दक्षिण मुंबई का कालबादेवी इलाका किसी जमाने में एशिया का सबसे बड़ा कपड़ा बाजार कहलाता था। उस समय यहां के बाजार में अपनी-अपनी गद्दियों पर बैठे लाखों कारोबारी देश के कपड़ा बाजार की दिशा और दशा तय करते थे। यहां की गद्दियां खास थीं क्योंकि उनकी शान-शौकत और रुतबा ही तय करता था कि उन पर बैठा सेठ कितना धाकड़ और हैसियत वाला है। इस इलाके के बाजारों की भूलभुलैया गलियों में आज भी हजारों कारोबारी कहानियां घूमती रहती हैं। मगर ये कहानियां भी अब गुम होती जा रही हैं। इसकी वजह इन बाजारों का बदलता मिजाज और गद्दियों के सामने खड़ा अस्तित्व का संकट है।
किसी जमाने में कालबादेवी इलाके में मंगलदास मार्केट, एमजी मार्केट, एलके मार्केट, स्वदेशी मार्केट और कॉटन एक्सचेंज बिल्डिंग जैसे थोक कपड़ा बाजारों की वजह से बहुत रौनक रहती थी। ये बाजार तो अब भी हैं मगर यहां थोक कारोबार नाम मात्र का बचा है। मंगलदास मार्केट की 80 फीसदी दुकानों पर रिटेल कारोबारियों का कब्जा हो चुका है। एमजी मार्केट और स्वदेशी मार्केट में रिटेल दुकानें फैल गई हैं। एलके मार्केट और कॉटन एक्सचेंज बिल्डिंग में कपड़ा कारोबार लगभग पलायन कर चुका है। यहां सोने-चांदी के गहनों की दुकानें चमक बिखेर रही हैं।
थोक कारोबार घटने से पांच किलोमीटर दायरे में फैले कपड़ा बाजार की 50,000 से ज्यादा दुकानों की चमचमाती सफेद चादर पर बिछी गद्दियां गायब होती जा रही हैं। कारोबार के तौर-तरीके बदलने से इन गद्दियों के सामने वारिसों का संकट खड़ा हो गया है। युवा कारोबार से मुंह मोड़ रहे हैं और सेठों के सामने समस्या आ गई है कि गद्दी किसे सौंपें। इसी वजह से आज यहां गद्दियों की तादाद घटकर मुश्किल से 20,000 रह गई है।
प्रेमचंद्र गोमाजी फर्म के मालिक हंसमुख सांघवी पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि बाहर से व्यापारियों की आमद इतनी ज्यादा होती थी कि दुकानों पर गद्दियां भरी रहती थीं। कपड़ा कारोबार जब शबाब पर था तब अंगड़िये और ट्रांसपोर्टर इस बात पर झगड़ते रहते थे कि पहली गांठ उनके ही हाथ आए। मगर अब यह सब खत्म हो गया है। न गद्दी बची हैं और न ही गद्दी संभालने वाले। वह कहते हैं, ‘मेरा भतीजा इस कारोबार में आना ही नहीं चाहता। हमारे बेटे और दामाद भी ऑस्ट्रेलिया में बस गए तो अब कारोबार कौन संभालेगा?’
कपड़ा बाजार में एक समय शंकर केजरीवाल का नाम बहुत बड़ा था मगर अब उनकी गद्दी भी खत्म हो गई क्योंकि उनके परिवार में काम संभालने वाला कोई नहीं है। ऐसे दर्जनों बड़े नाम है, जिनका कारोबार बंद हो चुका है और सबकी वजह एक ही है कि उनके बच्चे इस कारोबार में आना नहीं चाहते। बच्चे पढ़-लिखकर बड़ी कंपनियों मे मोटी तनख्वाह वाली नौकरियां पा गए हैं और वहीं खुश हैं।
शायद यही वजह है कि कपड़ा बाजार का चक्कर लगाने पर आपको ज्यादातर बुजुर्ग ही नजर आएंगे। सती टेक्सटाइल के प्रबंध निदेशक प्रकाश केडिया कहते हैं कि जब बच्चे इस काम में आना ही नहीं चाह रहे तो बाजार में बुजुर्ग ही बचेंगे।
कारोबार से बच्चों के दूर होने की वजह बताते हुए केडिया कहते हैं, ‘पहले हमारी बिरादरी में बच्चे ज्यादा पढ़ते-लिखते नहीं थे। स्कूल की शिक्षा पूरी होने के साथ ही उन्हें काम पर लगा दिया जाता था। लेकिन अब समय बदल गया है। लोग अपने बच्चों की पढ़ाई पर जमकर खर्च करते हैं। ऊंची पढ़ाई करने के बाद बच्चों को बढ़िया वेतन की नौकरी मिल जाती है, इसलिए उनके पास यहां की जिम्मेदारी उठाने का वक्त ही नहीं है। रही कसर पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले बच्चे पूरी कर रहे हैं क्योंकि वे लौटकर आते ही नहीं।’
नई पीढ़ी की इसी बेरुखी से मुंबई का करीब 40 फीसदी थोक कपड़ा कारोबार सूरत चला गया है। कई कारोबारी भिवंडी में काम कर रहे हैं। कपड़ा बाजार मुंबई से जाने की कई वजहें हैं, जिनमें महंगाई, ऑनलाइन कारोबार का बढ़ती चलन और दूसरे शहरों में हो रहा विकास शामिल हैं। सबसे बड़ी वजह तो ऊंचा किराया ही है। कालबादेवी में दुकान का औसत मासिक किराया 3,000 रुपये प्रति वर्ग फुट है। मगर मुंबई से करीब 100 किमी दूर भिवंडी में केवल 300 रुपये प्रति वर्ग फुट के मासिक किराये पर दुकान मिल जाती है। साथ ही भिवंडी में गोदाम हैं, कारखाने हैं और भीड़भाड़ मुंबई की तुलना में बहुत कम है।
भारत मर्चेंट चैंबर्स के ट्रस्टी राजीव सिंगल कहते हैं कि मुंबई की जगह दूसरे शहरों में कारोबार फलने की कई वजहें हैं। सबसे पहले तो दूसरे राज्यों और शहरों से आने वाले व्यापरियों को मुंबई खासा महंगा पड़ता है। उसके बाद इंटरनेट के जमाने में कपड़े के सैंपल ऑनलाइन ही दिखा दिए जाते हैं, ऑर्डर भी ऑनलाइन आता है और भुगतान भी ऑनलाइन कर दिया जाता है। इस वजह से बड़े व्यापारियों का आना कम हो गया है और गद्दियां सूनी रहने लगी हैं।
कारोबारी बदलाव को महसूस कर रहे हैं और उनमें से कई खुद को उसके मुताबिक ढालने की कोशिश भी कर रहे हैं। मुंबई के साथ सूरत में भी कारोबार शुरू करने वाली कबीर फैशन के निदेशक विनोद गुप्ता कहते हैं, ‘जो वक्त के साथ नहीं बदलेगा, वक्त उसे बदल देगा या खत्म कर देगा। यही सोचकर हमने सूरत में भी काम शुरू कर दिया है। तकनीक का इस्तेमाल बढ़ने के बाद व्यापारी मुंबई नहीं आना चाहते। बाजार ऑनलाइन होने से किसी एक का दबदबा भी नहीं रह गया है। गलाकाट होड़ है और ग्राहकों को जिसमें सहूलियत दिखेगी वही बाजार में टिकेगा।’
मगर इस बदलाव की मार छोटे कारोबारियों पर पड़ रही है। जोस्ट्रा ऑर्गोटेक प्राइवेट लिमिटेड के चेयरमैन विजय लोहिया कहते हैं कि जब कपड़े मुंबई की मिलों और पावरलूम में बनते थे तब कालबादेवी से ही बेचे जाते थे। मगर अब देश भर में कपड़ा बन रहा है, इसलिए बाजार हर किसी की पहुंच में है। ऐसे में बड़े पूंजीपतियों का दबदबा बढ़ रहा है क्योंकि पूंजी और नई तकनीक के बल पर बाजार का रुख मोड़ने की क्षमता उनके पास है। लेकिन कम पूंजी वाले कारोबारियों का धंधा डूबता जा रहा है। यह देखकर नई पीढ़ी भी पुश्तैनी कारोबार छोड़कर नौकरी करना बेहतर मान रही है क्योंकि वहां कम से कम सुकून तो है।