बादल और उमस भरे शुक्रवार की दोपहर जब मैं कानपुर की बेस्टोकेम कंपनी के मालिक मोहम्मद सैफ के दफ्तर में चमड़ा निर्यात पर अमेरिकी शुल्क के संभावित असर पर चर्चा के लिए पहुंचा तो उन्होंने कहा कि ‘आप गलत वक्त पर आए हैं।’ बेस्टोकेम कानपुर और उसके पास के उन्नाव में चमड़ा शोधन कारखानों (टेनरी) में चमड़े की साफ-सफाई और उसे तैयार करने वाले रसायन की आपूर्ति करती है। मैं उलझन में पड़ गया। दिमाग में यह विचार दौड़ रहा था कि उनसे मिलने का यह सही समय क्यों नहीं था, तभी सैफ के स्पष्टीकरण से बात कुछ साफ हुई।
सैफ ने कहा कि कानपुर का चमड़ा उद्योग काफी हद तक निर्यात पर निर्भर है। कानपुर और उन्नाव में तैयार होने वाला 60 से 70 फीसदी माल अमेरिका भेजा जाता है। मगर वहां भारतीय उत्पादों पर शुल्क बढ़ जाने की वजह से अमेरिकी आयातकों ने ज्यादातर ऑर्डर रोक दिए हैं। इससे दोनों शहरों में अधिकांश टेनरियां तकरीबन ठप पड़ गई हैं। उन्होंने कहा कि सितंबर के बाद स्थिति और खराब हो जाएगी। पहले दिए गए ऑर्डर का माल भेजे जाने के बाद अमेरिका से नई मांग लगभग बंद हो जाएगी।
सैफ ने कहा, ‘इटली या ब्राजील जैसे प्रतिस्पर्धियों की तुलना में सस्ते श्रम से हमें लागत के लिहाज से बढ़त मिलती थी। पहले हमारा ध्यान उच्च गुणवत्ता वाले चमड़े के निर्यात पर था। मगर अब हम न तो चमड़े के सामान और न ही गुणवत्ता वाले चमड़े में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।’
सैफ ने कहा कि उच्च शुल्क का मतलब यह भी होगा कि शहर का चमड़ा और चर्म उत्पाद उद्योग, जो पहले से ही उत्तर प्रदेश सरकार की प्रदूषण पर कार्रवाई और चीन के कृत्रिम चमड़े से बढ़ती प्रतिस्पर्धा से जूझ रहा है, उसे अब जिंदा रखने के लिए कीमतों में भारी वृद्धि करनी होगी। उन्होंने कहा, ‘अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए एकमात्र विकल्प अधिक कीमत लेना है। हम जो बनाते हैं वह मौलिक रूप से कुछ विशेष नहीं होता। उदाहरण के लिए कानपुर में जो उत्पाद हम 100 रुपये में बनाते थे उसे कहीं और बनाने में 150-200 रुपये लग जाता है। मगर यह बढ़त अब खत्म हो गई है।’
भारत का चमड़ा उद्योग पिछले तीन वर्षों में बढ़ा है। वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार 2024-25 में भारत से चमड़ा और चमड़ा उत्पाद का निर्यात 4.36 अरब डॉलर था जबकि 2023-24 में 4.28 अरब डॉलर और 2022-23 में 2.91 अरब डॉलर मूल्य के चमड़ा और चमड़ा सामान का निर्यात किया गया था। उन्होंने कहा कि अगर शुल्क का मामला जल्द हल नहीं हुआ तो इसका व्यापक प्रभाव पड़ेगा और हमारा निर्यात आधा हो जाएगा।
सैफ के दफ्तर से कुछ दूर पर ही यश कपूर का कुत्तों के खिलौने और पालतू पशुओं के लिए खाद्य वस्तुएं बनाने का कारखाना है। फजलगंज इंडस्ट्रियल एस्टेट में यहां से करीब 10 किलोमीटर दूर उनकी चार विनिर्माण इकाइयां हैं लेकिन यह कानपुर है, जो अपनी जाम वाली सड़कों के लिए जाना जाता है। लगभग एक घंटे तक जाम से जूझने और उनकी फैक्टरी खोजने में लग गए। जैसे ही एमआर स्टील्स के सामने ‘बड़ा नीला गेट’ खुला, ताजी बेक्ड कुकीज की खुशबू आने लगी।
असल में यह ग्राउंड फ्लोर पर बनाए जा रहे कुत्तों के खाद्य वस्तुओं की खुशबू थी। विनिर्माण इकाई के आगे, संकरी सीढ़ियां एक साधारण से सजे प्रतीक्षा कक्ष की ओर जाती हैं। इसके केंद्र में एक भारी काले शीशे की टेबल थी, जिसके चारों ओर छह करीने से रखी कुर्सियां थीं। मगर ध्यान खींचने वाली चीज थी, कुत्तों के लिए किस्म-किस्म के सैकड़ों खिलौने।
लगभग 5 मिनट बाद कपूर आए और मुस्कराते हुए गर्मजोशी से हाथ मिलाया। हम अभी बैठे भी नहीं थे कि उन्होंने कहा कि उनकी चार इकाइयां 5 फीसदी से भी कम क्षमता पर काम कर रही हैं। उन्होंने कहा, ‘पेट उत्पादों का वैश्विक बाजार करीब 300 अरब डॉलर का है, जिसमें अनुमान के अनुसार अमेरिका का हिस्सा 40 से 60 अरब डॉलर है। इसमें खिलौने, खाद्य वस्तुएं और हेल्थकेयर शामिल हैं। इस सेगमेंट में अमेरिका को भारत का निर्यात 20 से 30 करोड़ डॉलर है, जबकि चीन का हिस्सा 8-10 अरब डॉलर है।’
उनकी जैसी फर्मों को उम्मीद थी कि चीन पर शुल्क लगने के बाद बाजार में उनकी हिस्सेदारी अधिक होगी। कपूर ने यह भी सोचा था कि भारत का 10 फीसदी का कम प्रारंभिक शुल्क इसे वियतनाम और थाईलैंड जैसे प्रतिस्पर्धियों पर बढ़त दिलाएगा। मगर अब स्थिति बदल गई है।
चीन दुनिया का सबसे बड़ा पालतू पशु उत्पाद विनिर्माता है और भारत को उससे प्रतिस्पर्धा करने के लिए मौजूदा स्तर से कम से कम 15-20 फीसदी कम शुल्क की आवश्यकता है। कपूर ने कहा, ‘कोई भी आयातक सिर्फ 5 फीसदी के अंतर के लिए आपूर्तिकर्ता नहीं बदलता है। विनिर्माण में यदि कोई आयातक 5 फीसदी की रेट कटौती के लिए कहता है तो विनिर्माता आम तौर पर सहमत हो जाता है या वे लागत को बांट लेते हैं।’
पेट उत्पाद विनिर्माण भी श्रम-बहुल क्षेत्र है। उत्पादन लगभग ठप हो गया है लेकिन श्रमिकों को आसानी से जाने नहीं दिया जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘कुत्तों के लिए रस्सी के खिलौने लें। प्रत्येक को हाथ से बुना और फिर सिला जाता है और ठीक से काटा जाता ताकि वह टिकाऊ हो। श्रमिकों को प्रशिक्षित करने में समय लगता है। एक बार प्रशिक्षित होने के बाद उन्हें कोई गंवाना नहीं चाहेगा। कपूर ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि सरकार उनके जैसे छोटे और मझोले उपक्रमों को ऊंचे शुल्क से निपटने में मदद कर सकती है।
फ्लेक्सिबल इंटरमीडिएट बल्क कंटेनर (एफआईबीसी) बैग बनाने वाले प्लास्टिपैक के उप प्रबंध निदेशक शशांक अग्रवाल ने अमेरिका के 50 फीसदी शुल्क पर चिंता को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, ‘भारत सालाना लगभग 1 अरब डॉलर मूल्य के एफआईबीसी का निर्यात करता है और इसका वैश्विक बाजार 5 अरब डॉलर का है। इसमें से 45 करोड़ डॉलर का माल अमेरिका भेजा जाता है। भारत के पास अमेरिकी बाजार का लगभग 75 फीसदी हिस्सा है, जो इस श्रेणी में चीन, तुर्किये, वियतनाम और बांग्लादेश को मिलाकर भी अधिक है।’
अग्रवाल ने तर्क दिया कि अमेरिका जाने वाले एफआईबीसी निर्यात में मंदी की आशंका गलत है क्योंकि भारत की बाजार हिस्सेदारी बहुत अधिक है। उन्होंने कहा, ‘ये उत्पाद कहीं और नहीं बनाए जा सकते। यहां तक कि 400 फीसदी शुल्क (भारत पर) पर भी, कोई अन्य देश एफआईबीसी की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता है।’
अग्रवाल ने कहा कि शुल्क अगले तीन महीनों में थोड़े समय के लिए अस्थिरता पैदा कर सकते हैं और आयातकों को अगले 12 से 24 महीनों में अन्य आपूर्तिकर्ताओं की तलाश करने के लिए मजबूर कर सकते हैं लेकिन लागत और व्यापक उत्पादन भारत को बढ़त में रखेंगे। उन्होंने कहा, ‘यहां लोग घबराए हुए हैं लेकिन हमारे वितरक और आयातक नहीं। कुल मिलाकर 58.4 फीसदी शुल्क पर भी, वे हमें माल भेजना जारी रखने के लिए कह रहे हैं।’