कोटा का नाम सुनते ही लोगों के जेहन में कोचिंग सेंटर का गढ़ कौंधता है। मगर राजस्थान के इस शहर से 15 किलोमीटर दूर ऐसी साड़ियों का गढ़ भी है, जो कभी रजवाड़ों की शान होती थी। मगर आज इन साड़ियों को खास ही नहीं आम महिलाएं भी पहन रही हैं। बात हो रही है कोटा डोरिया साड़ियों की, जिनका गढ़ कोटा को नजदीक कैथून कस्बे में है। कोटा डोरिया साड़ी को मसूरिया साड़ी भी कहा जाता है क्योंकि इन्हें बनाने वाले मैसूर से आकर कोटा के इस कस्बे में बसे थे।
राजे रजवाड़ों के समय से ही महिला बुनकर और कारीगर उनकी पसंद के हिसाब से कोटा डोरिया साड़ियां बुनती रहीं। बाद में सादा साड़ियां बनीं। मगर अब बुनकर और कारीगर इनमें आधुनिक डिजाइनों का छौंक लगाने से परहेज नहीं कर रहे। अब डिजाइनर साड़ियां ज्यादा बुनी जा रही हैं। हालांकि ऐसा करने वाले कुछ युवा और महिलाएं ही हैं क्योंकि कम कमाई के कारण नई पीढ़ी इनसे मुंह मोड़ रही है। कारीगरों को सोने-चांदी के दाम बढ़ने से महंगी हुई जरी के कारण भी लागत की चोट सहनी पड़ रही है।
कैथून कस्बे में कोटा डोरिया साड़ी बुनने वाले नसीरुद्दीन अंसारी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि यह साड़ी शुद्ध कपास और रेशम से बनती है। राजे-रजवाड़ों का वक्त ढलने के बाद यहां सादा साड़ियां ज्यादा बनने लगी थीं। 1980 के दशक में कुछ कारीगरों ने जरी का इस्तेमाल कर डिजाइनर साड़ी बनाना शुरू किया था मगर इनका चलन ज्यादा नहीं था।
अंसारी बताते हैं कि कोटा डोरिया साड़ियों की सूरत 2005 में बदलनी शुरू हुई, जब सरकार ने इन्हें जीआई टैग दे दिया। इसके बाद सरकार के ही सहयोग से कुछ नामी-गिरामी डिजाइनर यहां पहुंचे और उन्होंने बुनकरों को डिजाइनर साड़ियां बनाने का हुनर सिखाया। इसके बाद धीरे-धीरे कोटा डोरिया साड़ी की तस्वीर ही बदल गई। अब यहां 70 फीसदी से ज्यादा साड़ियां डिजाइनर ही बनती हैं।
साड़ी बनाने वाले मोहम्मद इरशाद कहते हैं कि कैथून में बनने वाली कोटा डोरिया साड़ियों में पुराने के साथ नए अंदाज के डिजाइन का भी जमकर इस्तेमाल हो रहा है। इन साड़ियों में पुरानी कलाकृतियों और भारत की सांस्कृतिक विरासत की छाप भी जमकर इस्तेमाल की जा रही है।
कैथून के बुनकर अब्बास अली ने बताया कि कोटा डोरिया साड़ियों में फूल-पत्ती, घूमते हुए हिरण, चरती हुई गाय जैसे चित्रों का भी मांग के हिसाब से प्रयोग किया जाता है। बुनकर मोहम्मद यासीन बताते हैं कि इन साड़ियों में रंगों का अनूठा से अनूठा कॉम्बिनेशन देने की कोशिश भी की जा रही है। उन्होंने बताया कि आजकल गुलाबी और पीले रंग की साड़ियां खूब पसंद की जाती है। कुछ लोग साड़ियों मे छोटे डिजाइन पसंद करते हैं तो कुछ बड़े। उनकी पसंद के हिसाब से ही डिजाइन बनाकर दे दिए जाते हैं।
बुनकरों का कहना है कि कैथून में अक्सर मशहूर डिजाइनर आते हैं या अपने डिजाइन भेज देते हैं। उन्हीं के हिसाब से यहां साड़ियां बना दी जाती हैं। आजकर बड़ी बूटी वाली कोटा डोरिया साड़ियों की खूब मांग आ रही है।
कोटा डोरिया साड़ी बनाना आसान काम नहीं है। इसको बनाने में काफी समय लगता है। साड़ी में डिजाइन जितना बारीक होगा उसे तैयार करने में वक्त भी उतना ही ज्यादा लगेगा। इरशाद ने बताया कि ठीकठाक डिजाइन वाली साड़ी की कीमत 10,000 रुपये से शुरू होती है। डिजाइन बहुत अधिक हो या बहुत बारीक हो तो साड़ी 80,000 रुपये तक में बिकती है। 10,000 रुपये कीमत वाली डिजाइनर साड़ी बुनने में 15 दिन तक लग जाते हैं। ये साड़ियां पिटलूम में बुनी जाती हैं, जो पुरानी तकनीक पर चलते हैं। इस वजह से भी कोटा डोरिया साड़ियां बुनने में बहुत अधिक समय लग जाता है।
अली ने बताया कि डिजाइनर साड़ी में जरी का काम ज्यादा होता है और उनका डिजाइन महीन होता है। इसलिए भी कोटा डोरिया साड़ियां बुनने में अधिक समय लग जाता है। ज्यादा डिजाइन वाली साड़ियां बुनने में 1 से 2 महीने लग जाते हैं और उनकी कीमत भी 40,000 रुपये से ज्यादा रहती है। सादा कोटा डोरिया साड़ी बुनने में भी 4 से 5 दिन लग जाते हैं। सादा साड़ियों में जरी का नहीं के बराबर इस्तेमाल होता है। मगर डिजाइन थोड़ी भी बढ़ा दिया गया तो बनने में 10 दिन से ज्यादा लग सकते हैं।
कोटा डोरिया साड़ी वजन में हल्की होती है और इसके धागे खास होते हैं। ये धागे शुद्ध कपास के होते हैं। इन साड़ियों को बनाने में शुद्ध कपास और रेशम का उपयोग किया जाता है। डिजाइनर साड़ियों में सोने व चांदी की जरी का काम होता है। डिजाइनर साड़ियों को उच्च आय वर्ग में ही ज्यादा पसंद किया जाता है।
इरशाद ने बताया कि कोटा डोरिया साड़ियां कम वजन के साथ आरामदेह भी होती हैं। पुरानी कलाकृतियों का इस्तेमाल इन्हें और भी खास बना देता है। डिजाइनर कोटा डोरिया साड़ियों की सबसे अधिक मांग दक्षिण भारत के शहरों खासकर हैदराबाद, चेन्नई और बेंगलूरु आदि में रहती है। इस साड़ी की पहचान इसके खत पैटर्न से भी की जा सकती है। अगर छोटे-छोटे वर्गाकार पैटर्न में ब्लॉक नजर आएं और धागों की बुनाई दिखे तो यह असली कोटा डोरिया साड़ी है। साड़ी रेशम और कपास के मिश्रण से तैयार होती है और रेशम कपड़े को चमक के साथ मजबूती देता है। साड़ी पर चेक वाले डिजाइन होते हैं, जिन्हें खत कहा जाता है। इन्हें बनाने के लिए गड्ढे वाले करघे (पिटलूम) का इस्तेमाल होता है।
कोटा डोरिया साड़ी के बुनकर साड़ी बनाने की लागत बढ़ने से परेशान हैं क्योंकि इससे उनके मुनाफे पर सीधी चोट पड़ रही है। अब्बास अली कहते हैं कि बीते कुछ सालों में कच्चा माल बहुत महंगा हो गया है। जरी की कीमत तो इसी साल बहुत अधिक बढ़ गई है क्योंकि सोने-चांदी के दाम काफी उछल गए हैं। साल भर पहले 300 से 350 रुपये प्रति 10 ग्राम मिलने वाली जरी आज 700 रुपये प्रति 10 ग्राम मिल रही है। 4,000 से 4,500 रुपये किलोग्राम बिकने वाला रेशम भी दो-तीन साल के भीतर 6,000 से 6,500 रुपये प्रति किलो पर हुंच गया है। कपास का बंडल भी अब दोगुना होकर 2,500 रुपये से ज्यादा कीमत में मिल रहा है।
बुनकरों की दिक्कत यह है कि कच्चा माल जिस हिसाब से महंगा हुआ है, उस हिसाब से साड़ी का दाम नहीं बढ़ाया जा सकता। इसीलिए मुनाफा गंवाना पड़ रहा है। इरशाद बताते है कि लागत निकालने के बाद एक साड़ी पर 1,000 रुपये भी नहीं मिल पाते। चूंकि कोटा डोरिया साड़ी बुनने में ज्यादा समय लगता है, इसलिए बुनाई का मेहनताना 400 रुपये रोज पर भी नहीं पहुंच पाता। अंसारी कहते हैं कि ये साड़ियां बुनने में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा है, इसलिए कम कमाई के बाद भी यह कला जिंदा है क्योंकि कोटा डोरिया साड़ी बुनने में जितना पैसा मिलता है, उससे ज्यादा पैसा आसपास के शहरों और राज्यों में मजदूरी करने पर मिल जाता है।
यह साड़ी बनती भले ही राजस्थान के गांवों में है मगर इसकी बिक्री कोटा के बाजार में ही होती है। इसीलिए इसे कोटा डोरिया साड़ी कहा जाता है। मगर इसका एक नाम मसूरिया साड़ी भी है। इसके बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। अंसारी ने बताया कि कोटा डोरिया साड़ी का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है और राजा राव किशोर सिंह जब मैसूर से कोटा आए तो अपने साथ कुछ बुनकर भी ले आए। इन बुनकरों को कोटा के पास कैथून में बसाया और वे लोग साफा, पगड़ी तथा साड़ियां बुनने का काम करने लगे। चूंकि ये मैसूर से आए थे, इसलिए इनकी बुनी साड़ियां मसूरिया साड़ी कहलाने लगीं। बाद में इन साड़ियों की पहचान कोटा डोरिया साड़ी के नाम से बनी क्योंकि ये साड़ियां कोटा के बाजार में बिकती थीं।
एक कहानी यह भी है कि मुगलों के जमाने में कोटा में भी सेना की एक टुकड़ी रहती थी, जिसे मैसूर से आने के कारण मसूरिया कहा जाता है। टुकड़ी का सरदार मुगलों की सेना से होता था और उसके लिए शाही दिखने वाले खास वस्त्र बनाए जाते थे, जो गर्मियों में शरीर को ठंडा रखते थे। ये वस्त्र बनाने वालों ने ही साड़ियां बुननी शुरू कीं, जिन्हें कोटा डोरिया या मसूरिया साडी कहा गया।