गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (नॉन बैंकिंग फाइनेस कंपनी- एनबीएफसी) और बैंकों के बढ़ते संपर्क के मद्देनजर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इन्हे नियंत्रित करने वाले मानदंडों की समीक्षा करने का प्रस्ताव रखा है।
इस समीक्षा के पीछे वजह यह है कि इनमें से ज्यादातर एनबीएफसी बहुत ज्यादा फायदे में चल रही हैं और वह अपनी गतिविधियों के लिए फंड जुटाने के लिए अल्प अवधि के स्रोतों का इस्तेमाल करती हैं।
मई 2008 के अंत में रिजर्व बैंक पूंजी की पर्याप्तता, तरलता और डिस्क्लोजर वगैरह से जुड़े मानदंडों पर नए सिरे से सोच विचार क रेगा। नॉन डिपॉजिट टेकिंग एनबीएफसी वह होती हैं जिनकी परिसंपत्तियां 100 करोड़ रुपये या उससे ज्यादा होती हैं और जो सार्वजनिक जमा स्वीकार नहीं करती। साल 2006 में दिशा निर्देश जारी किए गए थे जिनमें एनबीएफसी और बैंकों से उनके संबंधों को निर्धारित करने वाले नियामक मानदंडों को भी शामिल किया गया था।
रिजर्व बैंक एनबीएफसी और बैंकों के साथ उनके संबंधों को मॉनीटर कर रहा है। एनबीएफसी क्षेत्र पर इतने कायदे कानून नहीं लागू किए गए थे। लेकिन जैसे जैसे इन कंपनियों की परिसंपत्तियों में इजाफा हुआ है, इस सेक्टर पर लगाम लगाने के लिए आरबीआई अधिक कोशिश कर रहा है।
इस क्षेत्र के एक जानकार का कहना है कि बहुत सी गैर वित्तीय संस्थाएं सस्ती ब्याज दर पर कम अवधि के लिए उधार लेती हैं और ज्यादा दर पर लंबी समय के लिए ऋण देती हैं। हाल में यह देखने में आया है कि सामान्य रूप से और बैंकों (जैसे आईसीआईसीआई, एचडीएफसी) द्वारा एनबीएफसी स्थापित करने में रुचि काफी बढ़ गई है। विदेशी बैंक भी इस कड़ी में शामिल हैं।
चूंकि रिजर्व बैंक विदेशी बैंकों को लाइसेंस देने में कई साल लगा देता है इसलिए यह बैंक अपना रिटेल व्यवसाय फैलाने के ख्याल से एनबीएफसी के जरिए जगह बनाने की जुगत में जुट जाते हैं। यह कंपनियां मुख्य रूप से जो उत्पाद या सेवाएं उपलब्ध कराती हैं उनमें किराए पर देना व खरीदना, कॉरपोरेट लोन, गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर में निवेश, आईपीओ फंडिंग, स्मॉल टिकट लोन आदि शामिल हैं।