फार्मास्युटिकल और स्वास्थ्य क्षेत्र की कंपनियों के बीच विलय और अधिग्रहण में 2007-08 की दूसरी छमाही में तेज गिरावट देखी गई, जिसकी एक वजह बड़े अधिग्रहणों के दिनों का लद जाना भी है।
2007-08 में अप्रैल से सितंबर माह तक 8 बड़े सौदे किए गए, जिनकी अनुमाति कीमत लगभग 5 हजार करोड़ रुपये है, जबकि दूसरी छमाही में इन सौदों की रफ्तार बेहद ढीली पड़ गई और सिर्फ 1,500 करोड़ रुपये मूल्य के ही सौदे हुए।
उद्योग जगत के विशेषज्ञों का मानना है कि बेशक 2007-08 की पहली और दूसरी छमाही में सौदे की संख्या कमोबेश बराबर रही, लेकिन दूसरी छमाही में इन सौदों के मूल्य में तेज गिरावट की वजह कंपनियों की रक्षा और रणनीति में आए बदलावों को माना जा रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि आर्थिक मंदी और विदेशों में भारतीय कंपनियों के बड़े अधिग्रहणों को मिली असफलता भी, भारतीय फार्मास्युटिकल और स्वास्थ क्षेत्र की कंपनियों की अधिग्रहण में कम होती दिलचस्पी के कारण बन गए। भारत और विदेशों में व्यावहारिक और अनुकुल सुविधाओं की कमी और घरेलू बाजार में ब्रांडों और कंपनियों के उच्च मूल्यांकनों ने भी विलय और अधिग्रहणों के बाजार में मंदी का दौर बना दिया।
कई कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बड़े अधिग्रहणों के विचार से तौबा करते हुए नजर आ रहे हैं, क्योंकि इनमें बड़ा जोखिम होता है, साथ ही इनके एकीकरण में देरी भी हो सकती है, जैसे कि डॉ. रेड्डीज के बीटाफॉर्म अधिग्रहण, मैट्रिक्स-मिलान सौदा और सन फार्मा की इस्राइल कंपनी टारो का अधिग्रहण।
बड़ी कंपनियां अब छोटे ब्रांडों का अधिग्रहण या परिसंपत्तियों जैसे कि रैनबैक्सी का जेनोटेक लैबोरेटरीज में निवेश (कंपनी की कैंसर के इलाज में काम आने वाली दवा के पोर्टफोलियो में प्रवेश के लिए) करने लगी हैं।
मुंबई की एक बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनी के प्रमुख कार्यकारी का कहना है, ‘अब प्रबंधन समझने लगा है कि बेशक विदेशों में बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण करना संवेदात्मक और देश के हित में है, पर अधिग्रहण में तालमेल बिठा पाना वाकई काफी मुश्किल है और कम समय में बड़ी वृध्दि पाने के लिए, अधिग्रहण में कई सालों के लिए मुनाफे से हाथ धोना पड़ता है।’
प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के सह निदेशक सुजय शेट्टी का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय कंपनियों के बीच अधिग्रहण का दौर चला और इनमें से अधिकतर मामलों में, एकीकरण की प्रक्रिया में या उम्मीद से अधिक समय लगा है या फिर इसमें असफलता ही हाथ लगी है। सुजय शेट्टी कहते हैं, ‘अब वैश्विक अर्थव्यवस्था में बदलाव हो रहे हैं और निजी कंपनियां और सलाहकार अधिग्रहण के लिए इच्छुक कंपनियों को किसी भी कंपनी के अधिग्रहण से पहले शोध कार्य और जानकारी इकट्ठी करने की सलाह दे रहे हैं।’
आर्क फार्मा लैब्स के कार्यकारी निदेशक, राजेन्द्र कैमल का कहना है, ‘विदेशों में अधिग्रहण के इरादे वाली अधिकांश भारतीय कंपनियां विर्निमाण परिसंपत्तियों की जगह मार्केटिंग इकाईयों पर ध्यान दे रही हैं, क्योंकि हम कम लागत के साथ इन उत्पादों को भारत में बना सकते हैं। लेकिन बेहतर मार्केटिंग ढांचें वाली कंपनियों का अमेरिका और यूरोप में कारोबार लगभग खत्म हो चुका है।’
एंजेल ब्रोकिंग की उपाध्यक्ष और वरिष्ठ फार्मा विश्लेषक सरबजीत कौर नागरा का कहना है कि कई प्रमुख भारतीय कंपनियां अधिग्रहण और विस्तार के चलते अपने कोष का बड़ा हिस्सा खत्म कर चुकी हैं। ‘कोई भी सौदा मूल्यांकन और मोलभाव होने के काफी समय बाद होता है। बड़े विलय और अधिग्रहण सौदों में कमी की एक वजह पर्याप्त धन का उपलब्ध न होना भी होता है।’
प्रभुदास लीलाधर के फार्मास्युटिकल रिसर्च प्रमुख, रंजित कपाडिया का कहना है, ‘इन दिनों विदेशों में कई अलग-थलग हुई विनिर्माण इकाइयां सस्ते दामों में उपलब्ध हैं। भारत में अक्सर ऐसी कंपनियों की कीमत बेहद ज्यादा है। विलय और अधिग्रहण की इच्छुक कंपनियों के प्रबंधन इसी वजह से अभी इंतजार कर रहे हैं। सही समय आने पर ही वे सौदों के लिए हाथ मिलाएंगी। यही वजह है कि अभी इस क्षेत्र में विलय अधिग्रहण में मंदी है।