कई दशक पहले मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले का सारंगपुर कस्बा अपनी पगड़ी और साफों के लिए दूर-दूर तक मशहूर था। साफे और पगड़ी यहां आज भी बनते हैं मगर इनका चलन घटने के कारण बुनकर दूसरे कामों में हाथ आजमाने लगे हैं। अब यहां साड़ियां बन रही हैं और सूटिंग-शर्टिंग के लिए भी कपड़ा तैयार किया जा रहा है।
सारंगपुर से कुछ किलोमीटर के फासले पर बसा पड़ाना गांव बहुत अरसे से ‘बुनकरों का गांव’ कहलाता है। इस गांव के बुनकरों की चादरों को उम्दा सूती कपड़े और हाथ की बारीक बुनाई ने अलग ही पहचान दी है। इनमें रंगों का बेहद शानदार मेल होता है और ये चादरों गर्मी में ठंडक तथा सर्दी में गर्माहट देती हैं। पड़ाना में चादरों के साथ ही अस्पतालों में इस्तेमाल होने वाली गाज-पट्टी और सफेद चादरें भी बन रही हैं।
सारंगपुर में हैंडलूम चला रहे मोहम्मद अब्दुल गफ्फार अंसारी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि रजवाड़ों के समय से ही यहां साफा-पगड़ी बनती आई हैं। देवास रियासत के मराठों के लिए साफा-पगड़ी खास तौर पर यहीं बनती थी। सारंगपुर के चांद बाबा को देवास रियासत ने इनाम में यहां जमीन दी थी। उसके बाद यहां साफा-पगड़ी बनाने का चलन बढ़ता चला गया। यहां बने साफा और पगड़ी ग्वालियर रियासत में भी जाने लगे। चूंकि व्यापारी भी साफा-पगड़ी बांधते हैं, इसलिए उनके लिए भी माल यहीं तैयार होने लगा। सारंगपुर में 50 मीटर तक लंबी पगड़ी बनाई जाती है।
स्थानीय बुनकर मकसूद अंसारी कहते हैं कि आधुनिक दौर में साफा-पगड़ी पहनने का चलन कम हुआ है। राजवाड़े खत्म हो गए हैं और नई पीढ़ी के कारोबारी भी साफा-पगड़ी नहीं पहनते। इसलिए मांग पहले से बहुत कम हो गई है मगर देहाती इलाकों में और शहरों की शादियों में साफा-पगड़ी का फैशन होने के कारण यह हुनर अब भी जिंदा है। सारंगपुर में 100 रुपये से 500 रुपये तक कीमत के साफा-पगड़ी बनते हैं।
सारंगपुर को साफा-पगड़ी का गढ़ माना जाता है मगर मांग कम होने के साथ ही बुनकरों ने दूसरे धंधे तलाशने शुरू कर दिए। गफ्फार ने बताया कि पगड़ी की मांग घटी तो चादरें बनने लगीं। कुछ अरसा बाद साड़ियों की बुनाई भी यहां शुरू हो गई।
गफ्फार कहते हैं, ‘चादर तो सभी बना रहे थे, इसीलिए मैंने कुछ नया करने का फैसला किया। चूंकि यहां चादरें हैंडलूम पर बनती हैं तो मैंने भी हैंडलूम पर साड़ी बनाने की कोशिश की। मध्य प्रदेश में चंदेरी और महेश्वर की साड़ियां दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। इसलिए मैंने कई साल पहले साड़ी ही बनाने की बात सोची और बुनाई सीखने के लिए चंदेरी और महेश्वर गया। शुरू में मुश्किल आई और वैसी साड़ी बनाने में बहुत माल बरबाद भी हुआ। मगर धीरे-धीरे मैं और मेरे हैंडलूम के बुनकर इसमें माहिर हो गए।’
बकौल गफ्फार अंसारी, इस समय इस समय सारंगपुर में 30-35 बुनकर हैंडलूम पर साड़ी बना रहे हैं और चंदेरी तथा महेश्वर के कारोबारी उनके बड़े खरीदार हैं। उनसे ऑर्डर आने पर ही साड़ियां बनाई जाती हैं क्योंकि ये बिकती चंदेरी और महेश्वर के नाम से ही हैं।
मकसूद ने कहा कि साफा-पगड़ी के बजाय अब साड़ियां ही सारंगपुर की पहचान बन रही हैं। यहां के हैंडलूम मालिक देश भर में व्यापार मेलों में जाकर भी माल बेच आते हैं। यहां कोटा मसूरिया साड़ी भी बनती हैं। साथ ही चादरें और सूटिंग-शर्टिंग का माल भी बनता है।
सारंगपुर में बुनाई का काम करने वाले ज्यादातर बुनकर पड़ाना गांव के हैं। पड़ाना में घरों में इस्तेमाल होने वाली चादरों के साथ ही अस्पताल के लिए चादरें भी बन रही हैं। साथ ही घाव पर लगाने के लिए गाज-पट्टी भी यहां बड़े पैमाने पर बनती है। पड़ाना के बुनकर मोहम्मद नवाब अंसारी ने बताया कि अस्पतालों के लिए सादा सफेद चादरें बनती हैं मगर घरों में इस्तेमाल के लिए चटख रंगों वाली खूबसूरत चादरें बनाई जाती हैं।
सारंगपुर-पड़ाना की चादरें, साफा-पगड़ी और साड़ियां लोगों को पसंद आ रही हैं और यहां की गाज-पट्टी मरीजों के घाव भर रही हैं मगर यहां के बुनकरों का दर्द कम नहीं हो रहा। नवाब अंसारी कहते हैं कि मार्केटिंग की समस्या उन लोगों को सबसे ज्यादा सता रही है क्योंकि माल बेचना दूभर हो जाता है। इस इलाके की चादरों का सबसे बड़ा खरीदार मृगनयनी एंपोरियम है। मगर वह रेशम की साड़ी में दिलचस्पी नहीं दिखाता। गफ्फार अंसारी के मुताबिक चंदेरी और महेश्वर के कारोबारी साड़ी खरीदते हैं मगर बड़े खरीदार नहीं हैं।
इसी तरह पड़ाना के बुनकर अशफाक मंसूरी कहते हैं कि गाज-पट्टी और अस्पतालों की चादरें पूरी तरह सरकारी खरीद पर निर्भर हैं। अगर सरकार नहीं खरीदेगी तो धंधा ही चौपट हो जाएगा। नवाब को संकट दिख रहा है क्योंकि अस्पतालों को हैंडलूम से बनी चादरें या गाज-पट्टी पावरलूम से बने माल की तुलना में महंगी पड़ती हैं। सरकार शायद हथकरघों को जिंदा रखने के लिए ही अभी तक इनकी खरीद कर रही है मगर उसने जिस दिन हाथ खड़े किए, पड़ाना का हुनर मर जाएगा।