छोड़कर, उस क्षेत्र के कई देशों में कोई विश्वसनीय बैंकिंग प्रणाली नहीं है। जेएम निट्स ऐंड वीव्स के सेंथिल कुमार ने कहा, ‘सरकार को अमेरिकी बाजार में काम करने वाली एमएसएमई को पैकेज, कर लाभ तथा आसान बैंकिंग नियमों के माध्यम से एक वर्ष की अवधि के लिए सहायता
देनी चाहिए।’