सरकार का स्वास्थ्य क्षेत्र में 2017-18 में कुल खर्च घटकर सकल घरेलू उत्पाद का 3.3 प्रतिशत रह गया है, जो इसके पहले के दो वित्त वर्षों में 3.8 प्रतिशत था। आज जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (एनएचए) के अनुमानों से यह जानकारी मिली है।
एनएचए के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि जीडीपी के साथ कुल व्यय के हिस्से के रूप में सरकार का स्वास्थ्य व्यय 2013-14 और 2017-18 के बीच 3.78 प्रतिशत से बढ़कर 5.12 प्रतिशत हो गया है, जिसकी व्याख्या 2017-18 में आउट आफ पॉकेट व्यय (ओओपीई) में नजर आ रही गिरावट के रूप में की जा सकती है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कुल जीडीपी में स्वास्थ्य पर खर्च का प्रतिशत 2013-14 के 1.15 प्रतिशत से बढ़कर 1.35 होने पर भी जोर दिया है।
इंडिया रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री देवेंद्र पंत ने कहा, ‘यह देखा जाना जरूरी है कि क्या यह जारी रहता है। आयुष्मान भारत सितंबर 2018 में पेश किया गया था, सरकार का व्यय बढ़ा हो सकता है, लेकिन 2020 और 2021 की महामारी ने जेब से खर्च बढ़ाया है।’
2017-18 में आउट आफ पॉकेट व्यय गिरकर 48.8 प्रतिशत रह गया, जो एक साल पहले 58.7 प्रतिशत था। राष्ट्रीय स्तर पर जहां यह गिरा है, कुछ राज्यों में आउट आफ पॉकेट व्यय राष्ट्रीय औसत की तुलना में बहुत ज्यादा है।
उदाहरण के लिए 2017-18 में कुल चालू व्यय में उत्तर प्रदेश में इसकी हिस्सेदारी 72 प्रतिशत से ज्यादा है, जबकि पश्चिम बंगाल और पंजाब में 69 प्रतिशत से ज्यादा है।
इंडियन इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक हेल्थ के निदेशक दिलीप मावलंकर ने कहा, ‘आयुष्मान भारत आने के साथ सरकार का व्यय आगे और बढ़ेगा। बहरहाल अब यह आकलन की जरूरत है कि महामारी की वजह से कितना आउट आफ पॉकेट व्यय बढ़ा है।’ उन्होंने यह भी कहा कि महामारी के वर्षों में परिवारों के स्वास्थ्य व्यय के आकलन के लिए एनएसएसओ के एक विशेष दौर के सर्वे की जरूरत है।
प्रति व्यक्ति आउट आफ पॉकेट व्यय 2013-14 के 2,336 रुपये से कम होकर 2017-18 में 2,097 रुपये रह गया है। आउट आफ पॉकेट व्यय उस खर्च को कहा जाता है, जो एक परिवार अपनी जेब से स्वास्थ्य देखभाल के लिए खर्च करता है। इससे पता चलता है कि स्वास्थ्य सेवा पर भुगतान के मामले में परिवार को कितना वित्तीय संरक्षण प्राप्त है।
विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार का लक्ष्य स्वास्थ्य सेवा पर आवंटन बढ़ाकर जीडीपी का 2.5 प्रतिशत करने का है, जिससे आउट आफ पॉकेट खर्च में और कमी आएगी। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है, ‘अगर हम एनएचए 2014-15 और 2017-18 की तुलना करें तो सरकारी अस्पतालों के लिए ओओपीई में 50 प्रतिशत गिरावट आई है।’
2017-18 में कुल स्वास्थ्य पर हुए खर्च का एक तिहाई दवाओं पर खर्च हुआ है। इसमें चिकित्सकों द्वारा लिखी गई दवाइयों पर खर्च व स्वत: खरीदी गई दवा पर खर्च शामिल है। फिजीशियन द्वारा बहिरंग रोगियों को लिखी गई दवाओं पर होने वाला खर्च इसमें शामिल होता है।
2017-18 में चालू स्वास्थ्य खर्च में सबसे ज्यादा 29 प्रतिशत हिस्सेदारी निजी सामान्य अस्पतालों की है, जबकि सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई सेवा की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत है।
मणिपाल हॉस्पिटल्स के एमडी और सीईओ दिलीप जोसे ने कहा, ‘छोटे व मझोले शहरों सहित अस्पतालों में अतिरिक्त बेड की क्षमता बनाई जा रही है। ऐसे में अस्पतालों तक पहुंच बढऩे, वहनीयता बढऩे और मेडिकल बीमा योजनाओं तक पहुंच बढऩे से निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी जारी रहेगी।’
मौजूदा सरकारी स्वास्थ्य व्यय में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की हिस्सेदारी 2013-14 के 51.1 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 54.7 प्रतिशत हो गई है। मौजूदा सरकारी स्वास्थ्य व्यय में प्राथमिक व द्वितीयक स्वास्थ्य पर खर्च की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत से ज्यादा है।
निजी क्षेत्र में जहां तृतीयक देखभाल की हिस्सेदारी बढ़ी है, प्राथमिक व द्वितीयक देखभाल की हिस्सेदारी कम हुई है।
2016-17 और 2017-18 के बीच प्राथमिक और द्वितीयक स्वास्थ्य पर सरकार की हिस्सेदारी 75 प्रतिशत से बढ़कर 86 प्रतिशत हो गई है। निजी क्षेत्र में यह 84 प्रतिशत से गिरकर 74 प्रतिशत पर आ गई है।
स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह भी कहा है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में विदेशी सहायता घटकर 0.5 प्रतिशत रह गई है, जिससे स्वास्थ्य क्षेत्र में भारत की आत्मनिर्भरता का पता चलता है। कुल स्वास्थ्य व्यय के प्रतिशत में सामाजिक सुरक्षा व्यय की हिस्सेदारी 2013-14 के 6 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में करीब 9 प्रतिशत हो गई है।
नैशनल हेल्थ सिस्टम्स रिसोर्स सेंटर द्वारा तैयार की यह लगातार 5वीं रिपोर्ट है। स्वास्थ्य मंत्रालय के बयान में कहा गया है, ‘2017-18 के एनएचए के अनुमान से न सिर्फ यह पता चलता है कि स्वास्थ्य पर सरकार का व्यय व्यय बढ़ रहा है, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में लोगों का भरोसा बढ़ रहा है।’
