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टैरिफ की आहट से फार्मा सेक्टर में घबराहट का माहौल, विदेश में उत्पादन पर जोर

अभी फार्मा क्षेत्र अमेरिका की ओर से लगाए गए शुल्क के दायरे से बाहर, लेकिन भविष्य के लिए मंथन में जुटी कंपनियां

Last Updated- August 08, 2025 | 11:26 PM IST
Pharma

भले दवाओं को अभी अमेरिकी शुल्क की जद से बाहर रखा गया है, लेकिन इसका खतरा तो मंडरा ही रहा है, जिसे देखते हुए भारतीय फार्मास्यूटिकल कंपनियां अभी से तैयारी में जुट गई हैं। बिज़नेस स्टैंडर्ड से बातचीत में कई कंपनियों ने कहा कि वे हालात को भांपकर दूर तक की योजना बना रही हैं। इसके लिए वे विदेश में कारखाने लगाने, कई स्रोतों से कच्चा माल लेने और अमेरिका के भीतर ठेके पर दवा बनाने जैसे विकल्पों पर विचार कर रही हैं। इधर निफ्टी फार्मा इंडेक्स आज सुबह लुढ़क गया मगर कारोबार के अंत में बढ़त पर बंद हुआ। सुबह पिटे कई फार्मा शेयरों ने शाम तक भरपाई कर ली मगर अरविंदो फार्मा का शेयर गिरकर बंद हुआ।

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने रूस से तेल खरीदना बंद नहीं करने पर इसी बुधवार को भारत पर शुल्क बढ़ा दिया। उन्होंने भारत से होने वाले आयात पर 25 प्रतिशत शुल्क और लगाने का ऐलान किया, जिससे कुल शुल्क बढ़कर 50 प्रतिशत हो गया। 25 प्रतिशत शुल्क वह पहले ही थोप चुके थे। लेकिन फार्मास्यूटिकल्स क्षेत्र को इस आदेश से बाहर रखा गया है क्योंकि इसे धारा 232 के तहत चल रही जांच में शामिल किया गया है।

इसी वर्ष 14 अप्रैल को अमेरिकी वाणिज्य विभाग के उद्योग और सुरक्षा ब्यूरो (बीआईएस) ने कुछ खास तरह के आयात का अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा प्रभाव परखने और उस आयात पर रोक लगाने के लिए फार्मा क्षेत्र की भी धारा 232 के तहत जांच शुरू की थी।

भारतीय फार्मा उद्योग को लगता है कि जेनेरिक दवाएं अमेरिका में सस्ती स्वास्थ्य सेवा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। इन दवाओं पर बहुत कम मार्जिन होता है, जिससे मरीजों के इलाज के लिए ये दवाएं लगातार उपलब्ध रहती हैं। इंडियन फार्मास्युटिकल अलायंस के महासचिव सुदर्शन जैन ने कहा, ‘एपीआई की आपूर्ति बरकरार रखने और स्वास्थ्य सेवा को मजबूत बनाने के लिए भारत-अमेरिका साझेदारी जरूरी है।’

अमेरिका में तगड़ी पैठ वाली एक अग्रणी भारतीय दवा कंपनी के कार्यकारी निदेशक ने कहा कि जेनेरिक दवाओं की मांग कम कीमत की वजह से ही होती है और भारत में ये दवाएं बहुत कम खर्च में तैयार हो जाती हैं। उन्होंने कहा, ‘चीन को जेनेरिक दवाओं में दिलचस्पी नहीं है। इसलिए अमेरिका के पास भारत के अलावा कोई ढंग का विकल्प ही नहीं है।’

अधिकारी ने कहा कि कंपनियां बदलते माहौल में अपने हित बचाने में जुट गई हैं क्योंकि भारत के कुल दवा निर्यात में अमेरिका की हिस्सेदारी 35 प्रतिशत है। उन्होंने कहा, ‘फिलहाल इस बात पर चर्चा चल रही है कि शुल्क थोपा गया तो उसका कितना हिस्सा खरीदारों पर लादा जा सकता है। अलग-अलग दवा के लिए मामला अलग-अलग होगा। वे दवा बनाने वाली कुछ भारतीय कंपनियां दाम घटा देंगी और कुछ को धंधा करना सही नहीं लगेगा और वे चली जाएंगी। इससे अमेरिका में दवाओं का संकट हो सकता है।’

कंपनियां विदेश में दवा बनाने पर भी विचार कर रही हैं। फार्मा उद्योग के एक दिग्गज ने कहा, ‘भारतीय कंपनियां उत्पादन का एक हिस्सा अमेरिका ले जाने की सोच रही हैं। कुछ कंपनियों के कारखाने वहां पहले से हैं। मगर यह काम शुरू करने में वक्त लग जाएगा।’ उन्होंने यह भी बताया कि कच्चे माल से दवा तैयार करना अमेरिका में 3-4 गुना महंगा होता है क्योंकि वहां कर्मचारी बहुत महंगे पड़ते हैं और इस काम में 70 प्रतिशत लागत कर्मचारियों पर ही जाती है। उन्होंने कहा कि अमेरिका में केवल एक पाली में दवा बनवाने पर भी लागत भारत से डेढ़ गुना हो जाती है। इसलिये कई कंपनियां ठेके पर दवा बनवाने की सोच रही हैं।

कंपनियों के पास यूरोपीय संघ का रुख करने का विकल्प भी है मगर यूरोप में हर देश में अलग-अलग उत्पादन आसान नहीं होगा। फिर भी देखा जा रहा है कि अमेरिका से हटकर यूरोप का ज्यादा रुख करना कितना फायदे या जोखिम भरा हो सकता है। एक फायदा यह हो सकता है कि यूरोपीय संघ से आयात पर अमेरिकी शुल्क भारत से आयात के मुकाबले कम है।

कच्चे माल की आपूर्ति बनाए रखना भी कंपनियों की प्राथमिकता है। एक निर्यातक ने कहा, ‘शुल्क लगने के बाद भी रातोरात भारतीय निर्यातकों की जगह किसी और देश के निर्यातक लाना मुमकिन नहीं है। मगर भारतीय निर्यातक नुकसान में जरूर रहेंगे। मौके का फायदा उठाने के लिए चीन बल्क ड्रग की कीमत बढ़ा सकता है। कंपनियों को इसके दूसरे स्रोत भी तेजी से तलाशने होंगे।’

अमेरिका में इस्तेमाल होने वाली 40 प्रतिशत से अधिक जेनेरिक दवा भारत से ही जाती हैं, जिनमें पुराने रोगों, कैंसर और संक्रामक रोगों की दवाएं शामिल हैं। फार्मेक्सिल के अध्यक्ष नामित जोशी ने कहा, ‘फार्मा क्षेत्र पर अमेरिकी शुल्क का खराब असर होगा और इसका बोझ अमेरिकी उपभोक्ताओं पर पड़ेगा। भारतीय कंपनियां अधिक मार्जिन वाले उत्पाद नहीं बनातीं।’ जोशी ने कहा कि भारत में जितने बड़े पैमाने पर, जितनी किफायत के साथ दवा बनाई जाती हैं, उसकी टक्कर का विनिर्माण करने में कम से कम 3 से 5 साल लग जाएंगे।

First Published - August 8, 2025 | 10:56 PM IST

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