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इतिहास बनने की राह पर मुंबई के तबेले, सरकारी नीति की लटक रही तलवार

पहले मुंबई में बनने वाली अधिकांश हिंदी फिल्में मिलों और तबेलों के बगैर पूरी नहीं होती थीं। मगर अब मुंबई में कपड़ा मिलें तो बची नहीं हैं और तबेले भी आखिरी सांसे गिन रहे हैं।

Last Updated- September 22, 2024 | 9:44 PM IST
Mumbai's stables on the way to become history, the sword of government policy is hanging इतिहास बनने की राह पर मुंबई के तबेले, सरकारी नीति की लटक रही तलवार

सपनों की नगरी कहलाने वाले मुंबई में हजारों कहानियां को जन्म देने वाले तबेलों का ही अस्तित्व खतरे में दिखाई दे रहा है। कुछ दशक पहले मुंबई में बनने वाली अधिकांश हिंदी फिल्में मिलों और तबेलों के बगैर पूरी नहीं होती थीं। मगर अब मुंबई में कपड़ा मिलें तो बची नहीं हैं और तबेले भी आखिरी सांसे गिन रहे हैं। मुंबईकरों को ताजा दूध पिलाने वाले तबेलों पर सरकारी नीति की तलवार लटक रही है। इन्हें मुंबई से बाहर भेजने की तैयारी की जा चुकी है। हालांकि, तबेला मालिक अपने कारोबार को बचाने की हर मुमकिन कोशिश में लगे हैं।

करीब दो दशक पहले मुंबई के लगभग हर कोने में तबेले थे जिनमें करीब एक लाख दुधारू मवेशी थे जिनकी संख्या घट कर अब 10 हजार हो गई हैं। सरकार इन्हें भी मुंबई से बाहर करना चाह रही है। आंकड़ों के मुताबिक मुंबई में लाइसेंस वाले तबेलों की संख्या 59 है। इनमें 3,607 मवेशी रहते हैं। जबकि बिना लाइसेंस के 204 तबेले हैं और इनमें मवेशियों की संख्या 6,352 हैं। इस तरह 263 तबेलों में कुल 9,959 मवेशी हैं, जिन्हें पालघर में स्थानांतरित किया जाएगा।

मुंबई में तबेलों का इतिहास सदियों पुराना है। आजादी के पहले कोलाबा में तबेले होते थे, वहां से मुंबई सेंट्रल, वर्ली, दादर, लालबाग, खार, बांद्रा में स्थानांतरित किया गया। इसके बाद 70 के दशक में कुर्ला, घाटकोपर, मुलुंड, जोगेश्वरी, गोरेगांव और मलाड में तबेले भेज दिए गए। अब सरकार ने इन्हें यहां से 140 किमी दूर पालघर जिले के दापचेरी में भेजने की योजना बनाई है।

मुंबई दुग्ध उत्पादक संघ सरकार के इस कदम का विरोध कर रहा है उनका कहना है कि बिना तैयारी के बीएमसी हमें जबरन भगाने में लगी है। दरअसल 1976 में तत्त्कालीन मुख्यमंत्री शंकर चव्हाण ने सभी तबेलों को मुंबई से बाहर करने की नीति बनाई थी मगर उनकी सरकार जाने के बाद यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया। इसके बाद 2005 में महाराष्ट्र सरकार ने कैटल फ्री कानून बनाया, जिसके बाद मुंबई के तबेलों को पालघर के दापचेरी में स्थानांतरित करने की योजना बनाई गई।

मुंबई को मवेशियों से मुक्त करने वाले कानून के खिलाफ मुंबई दुग्ध उत्पादक संघ ने अदालत का दरवाजा खटखटाया, जहां उन्हे निराशा हाथ लगी। इसके बाद राज्य सरकार ने बीएमसी से इन्हें हटाने को कहा। बीएमसी के सर्वे में 263 तबेलों को हटाने की सूची सामने आई है। जिन पर कभी भी कार्रवाई शुरू की जा सकती है।

मुंबई दुग्ध उत्पादक संघ के महासचिव हाजी कशम कश्मीरी कहते हैं कि अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि मुंबई से 40-50 किलोमीटर की परिधि में इन्हें जगह दी जाए और वहां बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधा देकर इन्हें बसाया जाए। राज्य सरकार ने 1964 में पालघर के दापचेरी में जमीन अधिग्रहण किया था। इस जमीन को हम लोग देखने गए थे मगर एक दशक से अधिक समय बीत गया, लेकिन वहां कुछ नहीं किया गया है। इन जमीनों पर गांव हैं और आदिवासियों के घर हैं। जब तक सरकार वह जमीन नहीं खाली करवाती तब तक वहां कैसे तबेलों को स्थानांतरित किया जा सकता है। वहां बिजली, पानी, शेड के बिना मवेशियों को कैसे ले जाएं। सरकार पहले जमीन तो खाली कराकर दे।

आरे दुग्ध उत्पादक संघ के अध्यक्ष चंद्रकुमार सिंह कहते हैं कि आरे में 30 तबेले हैं जहां 17,000 मवेशी हैं। सरकार को फिलहाल इनसे कोई परेशानी नहीं है। आरे के बाहर मुंबई में 10 हजार दुधारू मवेशी हैं, हम सरकार से निवेदन कर रहे हैं कि इन्हें भी दापचेरी के बजाय आरे में स्थापित कर दिया जाए। यहां डेरी विभाग के पास 300 एकड़ जमीन है जबकि 1,700 एकड़ जमीन वन विभाग की है। इससे तबेले भी बच जाएंगे और सरकार की नीति भी कायम रहेगी।

मुंबईकरों को ताजा दूध भी मिलता रहेगा। मुंबई में हर दिन करीब 44 लाख लीटर दूध की खपत है। जिसमें से मुंबई के तबेलों से लगभग चार लाख लीटर ताजा दूध एवं कच्चे दूध की आपूर्ति की जाती है। दापचेरी से मुंबई आने में करीब 6 घंटे का समय लगता है ऐसे में वहां से कच्चे दूध की आपूर्ति मुश्किल होगी।

सरकारी नीति के अलावा अब इस पेशे से लोगों को मोह भी भंग हो रहा है, जिस कारण तबेला कारोबार पर संकट है। तबेला कारोबार छोड़ चुके पवन सिंह कहते हैं कि उनका यह पुश्तैनी कारोबार था। उनके पिता जी और ताऊ जी खार में तबेला चलाते थे। यह कच्चा और बहुत कठिन व्यवसाय है। इसके अलावा सामाजिक रूप से लोग हिकारत भरी नजरों से देखते हैं, इसे एक जरूरी पेशे के रूप में सम्मान नहीं मिला इसलिए नई पीढ़ी इससे दूर हो गई है। इसके साथ ही सोने के दाम से बिकने वाली मुंबई की जमीन पर बिल्डरों की भी नजर है जो विकास के नाम पर इन्हे हर हाल में मुंबई से बाहर करना चाह रहे हैं।

First Published - September 22, 2024 | 9:44 PM IST

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